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निर्हेतुकनाश विसदृशकार्योत्पाद हेतुवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ १६५ है । जैसे — अब्राह्मणमानय, अजैनमानय" कहने से ब्राह्मण से भिन्न क्षत्रिय आदि का ज्ञान होता है तथैव अभाव से भावांतर, अवस्तु से वस्त्वंतर और अवाच्य से भिन्न वाच्य का ही ज्ञान होता है।
इसलिए जो आपने चारों पक्षों में दोषोद्भावन किये हैं वे निर्मूल हैं सभी वस्तु कथंचित् सत्, कथंचित असत्, कथंचित् उभय एवं कथंचित् अनुभय रूप हैं।
यदि आप सभी धर्मों को "अवक्तव्य" कहते हैं पुनः उनका कथन कैसे होगा? यदि संवृति से कथन करेंगे तो संवृति तो असत्य ही है।
वह संवृति भी स्वरूप से है, या पररूप से है, या उभय रूप से है, या असत्यरूप से है अथवा तत्त्वरूप से है। इन पाँच विकल्पों के उठाने पर वह संवृति टिक नहीं सकती है। अतः मिथ्या संवृति के द्वारा आपके स्वपक्ष साधन, परपक्ष दूषण वचन भी मिथ्या ही सिद्ध होंगे।
अच्छा यह तो बताइये तत्त्व अवाच्य है क्यों ? क्या उसका कथन अशक्य है, या उसका अभाव है, या उसका ज्ञान नहीं होता है ?
इन तीनों में से आदि का अशक्य और अन्त का अज्ञान पक्ष तो असंभव है क्योंकि आपने स्वयं बुद्ध में क्षमा, मैत्री आदि दश बल माने हैं एवं उसे प्रज्ञापारमित सर्वज्ञ कहा है एवं छझस्थ भी शक्तिशाली और ज्ञानी देखे जाते हैं जो तत्त्व का वर्णन कर सकते हैं अब मौन व्रत लेने से क्या ? एवं तत्त्व अवाच्य है ऐसी बहानेबाजी से क्या है ? स्पष्ट बोलिये कि तत्त्व का अभाव है बस आप शून्यकांतवादी हो गये । तथा आपके यहां दूसरा दोष यह भी बहुत बड़ा आता है कि "कृतनाश और अकृताभ्यागम” का भी प्रसंग आ जाता है अर्थात् किये हुये का फल न मिलना और अपने नहीं किये हुये का फल मिलना जो कि उपहासास्पद है। हिंसा के अभिप्राय वाला चित्त हिंसक नहीं होता है क्योंकि उसका अभिप्राय के बाद निर वय नाश हो गया। तथा अभिप्राय से रहित चित्त हिंसा करेगा। उसी प्रकार तीसरा चित्त कर्मों से बंधेगा एवं जो बंधा हुआ है वह मुक्त नहीं होगा। इस प्रकार से बौद्ध को छोड़कर ऐसा कौन बुद्धिमान है जो बद्ध की मुक्ति के अभाव को सूचित करने वाले निरन्वय क्षणिक पक्ष को मानेगा, अर्थात् कोई नहीं मानेगा।
उपसंहार-बौद्ध सभी चार कोटि के विकल्पों को अवाच्य कह रहा है और फिर अवाच्य को संवृति से वाच्य कह रहा है। परन्तु आचार्यों ने उसे अवाच्य कहने से वस्तु के अभाव का भय दिखाया है । एवं सर्वथा क्षण-क्षण विनाशी क्षणिक मत में हमारे किये का फल अन्य कोई भोगेगा और अन्य के किये का फल हमें भोगना पड़ेगा ये दो आपत्तियां दुनिवार आती हैं ऐसा आचार्यों ने उसे समझाया है।
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