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अष्टसहस्री
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[ तृ० ५० कारिका ५२ अहेतुकत्वान्नाशस्य हिंसाहेतुर्न हिंसकः ।
'चित्तसंततिनाशश्च मोक्षो नाष्टाङ्गहेतुकः ॥५२॥ सर्वथाप्यहेतुं विनाशमभ्युपगम्य कस्यचिद्यदि' हिंसकत्वं ब्रूयात् कथमविक्लवः ? तथा निर्वाणं संतनासमूलतलप्रहाणलक्षणं 'सम्यक्त्वसंज्ञासंज्ञिवाक्कायकर्मान्तायामाऽजीवस्मृतिसमाधिलक्षणाष्टाङ्गहेतुकं यदि ब्रूयात्तदापि कथं स्वस्थः ? 'तयोरहेतुकविनाशाभ्युपगम
उत्थानिका-नाश को अहेतुक मानने से क्या हानि है ? सो दिखाते हैं
यदि नाश निर्हेतुक है, हिंसक हिंसा में हेतू नहीं। तथा चित्तसंतति विनाश से मोक्ष कहा निर्हेतु सही। पुनः आप अष्टांग निमित्तक मोक्ष कहा सो कैसे हो।
यदि नाश निर्हेतुक है तब मोक्ष सहेतुक कैसे हो ॥५२॥ कारिकार्थः-यदि आप बौद्ध नाश को अहेतुक मानते हैं तो हिंसा के हेतु को हिंसक नहीं मानना चाहिये और चित्तसंतति के निरोधरूप मोक्ष को भी अष्टांग हेतुक नहीं कहना चाहिये । ॥५२॥
"सर्वथा भी विनाश को अहेतुक स्वीकार करके यदि किसी को हिंसक कहें तो वह विक्लवरहित कैसे है ? तथा संतान को समूल तल प्रहाण लक्षण निर्वाण को यदि सम्यक्त्व, संज्ञा, संजी, वाक्कायकर्म, अंतर्व्यायाम, अजीव, स्मृति, समाधिलक्षण अष्टांग हेतुक कहते हैं" तो वे स्वस्थ कैसे हैं ?
भावार्थः–बौद्ध ने विनाश को अहेतुक माना है और मोक्ष को अष्टांग हेतुक कहा है। उसमें बुद्ध के धर्म को सम्यक्त्व कहते हैं, स्त्री आदि का अभिधान संज्ञा है, स्त्री आदि ही संज्ञी हैं, वचनकाय का व्यापारा उसका कर्म है, वायु निरोध अंतर्व्यायाम है, जीव का अभाव रूप अजीव नैरात्म्य है, पिटकत्रय का अर्थ चिंतन स्मृति है और ध्यान को समाधि कहते हैं । इन आठ हेतुओं से मोक्ष को माना है एवं मोक्ष का लक्षण भी उसने चित्तसंतति के विनाश रूप ही कहा है पुन: नाश को अहेतुक कहके मोक्ष को सहेतुक कहना गलत है परस्पर विरुद्ध दोष से दुषित है।
1 इति चेत्तहि । दि० प्र०। 2 चैतन्यसन्तानसमूलतलप्रहाणलक्षणो निर्हेतूक: स्यात् । दि० प्र० । 3 सम्यक्त्व बुद्धधर्मः, संज्ञावस्तुनाम, वाक्कायव्यापारः, अम्भर्व्यायामो वायुनिरोधः, जीवाभावः स्मृतिपिटकत्रयचिन्ता, ध्यानं, समाधिरित्यष्टावङ्गानि निर्वाणस्य हेतवो न स्युः बौद्धानां मते । कुतो निर्हेतुकत्वात् । दि० प्र०। 4 क्षणस्य । ब्या० प्र० । 5 तदा । ब्या० प्र० । 6 किञ्च । ब्या० प्र० । 7 स्यावाद्याह हे सौगत भवताङ्गीकृतयोः निर्हेतुकविनाशवश्वकत्वयोः अष्टाङ्गहेतुकत्वचित्तसंततिनाशलक्षणनिर्वाणयोश्च परस्परं विरोधोस्ति यथा सुगते सर्वज्ञत्वासर्वज्ञत्वयोरन्योन्यविरोधः । दि० प्र० ।
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