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विसदृश कार्योत्पादहेतुवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ १६६ षङ्गाच्च । सोय' विसदृशकार्योत्पादहेतुव्यतिरिक्तहेत्वभावात् पूर्वाकारविनाशस्याहेतुकत्वमुपयन्नाशहेतुव्यतिरिक्तहेत्वभावादुत्तरोत्पादस्याहेतुकत्वं नानुमन्यते इति कथमनाकुलः ? ।
[ विनाशः स्वभावत एवेति मन्यमाने जैनाचार्या नाशोत्पादौ एकहेतुको एव मन्यते । ]
विसभागसंतानोत्पादनाय हेतुसन्निधिर्न प्रध्वंसाय, पूर्वस्य स्वरसतो निवृत्तरिति चेत् स पुनरुत्तरोत्पादः स्वरसतः किन्न स्यात् ? 'तद्धेतोरप्यकिंचित्करत्वसमर्थनाद्विनाश
मुद्गर हेतु नहीं है अत: उससे भिन्न अन्य हेतु होना चाहिये वह दिखता नहीं है अतः कार्य के उत्पाद से भिन्न विनाश के हेत का अभाव होने से विनाश अहेतक है। इस पर जैनाचार्यों ने कहा कि घट के फूटने में प्रत्यक्ष से हमें मुद्गर हेतु दिख रहा है इस नाश के हेतु से भिन्न कपाल की उत्पत्ति में अन्य हेतु का अभाव है। पुनः उत्तराकार के उत्पाद को अहेतुक क्यों नहीं मान लेता है ? अर्थात्
। और उत्पाद में एक ही मदगर देत है फिर भी वह उत्पाद को सहेतक और विनाश को अहेतुक कह देता है वैसे विनाश को सहेतक और उत्पाद को अहेतक क्यों नहीं कहता है ? इसलिये हमें ऐसा मालूम पड़ता है कि वह बौद्ध विक्षिप्त मन सहित ही है, किन्तु निराकुल नहीं है । अन्यथा या तो दोनों को सहेतुक मानता या दोनों को ही अहेतुक मान लेता तभी अच्छा था।
[ विनाश स्वभाव से ही होता है ऐसा मानने पर जैनाचार्य विनाश
और उत्पाद दोनों को सहेतुक सिद्ध करते हैं । ] बौद्ध-विसभाग-विसदृश संतान-कपालमालाक्षण कार्य के उत्पन्न करने के लिये हेतु का व्यापार है न कि प्रध्वंस के लिये है । क्योंकि पूर्वाकार को तो स्वभाव से हो निवृत्ति हो जाती है।
जैन-यदि ऐसी बात है तब तो भैया ! उस विसदश कार्य रूप उत्तराकार की उत्पत्ति भी स्वभाव से ही क्यों नहीं हो जायेगी ? उस उत्पाद के हेतु को भी हमने अकिंचित्कर हो समर्थित किया है। विनाश हेतु के समान ।
बौद्ध-स्वभाव से उत्पन्न होकर भी तदनन्तर भावी होने से उस (घट) से उत्पन्न हुआ है ऐसा कहा जाता है।
जैन-यदि ऐसी बात है तो यह बात तो विनाश में भी समान ही है।
कपाल लक्षण कार्यक्षण के समान ही घट लक्षण पूर्वक्षण का प्रध्वंस भी मुद्गरादि हेतु के अनन्तर भावी रूप से समान ही है तब तो उस मुद्गरादि हेतु से विनाश हो गया ऐसा व्यपदेश भी
1 मुद्गरादिः । ब्या०प्र० । 2 घटाकारः। दि० प्र०। 3 का। ब्या० प्र०। 4 स्वरसनिवृत्तिः । इति पा० । दि०प्र० । 5 एतत् कारिकाव्याख्यानावसाने । ब्या० प्र०। 6 सौगत आह कार्य स्वभावत उत्पत्रमपिहेत्वनन्तरं भवति यतस्तेन कारणेन अस्य कार्यस्येदं कारणमिति व्यपदिश्यते संबद्धयते । इति चेत् स्याद्वादी विनाशोपि समानः कस्मात् यथा कार्यपदार्थस्य हेत्वनन्त रभावित्वं तथा पूर्वपदार्थविनाशस्यापि उभयत्र विशेषाभावात् । तेन कारणेनास्य विनाश येदं कारणमिति सम्बन्धो भवतु वा अर्थवानकार्यस्यापि माभूत् । दि० प्र० ।
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