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अष्टसहस्री
[ तृ० प० कारिका ५० प्रतिपत्ति समीक्ष्य सर्वत्र तत्कल्पनास्तु, विशेषाभावात् । दर्शनविकल्पयोः परमार्थंकतानत्वाभावे' न किंचित्सिद्धम् । दृष्टस्यानिर्णयाददृष्टकल्पनाददृष्टनिर्णयस्य' प्रधानादिविकल्पाविशेषात् कुतो दर्शनस्य कल्पनापोढस्यापि परमार्थंकतानत्वम् ? न हि दृष्टे स्वलक्षणे निर्णयः संभवति, तस्य तदविषयत्वात् । अदृष्टे तु सामान्यलक्षणे निर्णयः प्रवर्तमानो न प्रधानादिविकल्पाद्विशेष्यते । इति सकलप्रमाणाभावात्प्रमेयाभावसिद्धेरवक्तव्यतैकान्तवादिनां नैरात्म्यमेवायातं, 'सर्वथाप्यशक्यसमयत्वेनाप्य शक्यत्वपक्ष'स्यासंभवादन व बोधपक्षवद
अर्थात् सीप के टुकड़े में चाँदो को विषय करने वाले विपरीत ज्ञान के होने पर सत्य ज्ञान में भो विपरीत कल्पना ही होनी चाहिये।
"पुनः इस तरह दर्शन एवं विकल्प-शब्द में परमार्थरूपता का अभाव हो जाने पर कुछ भी (अन्तस्तत्त्व-वहिस्तत्त्व) सिद्ध नहीं होता है।
निर्विकल्पप्रत्यक्ष के विषयभूत स्वलक्षणरूप दृष्ट का निर्णय न होने से अदृष्ट रूप सामान्य की कल्पना से अदृष्ट का निर्णय मानते हो तब तो प्रधान, ईश्वर आदि के विकल्प भी समान ही हैं।"
पुनः कल्पना से रहित भी निर्विकल्प दर्शन एक परमार्थ को ही विषय करता है यह किस प्रमाण से सिद्ध होगा?
दृष्ट स्वलक्षण में निर्णयरूप विकल्प ज्ञान संभव नहीं है क्योंकि वह निर्णय स्वलक्षण को विषय नहीं करता है। निर्विकल्प प्रत्यक्ष का जो विषय नहीं है ऐसे स्थिर स्थल घटपटादिरूप सामान्य लक्षण अदृष्ट में प्रवृत्त हुआ निर्णय प्रधान आदि विकल्पों से भेद नहीं रखता है। इसलिये अवक्तव्यकांतवादियों के यहाँ सकल प्रमाण का अभाव होने से प्रमेय का भी अभाव सिद्ध हो जाता है पुनः नैरात्म्यवाद ही आ जाता है । क्योंकि सर्वथा भी संकेत के शक्य न होने से अशक्यत्व पक्ष भी अनवबोध पक्ष के समान असंभव हो जाता है पुनः अभाव पक्ष ही निर्व्याजरूप से सिद्ध हो जाता है। इस तरह तत्त्व अवाच्य है अर्थात् अभावरूप है ऐसा सिद्ध हो जाने पर क्षणिकैकांत पक्ष में कृतनाश और अकृताभ्यागम का भी प्रसंग आ जाता है।
जो कि उपहासास्पद ही है। कृतनाश अर्थात् जिसने किया है वह भोक्ता नहीं होगा और अकृताभ्यागम-जिसने नहीं किया है वह भोक्ता है इस प्रकार से दोष आ जायेंगे । जो कि उपहास. रूप ही हैं।
1 द्वयोरपिपरमार्थंक नानात्वानभ्युपगम एकस्यैव दर्शनस्य परमार्थंकतानत्वं न तु विकल्पस्येत्यभ्युपगम इत्यर्थः । ब्या० प्र० । 2 कल्पत्वाद् । इति पा० । ब्या० प्र०। 3 अदृष्टमपि निर्णयात् चेत् । ब्या० प्र०। 4 बौद्धस्य तदनङ्गीकारः अविद्यमान विकलनात् । ब्या० प्र०। 5 असत्यभूताद । ब्या० प्र०। 6 कथितप्रकारेण । दि० प्र० । 7 पुनः स्याद्वाद्याह । हे सौगत ! अशक्य समवाय त्वादन भिलाप्यमर्थरूपभिति यवतं त्वया। ततं अशक्यत्वपक्षोपि न संभवति । यतः सुगतस्य । दि० प्र०। 8 स्वलक्षणस्याशक्यसके तत्वेन । दि० प्र० । 9 स्वलक्षणस्य । दि० प्र० ।
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