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अवक्तव्यवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग
[ १९१ भावस्यैव' निर्व्याजत्वसिद्धेः । ततः क्षणक्षयकान्तपक्षे कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गः । स' चोपहासास्पदमेव' स्यात् । तथा हि।
हिनस्त्यनभिसन्धातृ न 'हिनस्त्यभिसंधिमत् ।।
बध्यते तवायापेतं चित्तं' बद्धं न 'मुच्यते ॥५१॥ हिंसाभिसंधिमच्चित्तं न हिनस्त्येव प्राणिनं, तस्य निरन्वयनाशात् संतानस्य वासनायाश्चासंभवात् । अनभिसन्धिमदेवोत्तरं 11 चित्तं हिनस्ति । तत एव हिंसाभिसन्धिहिंसा
बौद्धों के यहाँ तत्त्व को अवक्तव्य मानने पर कृतनाश और अकृताभ्यागम का प्रसंग आ जावेगा अब उसे ही कहते हैं । उत्थानिका-इसी का स्पष्टीकरण करते हैं
हिंसा के अभिप्राय रहित हिंसा करता कोई निश्चित । हिंसा के अभिप्राय सहित नहिं हिंसा कर सकता किंचित ॥ इन दोनों से रहित बंधा है बद्ध जीव नहीं छूटेगा।
क्षणिक निरन्वय नाश पक्ष में अन्य जीव फल भोगेगा ॥५१।। कारिकार्थ-हिंसा के अभिप्राय से सहित छित्त तो हिंसक नहीं होगा तथा अभिप्राय से रहित चित्त हिंसा करे एवं हिंसा के अभिप्राय से सहित और रहित से भिन्न तीसरा ही चित्त बंध को प्राप्त होगा तथा जो बंधा है, उससे भिन्न चौथा ही चित्त बंध से युक्त हो सकेगा अर्थात् आप बौद्धों के क्षणिकैकांत में यह व्यवस्था हो जायेगी ।।५१।।
हिंसा के अभिप्राय वाला चित्त प्राणियों की हिंसा नहीं कर सकता है क्योंकि उसका निरन्वय नाश हो गया। संतान और वासना ये दोनों ही असंभव हैं। इसका आगे स्पष्टीकरण करेंगे।
हिंसा के अभिप्राय से रहित उत्तरक्षण चित्त हिंसा करेगा। उसी प्रकार से हिंसा और अहिंसा के अभिप्राय से रहित तीसरा चित्त कर्मों से बंधता है। जो बंधा हुआ है वह मुक्त नहीं होता किन्तु उससे भिन्न ही मुक्त होता है ।
इस प्रकार से निरम्वय विनाशवादी बौद्ध को छोड़कर उस बद्ध की मुक्ति के अभाव को प्रगट करने वाले इस क्षणिक तत्त्व को अन्य कौन विचारशील मनुष्य प्रकाशित करेगा अर्थात् कोई नहीं।
1 कारिकोक्तस्य । दि० प्र०। 2 सन्तानो न भवति यतः। दि० प्र०। 3 अस्तु प्रसंगेति चेत् । दि० प्र०। 4 लोके हास्यस्थानम् । दि० प्र०। 5 यथा अस्ति तथा दर्शयति । दि० प्र०। 6 प्राणिनम् । दि० प्र० । 7 चैतन्यम् । दि० प्र०। 8 तत्र मुच्यते कुतः चतुर्थस्यैव मुक्ति यतः । दि० प्र०। 9 कारिकाद्वितीयपादं व्याख्यातुमाह । दि० प्र०। 10 अनुस्यूत्यभावात् । ब्या० प्र०। 11 हिरनभिप्रायरहितचित्तम् । ब्या० प्र० ।
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