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अवक्तव्यवाद का खण्डन ] तृतीय भाग
[ १८१ संख्यासमवायादपि तथात्वासिद्धेः, समवायस्य तदसंबन्धात् तस्य स्वसमवायिसंबन्धकल्पनायामप्यनवस्थानुषङ्गात् कथंचित्तादात्म्यमन्तरेण समवायासंभवाच्च । तद्वन्न भावाभावौ वस्तुनोन्यावेव, निस्स्वभावत्वप्रसक्तेः । अथ. सत्त्वासत्त्वाभ्यामन्यस्यापि वस्तुनो द्रव्यत्वादिस्वभावसद्भावान्न निःस्वभावत्वमिति मतं तदप्यसाधीयो, द्रव्यत्वाद्रव्यत्वाभ्यामपि तस्यान्यत्वात् । ताभ्यामनन्यत्वे कथंचिद्भावाभावाभ्यामप्यनन्यत्वसिद्धेः स्वभावपरभावाभ्यां वस्तुनो भावाभावव्यवस्थितिः किं न स्याद्यतः खे पुष्पाभावोभिलाप्यो वस्त्वेव न भवेत् ? इति निरवद्यमुदाहरणम् ।
वस्तु में किस सम्बन्ध से स्थित है ? और समवायी पने को भी समवायी पने से मानने पर तो अनवस्था आ जाती है।
अतः कथंचित् तादात्म्य को छोड़कर समवाय ही असंभव है। अर्थात् वस्तु में कथंचित् तादात्म्य रूप से एक द्वित्व आदि घटित हो जाते हैं। इसलिये 'कथंचित् तादात्म्य' सम्बन्ध के सिवाय समवाय नाम की कोई चीज सिद्ध ही नहीं होती है अतः इसी तादात्म्य को ही 'समवाय' यह नाम दे दीजिये।
उसी संख्या और संख्यावान् के भाव और अभाव ये दोनों ही वस्तु से भिन्न ही नहीं हैं। अन्यथा-भाव अभाव से रहित वस्तु निःस्वभाव हो जायेगी।
बौद्ध-सत्त्व और असत्त्व से भिन्न भी वस्तु में द्रव्यत्वादि स्वभावों का सद्भाव होने से वह वस्तु निःस्वभाव नहीं होगी । अर्थात् वस्तु में अनंत धर्म हैं इन सत्त्व-असत्त्व रूप दो धर्मों को निकाल देने से अन्य द्रव्यत्व, प्रमेयत्व आदि धर्म तो मौजूद हैं फिर वस्तु निःस्वरूप कैसे होगी?
जैन—ऐसा भी सिद्ध करना शक्य नहीं है। क्योंकि द्रव्यत्व और अद्रव्यत्व से भी वह वस्तु भिन्न ही है। यदि आप द्रव्यत्व-अद्रव्यत्व से वस्तु को अभिन्न मानें तब तो कथंचित् भाव और अभाव से भी वस्तु का अभिन्नपना सिद्ध ही हो जायेगा।
पुनः स्वभाव और परभाव के द्वारा वस्तु के भाव-अभाव की व्यवस्था भी क्यों नहीं होगी कि जिससे आकाश में पुष्प का अभाव अभिलाप्य वाच्य वस्तु ही न हो जावे? अर्थात् आकाश के पुष्प का अभाव भी वाच्य होने से वस्तु ही है ऐसा समझना चाहिये । इस प्रकार से यह उदाहरण निर्दोष है।
1 अत्राह स्याद्वादी गुणगुणिनोः कथञ्चित्तादात्म्यमेव समवायः अन्योनेत्यर्थः । दि० प्र०। 2 अथाह परः सत्त्वासत्त्वसकाशात् भिन्नस्यापि वस्तुनो द्रव्यत्वादिस्वभावोस्ति । हे स्याद्वादिन् भवत्प्रतिपादितं निःस्वभावत्वं नास्ति इति मतम् । पुनराह स्याद्वादी तदपि वचः समीचीनं न वस्तुनो द्रव्यत्वाद्रव्यत्वादिसकाशाद्भिन्नत्वात् वस्तुनो द्रव्यत्वाद्रव्यत्वादिसकाशात् एकत्वे सति कथञ्चिद्भावाभावाभ्यामेकत्वं सिद्धयति यत इति । दि० प्र० । 3 भिन्नस्यापि । दि० प्र० ।
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