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क्षणिक एकांत का निराकरण ]
तृतीय भाग
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एवं कपाल-टुकड़े होना साथ ही हुआ है। जैसे आपने उत्पाद को सहेतुक मानकर विद्युत शब्द के उपादान स्वीकार किये हैं तथैव स्थिति का भी उपादान मान लीजिए, पुनः अन्वय रूप एक द्रव्य के सिद्ध हो जाने से क्षणिक मत का क्षय होकर कथंचित् स्थितिमान पदार्थ सिद्ध हुआ एवं कथंचित् उसकी पर्यायें प्रतिक्षण क्षणिक हैं यह बात सिद्ध हो गई क्योंकि स्थितिमान द्रव्य के अभाव में पर्यायें भी असम्भव हैं।
यदि कार्य का उत्पाद सर्वथा असत् से ही मानें तब तो वह पुष्पवत् कभी उत्पन्न ही नहीं होगा एवं उसके उपादान कारण का अभाव होने से कार्य की उत्पत्ति में कुछ भी विश्वास नहीं हो सकेगा पुनः जो बीज गेहूँ के अंकुर को उत्पन्न कर देंगे तथा मृत्पिण्ड से वस्त्र एवं संतु से घड़ा बन जायेगा। तथैव क्षणिकांत पक्ष में अन्वय के अभाव में कारण कार्य भावादि सिद्ध नहीं हो सकेंगे। इस पर यदि बौद्ध यों कहें कि भिन्न-भिन्न क्षणों में ये क्षण अभिन्न हैं ऐसा संवृति से जाना जाता है उसे ही सन्तान कहते हैं तब तो यह संवृति तो असत्य कल्पना ही है क्योंकि यह मुख्यार्थ को नहीं कहती है एवं बिना मुख्य के संवृति भी कैसे सिद्धि होगी। अतः सन्तान कल्पना आदि व्यवहार संवृति से असत्य ही सिद्ध होगा।
सार का सार-बौद्ध प्रत्येक वस्तु को क्षण-क्षण में नष्ट होने वाली मानता है यह उसकी मान्यता जैनियों के ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से होने वाली अर्थपर्याय में घटित होती है व्यंजनपर्याय में नहीं अतः प्रत्येक वस्तु को सर्वथा क्षणिक एवं कार्य को सर्वथा कारण के नाश से मानना अनुचित है।
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