________________
अवक्तव्यवाद का निराकरण ]
तृतीय भाग संतानतद्वतोरपि' भेदाभेदोभयानुभयचतुष्कोटेरनभिलाप्यत्वम्। सर्वो हि वस्तुधर्मः सन् वा स्यादसन् वा उभयो वानुभयो वा । सत्त्वे तदुत्पत्तिविरोधादसत्त्वे पुनरुच्छेदपक्षोपक्षिप्तदोषादुभये 'चोभयदोषप्रसङ्गादनुभयपक्षेपि' बिकल्पानुपपत्तेरित्यादि योज्यम् । तथा हि । वर तुनो धर्मस्यानन्यत्वे वस्तुमात्रप्रसक्तेरन्यत्वे व्यपदेशासिद्धरसंबन्धात्, उभये चोभयपक्षभाविदोषोऽनुभयपक्षे निरुपाख्यत्वमिति । तथानभिधेयत्वं' प्रसिध्यत् सर्वत्र संतानसंतानिनोरपि तत्त्वान्यत्वाभ्यामवाच्यत्वं प्रसाधयति विशेषाभावात् । इति येषामाकूतं 'तैरपि,
क्योंकि सभी वस्त का धर्म या सतरूप होगा या असतरूप होगा या अनुभयरूप होगा। अर्थात इन चारों में से कोई एक रूप ही कहा जा सकेगा और जिस रूप को आप मानेंगे उ उसी में वाधा आ जाती है अतएव 'अवाच्य' ही मान लो। उसी का स्पष्टीकरण करते हैं यदि सत्व को मानो तब तो उसकी उत्पत्ति का विरोध हो जायेगा। यदि असत्त्व को मानो तो उच्छेदप क्ष-शून्य पक्ष में दिये गये सभी दोष आ जाते हैं। तथा सत्त्वासत्त्व रूप उभय धर्म को मानों तब तो उभय पक्ष में दिये गये दोषों का प्रसंग आ जाता है।
यदि अनुभय पक्ष लेवो तो उभय धर्म का निषेध हो जाने पर निविषय होने से वस्तु नि:स्वरूप हो जायेगी पुन: उसमें किसी प्रकार का विकल्प ही नहीं बन सकेगा। इत्यादि प्रकार से सभी में लगा लेना चाहिये । तथाहि । वस्तु का धर्म यदि वस्तु से अभिन्न है तब तो वस्तु मात्र का ही प्रसंग आ जायेगा।
__ यदि वस्तु से उसके धर्म को भिन्न मानोगे तब तो "इसका यह धर्म है" ऐसा व्यपदेश नहीं हो सकेगा। क्योंकि कोई सम्बन्ध सिद्ध नहीं है। तथा यदि वस्तु का धर्म उस वस्तु से भिन्नाभिन्न रूप है तब तो उभय पक्ष में दिसे गये सभी दोष आ जायेंगे । एवं वस्तु का धर्म वस्तु से न भिन्न हैं न अभिन्न ? ऐसा मानने पर तो वस्तु निरूपाख्य-निःस्वभाव हो जायेगी। इसलिये चार कोटि रूप विकल्पों का घटित होना अशक्य होने से यह अनभिधेयत्व प्रसिद्ध होता हुआ सभी पदार्थों में एवं
1 सौगतो वदति । यथा स्याद्वादिमते वस्तुनः सत्त्वकादिसर्वधर्मेषु सदादिचतुः कोटेः प्रतिपादयेतुमसत्त्वात् अनभि. लाप्यत्वं प्रसिद्धं । तथा अस्मन्यते सन्तानतद्वतोरपि भेदादिचतु: कोटेरभिधातुमशक्यत्वात् अवाच्यत्वं प्रसिद्धम् । दि० प्र० । 2 अभिधातुमशक्यत्वात् । दि० प्र० । 3 उभयत्र । इति पा० । दि० प्र० । 4 दोषानुषङ्गात् । इति पा० । ब्या० प्र०। 5 उभयत्रोभय। इति । दि० प्र०। 6 सौगतो वदति वस्तुनः सदादिसर्वधर्मेषु स्याद्वादिमते अनभिधे सिद्धयत्सत् सौगताभ्युगतयोः सन्तानसन्तानव्रतोरपि एकत्वान्यत्वाभ्यामुपाषाभ्यामवक्तव्यत्वं साधयति । कस्माद् धर्मत्वेन विशेषाभावात् इति तेषां स्याद्वादिनां तैरपि अवक्तव्य चतुःसंख्यविकलपोपि न प्रतिपाद्यतां=स्याद्वाद्याह एवं सति सर्वधर्मातीतमवस्तु भवेत् विशेष्यविशेषणाभावश्च । दि० प्र०। 7 क्षणिकान्तपक्षेपीति वर्तते । दि० प्र० । 8 सौगतैरपि वक्ष्यमाणप्रकारेण । दि०प्र०। 9 सत्त्वासत्त्वप्रकारेणेवावक्तव्यतां प्रकारेणापि समस्तधर्मरहितम् । दि० प्र०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org