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अवक्तव्य एकांत का निराकरण ] तृतीय भाग
[ १७३ मेव ह्यनेकान्तात्मकं सर्वथैकान्तविकल्पातीतत्वात् । सर्वविकल्पातीतमिति वाचोयुक्तावेव वस्तूक्तं स्यान्नान्यथा, तस्याविशेषणत्वात् खपुष्पवत् । न हि सर्वथाप्यसदनभिलाप्यमवस्त्विति वा विशेषणं स्वीकुरुते' यतो विशेष्यं स्यात् । न 'चाविशेष्यमविशेषणं च किंचिदध्यक्षसंविदि प्रतिभासते, स्वसंवेदनस्यापि सत्त्वविशेषणविशिष्टतया विशेष्यस्यैवावभासनात् । तदुत्तरविकल्पबुद्धौ स्वस्य संवेदनमिति विशेषणविशेष्यभावोवभासते , न तु' स्वरूपे तस्येति चेहि किमविशेष्यविशेषणं' संवेदनमिति स्वतः प्रतिभासते ? तथोपगमे सिद्धो
पुनः इस प्रकार की मान्यता में तो वाचोयुक्ति-अनेकांत के बिना संपूर्ण विकल्पों से रहित वस्तु अवस्तु ही हो जायेगी। क्योंकि सर्वथा एकांत विकल्पों से रहित होने से जात्यंतर वस्तु ही अनेकांतात्मक है। एवं वस्त सर्व विकल्पों से रहित है' यह कथन भी अनेकांत के मानने पर ही कहा जा सकता है। अन्यथा-अनेकांत के बिना नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि एकांत पक्ष में कही गई सर्व विकल्पातीत वस्तू आकाश पुष्प के समान विशेषण रहत है।
सर्वथा 'असत्' नाम की चीज 'अवाच्य' अथवा 'अवस्तु' इन विशेषणों को स्वीकार नहीं कर सकती है कि जिससे वह 'असत्' विशेष्य रूप हो सके। अर्थात् नहीं हो सकता है । और विशेष्य रहित एवं विशेषण रहित किचित् भी वस्तु प्रत्यक्ष ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होती है। स्वसंवेदन भी सत्व विशेषण से विशिष्ट-सहित हो करके विशेष्य बनता है और वही प्रतिभासित होता है।
भावार्थ-आचार्य ने कहा कि विशेषण विशेष्य रहित वस्तु ज्ञान में नहीं झलकती है तब बौद्ध ने कहा कि स्वसंवेदन ज्ञान विशेषण विशेष्य भाव से रहित ही झलकता है। इस पर आचार्य कहते हैं कि भाई ! स्वसंवेदन ज्ञान भी अस्तित्व सहित है और यह उसका अस्तित्व ही तो उसका विशेषण है, बस विशेषण से सहित होकर ही विशेष्य बन जाता है । अतः उसमें विशेषण विशेष्य मान घटित हो जाता है ।
1 विशेष्यविशेषणत्वात् । इति पा० । दि० प्र०। 2 स्याद्वादी ब्रते यथा पररूपेणासत् तथा स्वरूपेणापि असदिति सर्वथाप्य सत् । भवत्सत् अनभिलाप्यमवस्तु वेति विशेषणं न गह णाति विशेषणाभावे यतः कुतो विशेष्यं स्यात् न कुतोपि । दि० प्र०। 3 पुनराह स्थाद्वादी किञ्च विशेष्यरहितं विशेषणरहितं किंचिद्रूपं प्रत्यक्षज्ञाने प्रतिभासेत् = अत्राह सौगतः स्वसंवेदनं विशेषणविशेष्यरहितमस्तीत्युक्ते स्याद्वाद्याह । स्वसंवेदनं सत्त्वमसत्त्वं वेति विकल्पः । स्वसंवेदनं सत्त्वविशेषणेन विशिष्टं चेत्तदाविशेष्यत्वं स्वयमेवावभासते तस्येति । दि०प्र०। 4 निर्विकल्पकदर्शनानन्तरं विकल्पज्ञाने स्वस्येति विशेषणत्वं संवेदनमिति विशेष्यत्वंभासते। दि० प्र०। 5 संवेदनस्य स्वरूपे अवस्थानमिति चेतहि विशेष्यविशेषणरहितं संवेदनं स्वतः अवभासते नास्तीत्यभ्युपगमे विशेषणविशेष्यभावः सिद्धः। 6 सौगत आह अहो संवेदनस्य स्वस्वभावे प्रतिभासनमस्तीति चेतहि संवेदनं विशेषणविशेष्यरहितं किमिति प्रश्न:-आह सौगतः अहो स्वतः प्रतिभासत इत्यङ्गीकारे संवेदनस्य विशेष्यविशेषभाव: स्वयंसिद्धः । कस्मात संवेदनस्य वेदकारवेद्याकारेतिविशेषणाश्रयत्वात् =सर्वथाप्यविद्यमानस्यार्थस्य विशेषणविशेष्यत्वनिषेधो न घटतेयतः। दि०प्र०1 7 अवभासनम् । दि०प्र०। 8 प्रतिभासते न वा । दि०प्र०। 9 विशेषणविशेष्याभावविशिष्टं संवेदनम् । दि०प्र०।
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