________________
१७० ]
अष्टसहस्री
[ तृ० १० कारिका ४५ चतुष्कोविकल्पस्य सर्वान्तेषूक्त्ययोगतः' ।
तत्त्वान्यत्वमवाच्यं चेत्तयोः संतानतद्वतोः ॥४५॥ यो यो धर्मस्तत्र तत्र चतुष्कोटेर्विकल्पस्य वचनायोगः । यथा सत्त्वैकत्वादिधर्मेषु । धर्मश्च संतानतद्वतोस्तत्वमन्यत्वं च । इति तत्रावाच्यत्वसिद्धिः ।
। प्रत्येकवस्तुनि चतुर्धा विकल्पो न शक्यते इति बौद्धः स्वपक्षं समर्थयति ] प्रसिद्धं हि सत्त्वकत्वादिषु सर्वधर्मेषु सद्सदुभयादिचतुष्कोटेरभिधातुमशक्तत्वात् उत्थानिका-इसलिये
अर्थात् बौद्ध कहता है कि हे जैन ! इन चारों विकल्पों का होना असम्भव है इसलिये तो हम वस्तु को 'अवक्तव्य' कहते हैं।
सब धर्मों में चार कोटि से, भेद कहे नहिं जा सकते। सत् या असत्, उभय, अनुभय इन, चारों में ही दोष दिखे । इसीलिये संतान और संतानी, तत्त्व "अवाच्य" कहे।
क्योंकि ये दोनों हि एक या, भिन्न नहीं यह बौद्ध कहें ॥४५॥ कारिकार्थ-सर्वांत-समस्त धर्मों में चार कोटि रूप विकल्प के कहने का अभाव होने से . उन संतान और संतानी के तत्त्व-एकत्व और अन्यत्व- अनेकत्व धर्म अवाच्य हैं यदि बौद्ध ऐसा कहते हैं तब तो आचार्य उसका स्पष्टीकरण कहते हुये आगे कारिका में कहेंगे ।।४५।।
बौद्ध-जो जो धर्म हैं उन उन धर्मों में चतुष्कोटि विकल्प को कहने का अभाव है । अर्थात् एकत्व और अनेकत्व धर्मों में चतुष्कोटि विकल्प का कहना नहीं बन सकता है । क्योंकि वे धर्म हैं।" यह अर्थ ऊपर से ले लेना चाहिये। जैसे सत्व एकत्व आदि धर्मों में चतुष्कोटि-विकल्प को कहने का अभाव है। एवं संतान और संतानी के धर्म एकत्व तथा अनेकत्व हैं । अर्थात् संतान का धर्म एकत्व है और संतानी का धर्म अन्यत्व-भेद रूप है। इस प्रकार से एकत्व-अन्यत्व धर्मों में अवाच्यता सिद्ध है अर्थात् ये एकत्व-अन्यत्व धर्म अवाच्य हैं।
। प्रत्येक वस्तु में चार प्रकार का विकल्प करना शक्य नहीं है
इस प्रकार बौद्ध अपने पक्ष का समर्थन करता है। ] यह बात प्रसिद्ध ही है कि सत्व एकत्व आदि सभी धर्मों में सत, असत्, उभय और अनुभय रूप चार कोटि के विकल्पों का कहना अशक्य ही है। अतः संतान और संतानी में भी भेद, अभेद, उभय, अनुभय रूप चार प्रकार अवाच्य ही हैं।
1 वचनयोगात् वक्तुमशक्यत्वात् । ब्या० प्र०। 2 एकत्वानेकत्वम् । दि० प्र० । 3 वस्तुनः । दि० प्र० । 4 चतुः संख्यस्य । दि० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org