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क्षणिक एकांत का निराकरण 1
तृतीय भाग
[ १६३
"प्रत्यक्षेण प्रतीतेर्थे यदि 1पर्यनुयुज्यते । स्वभावैरुत्तरं वाच्यं दृष्ट कानुपपन्नता।"
इति स्वमभिधानात् । न च' परस्परं विलक्षणानामेव' क्षणानामत्यन्तमन्वयासत्त्वेप्यन्तर्बहिर्वा संततयो संकीर्णा एव प्रत्यक्षतः प्रतीताः, तस्यैकक्षणगोचरतया संतानाविषयत्वात् । नाप्यनुमानतः, स्वभावस्य कार्यस्य वा तल्लिङ्गस्य प्रतिबद्धस्यानवधारणात् । प्रत्यभिज्ञानादि' तदनुमाने लिङ्गमिति चेन्न, तस्य क्वचिदन्वयासिद्धेर्व्यतिरेकानिश्चयाच्च । तत एव नान्यथानुपपत्तिः, प्रत्यभिज्ञानादेः संतानाभावेऽसंभवनियमनिश्चयायोगात्, तत्रैकद्रव्य
श्लोकार्थ-प्रत्यक्ष से प्रतीत अर्थ में यदि प्रश्न किया जाता है तो स्वभाव के द्वारा ही उसका उत्तर देना चाहिये क्योंकि प्रत्यक्ष से देखे गये पदार्थ में अनपपत्ति ही क्या हो सकती है? अर्थात कछ भी नहीं। और परस्पर में विलक्षण-भिन्न रही क्षणों में अत्यंत रूप से अन्वय का अभाव होने पर भी अन्तरंग अथवा बाह्य संततियाँ असंकीर्ण ही प्रत्यक्ष से अनुभव में नहीं आ रही हैं। क्योंकि वह प्रत्यक्ष ज्ञान एक क्षण को विषय करने वाला होने से संतान को विषय नहीं कर सकता है। अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा सन्निहित-वर्तमान का एक क्षण ही जाना जाता है ऐसा आपका कथन है । तथा अनुमान से भी उन अभिन्न रूप संततियों का अनुभव नहीं आता है। क्योंकि उस लिंगी-संतान के साथ स्वभाव हेतु अथवा कार्य हेतु का अविनाभाव निश्चित नहीं है ।
बौद्ध-उस संतान का अनुमान करने में प्रत्यभिज्ञान आदि हेतु हैं।
जैन-नहीं। उन प्रत्यभिज्ञान आदिकों का कहीं पर अन्वय सिद्ध नहीं है। और व्यतिरेक का भी अनिश्चय नहीं है।
अर्थात् जैसे संतान के होने पर ही प्रत्यभिज्ञान होता है यह अन्वय किसी भी दृष्टांत में नहीं देखा जाता है । तथा नील स्वलक्षण रूप संतान के नहीं होने पर प्रत्यभिज्ञान का अभाव है इस व्यतिरेक का भी निश्चय नहीं है। इसलिये अन्यथानुपपत्ति भी नहीं है। क्योंकि प्रत्यभिज्ञानादि में संतान का अभाव होने से असंभव नियम नहीं होने रूप व्यतिरेक का नियम के निश्चय का अभाव है। अर्थात् “संतान है क्योंकि प्रत्यभिज्ञान की अन्यथानुपपत्ति है" इस प्रकार से यह हेतु भी घटित नहीं होता है। क्योंकि काले तिलों में संतान का अभाव होने पर भी यह तिल उसके सदृश है ऐसा प्रत्यभिज्ञान देखा जाता है । अतः यहाँ व्यतिरेक निश्चित नहीं है।
1 स्याद्वादी वदति प्रत्यक्षज्ञानेनार्थे निश्चिते सति । यदि केनचित्पृच्छते तदास्वभावरुत्तरं प्रतिपाद्यमस्य वस्तुनोयं स्वभावेति प्रत्यक्षेण इन्द्रियद्वारैरनुभूते वस्तुनि प्रमाणानुपपन्नता का न कापि न इति सौगतः स्वयं कथनात् । दि० प्र० । 2 तदा । ब्या० प्र०। 3 किञ्च। दि० प्र०। 4 अर्थान्नम्। दि० प्र०। 5 अत्राह सौगतस्तदनुमाने असङ्कीर्णसन्तानानुमाने प्रत्यभिज्ञानस्मरणादिकं लिङ्ग भवतीति चेत् न । कस्मात्तस्य सन्तानस्य कचिद्वस्तुनि अन्वयो न सिद्धयति । पुनः कस्माद्वयतिरेकस्याप्यनियमात् = यत एवं ततः सन्तानसंकीर्णानुमाने अन्यथानुपपत्तिरपि लिङ्ग न । कस्मात्सन्तानाभावे प्रत्यभिज्ञानादि न सम्भवति इति नियमनिश्चयासंभवात् । दि० प्र०। 6 तत्र सन्तानाऽसङ्कीर्णानूमाने ततः प्रत्यभिज्ञानादेः सकशादेकद्रव्यप्रत्यासतिरेव प्रसिद्धयति यतः। एवं सति सौगतानां विरुद्धत्वं निर्णीयते यतः। दि० प्र०।
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