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अष्टसहस्री
[ तृ० ५० कारिका ३७ सदसदेकत्वपृथक्त्वैकान्तप्रतिषेधानन्तरं नित्यत्वकान्तप्रतिक्षेपः, 'प्रक्रम्यतेऽनेनेति तात्पर्यम् । तत्र नित्यत्वैकान्तः कूटस्थत्वाभिनिवेश:' । तस्य पक्षः प्रतिज्ञानम् । तस्मिन्नपि विविधा क्रिया परिणामपरिस्पन्दलक्षणा नोपपद्यते । कार्योत्पत्तेः प्रागेव तदुत्पत्ती' वा प्रागेव कारकाभावो नोपपद्यते इति कूटस्थः प्रागेव कारकः स्यादात्मा भोगस्य' । अथ प्रागेव कारकाभावस्तदा विक्रियापि नोपपद्यते इति शश्वदकारकः स्याद् तदविशेषात् ।
सत्-असत् और एकत्व-पृथक्त्वरूप एकांत के प्रतिषेध के अनंतर अब नित्यत्वैकांत का खण्डन किया जाता है।
वह इस कारिका के द्वारा किया जाता है ऐसा तात्पर्य है ।
यहाँ कूटस्थ अभिनिवेश को नित्यत्वैकांत कहते हैं । जो एकरूप से तीनों कालों में रहता है वह कूटस्थ है अथवा जो कूट के समान निर्विकाररूप से किसी भी प्रकार के परिणमन के बिना ही रहता है वह कूटस्थ कहलाता है । इस कूटस्थ एकांत पक्ष को नित्यकांत कहते हैं। उसके पक्ष को प्रतिज्ञा कहते हैं। उसमें भी परिणाम, परिस्पंदन लक्षण विविध प्रकार की क्रियाय नहीं हो सकती हैं अन्यथा कार्य की उत्पत्ति के पहले ही अथवा उसकी उत्पत्ति के होने पर पहले ही कारक का अभाव नहीं बन सकता है। इसलिये सुखादि अनुभवरूप कार्य की उत्पत्ति के पहले कूटस्थ आत्मा भोग का कर्ता हो जायेगा।
यदि कार्य की उत्पत्ति के पहले ही कूटस्थ आत्मा में कारक का अभाव है तब तो सुखादि अनुभव लक्षण विविध प्रकार की क्रियायें भी नहीं हो सकती हैं। इसलिये नित्य ही वह अकारक हो जायेगा। क्योंकि पहले के समान उत्पत्ति के होने पर भी कारक का अभाव समान है।
1 प्रारभ्यते । ब्या० प्र० । 2 आचार्येण सर्वथा नित्यनिराकरणं प्रारभ्यतेऽत: प्रभृति । दि० प्र० । 3 कूटस्थत्वाभिनिवेशपक्षे सांख्याभिमते ।=विविधार्थक्रियापरिणामपरिस्पन्दलक्षणा = देहलीदीपकन्यायेनेयं क्रिया= अन्यथा विक्रियोत्पद्यते चेहि कार्योत्पत्तेः प्रागेव तदुत्पत्तो वा प्रागेव कारकाभावो नोपद्यत इत्युक्त सुखाद्यनुभवलक्षणस्य कारक: स्यादिति संबन्धः प्रागेवेति शब्दस्योत्पस्यमान कार्यापेक्षया एवं व्याख्यानं तदुत्पत्ती वेदव्याख्यानमुत्पद्यमान
या प्रागेवेति ज्ञेयम् । इत्युक्त कारकसद्भाव एव न तु कारकाभावः कूटस्थ इति दूषणं सांख्यस्य कुतो
ख्यिमत आत्मा नित्यो भोक्ता वर्तते । ननु कारक इति तात्पर्याथः । करोतीति कारक: इत्युक्त कार्यादीनां कर्ता अथ सांख्यो वक्ति जैन प्रति सोस्तुकारकोऽविक्रियश्चात्मा कार्योत्पत्तेः प्रागेव चेत्तहि = क शब्दो महदन्तरे = प्रत्यक्षादि =प्रमितिलक्षणम् । दि० प्र०। 4 नित्यत्वैकान्तस्य । दि० प्र० । 5 कूटवन्निविकारो यः स्थितः सः कूटस्थ उच्यते= अन्यथा=सुखाद्यनुभवलक्षणकार्यस्योत्पत्तेः प्रागेव कूटस्थ आत्मा भोगस्य कारक: स्यादिति संबन्धः । दि० प्र०। 6 प्रागेवेति शब्दस्योत्पत्स्यमानकार्यापेक्षया एवं व्याख्यानम् । दि० प्र० । 7 कारकः । दि० प्र० । 8 अनेन शब्देन योगे कार्योत्पत्तो कार्योत्पत्ती वेति रूपभेदप्रदर्शनमात्रं नत्वर्थभेदः । दि० प्र० । 9 पूर्वमेवकारणाभावस्तदाकार्यमपि न जायते । दि० प्र० ।
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