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अष्टसहस्री
[ तृ० १० कारिका ४१
विनाशतद्वतोः कश्चित्संबन्धो वक्तव्यः । स च न तावत्तादात्म्यलक्षणस्तयोर्भेदोपगमात् । नापि तदुत्पत्तिलक्षणो घटादेस्तदकारणत्वात् तस्य मुद्गरादिनिमित्तकत्ववचनात् । तदुभयनिमित्तत्वाददोष इत्यप्यसारं, मुद्गरादिवद्विनाशोत्तरकालमपि कुम्भादेरुपलम्भप्रसङ्गात् । कुटादे: स्वविनाशं परिणामान्तरं लक्षणं प्रत्युपादानकारणत्वान्न तत्काले दर्शनमित्यपि न युक्त, परिणामान्तरस्यैव हेत्वपेक्षत्वसिद्धेः, विनाशस्य तद्व्यतिरिक्तहेत्वनपेक्षत्वव्यवस्थितेः सुगत
तादात्म्य लक्षण सम्बन्ध तो आप कह नहीं सकते क्योंकि विनाश और विनाशवान में आपने भेद स्वीकार किया है। एवं तदुत्पत्तिलक्षण सम्बन्ध भी नहीं बन सकता है अर्थात् घट से विनाश की उत्पत्ति होती है ऐसा सम्बन्ध कहें तो भी घटादि तो विनाश के प्रति अकारण है, वह तो विनाश मुद्गरादि निमित्तक ही कहा गया है।
शंका-वह विनाश घट और मुद्गर इन दोनों के निमित्त से हुआ है इसलिये दोनों को निमित्त मान लेने से कोई दोष नहीं आता है ।
समाधान—यह कथन भी असारभूत है। जिस प्रकार से मुद्गरादि घट विनाश के उत्तर काल में भी देखे जाते हैं, उसी प्रकार से विनाश के उत्तर काल में भी कुंभादि की उपलब्धि का भी प्रसग प्राप्त हो जायेगा। क्योंकि विनाश के लिये दोनों ही तो कारण कारण रूप से समान ही हैं। किन्तु ऐसा नहीं है यदि आप कहें कि घटादि पदार्थ अपने विनाशरूप परिणामान्तर लक्षण (कपालमाला) के प्रति उपादानकारण हैं।
इसलिये विनाश के उत्तरकाल में वे घटादि नहीं दीखते हैं। आप जैनों का ऐसा कहना भी यक्त नहीं है। क्योंकि कपालमाला लक्षण परिणामांतर ही हेतु की अपेक्षा रखता है यह बात सिद्ध है । यदि आप कहें कि विनाश उस कपाल लक्षण से भिन्न हेतु की (मुद्गरादिक) अपेक्षा नहीं रखता है, ऐसी व्यवस्था है। तब तो आपके यहाँ सुगत मत की सिद्धि का प्रसंग आ जायेगा। क्योंकि सर्वथा विनाश को निर्हेतुक कहना सुगत मत नहीं है ।
प्रश्न-तो क्या है ?
उत्तर-कार्य को उत्पन्न करने वाले हेतु से भिन्न हेतु की अपेक्षा न करना' यह सौगत का मत है। इस प्रकार से 'विनाश भिन्न हेतुक है" इस नैयायिकभिमत वाद का अंत हो जाता है अर्थात्
1 विनाशोत्पत्तिलक्षणोपि संबन्धो न कस्माद् घटादेस्तस्य विनाशस्य कारणं नास्ति यत:=अत्राह योग: घटादिमुद्गरादि उभयं मिलित्वा विनाश निमित्तं भवति न कश्चिद्दोष इति चेदाह सौगतः एतदसार । दि० प्र० । 2 विनाशकारणत्वाविशेषात् । दि० प्र० । 3 अत्राह योगादिः कश्चिद् घटादिः परिणामान्तरस्वरूपं आत्मविनाशं प्रति उपादानकरणमस्ति यतस्तस्माद्विनाशकाले घटादेर्दशनं नास्ति इति चेदाह बौद्धः । यदुक्तं योगादिना तदपि न युक्त । कस्मात् घटादे कपालादिलक्षणस्य परिणामान्तरस्य मुद्गरादिहेतूमपेक्ष्यसि द्विर्घटतो विनाशः कार्यजनकहेतोः सकाशादिन्नहेतुमनपेक्ष्य व्यवतिष्ठते । कोर्थः कार्यजनकहेतुरेवविनाशहेतुः अन्यो नेति सूगतमतसिद्धिः । दि० प्र० । 4 कार्यजनकहेतु । दि० प्र० ।
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