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क्षणिक एकांत का निराकरण ]
तृतीय भाग
[ १५५
[ बौद्धमते एकसंताने कार्यकारणभावो यदि घटेत तहि भिन्नसंतानेष्वपि भविष्यति
उभयत्रान्यवाभावसमानत्वात् । ] __ यथैव ह्येकसंतानवर्तिनः सदृशस्यापरापरस्योत्पत्ति: सादृश्यमभावाव्यवधानं च बाह्यं, विप्रलम्भस्त्वनाद्यभेदवासनाहितमभेदज्ञानमन्तरङ्ग वैलक्षण्यानवधारणस्य कारणं तथा भिन्नसंततीनामपि तिलादीनामिति न विशेषः । ननु भिन्नदेशानां तेषां सत्यामपि सादृश्योत्पत्तौ नाभावेनाव्यवधानमन्तराले परस्परमभावस्य व्यवधायकस्य भावादिति न मन्तव्यं, मृत्पिण्डस्थासादीनामेकसंतानवर्तिनामपि भिन्नदेशत्वसंभवादभावव्यवधानप्रसङ्गात् ।
है अतः एक तिल दूसरे के लिये उपादान हो जावेगा। मतलब यहाँ फली में उत्पन्न हुये और बढ़ते तिलों की रात है बीजरूप वालों की नहीं है बीजरूप से तो तिल का उपादान है किंत एक साथ उत्पन्न हुये तिलों में उपादान भाव नहीं है। फिर भी बौद्ध को वैसा मानना पड़ेगा, क्योंकि भेद का अवधारण नहीं करना रूप हेतु यहाँ मौजूद है । [ बौद्ध के मत में यदि एक संतान में कार्य-कारणभाव है तो भिन्न संतानों में भी होगा क्योंकि
दोनों में अन्वय का न होना समान है। ] क्योंकि जिस प्रकार से एक संतानवर्ती सदश रूप अपरापर कार्य की उत्पत्ति में सदृशता एवं व्यवधायक के अभाव से व्यवधान का न होना ये बाह्यकारण है। अर्थात् क्षणों के मध्य में व्यवधान करने वाले अन्यक्षणों के अभाव से क्षणों में व्यवधान का अभाव है। और अनादि अभेद वासना से प्राप्त हुआ जो अभेद ज्ञान वह विप्रलंभ है, वह भेद को न समझने में अंतरंग कारण है । ये दोनों ही कारण जिस प्रकार से एक संतानवर्ती में है तथैव भिन्न संतान रूप तिलादिकों में भी है इसलिये इन दोनों में कोई अंतर नहीं है।
बौद्ध -भिन्न देशवर्ती उन तिलादिकों में सादृश्य की उत्पत्ति के होने पर भी उनमें अभाव से अव्यवधान नहीं है अर्थात् अभाव से व्यवधान है उन तिलों के अंतराल में परस्पर में व्यवधान करने वाला अभाव मौजूद है।
जैन-ऐसा नहीं मानना चाहिये। क्योंकि एक संतानवर्ती मृत्पिड, स्थास, कोश, कुशूल घट आदिकों में भी भिन्न देश संभव है कारण कि बौद्धों ने देश को भी तो क्षणिक माना है । अतएव
1 मा। इति ब्या० प्र० । 2 जातम् । ब्या० प्र०। 3 स्याद्वाद्याह यथा सदशस्य एकसन्तानत्तिनः । उत्तरोत्तरो. त्पत्तिसादृश्यं अभावेन सीमाकरणं च द्वयमपि बाह्यं कारणं तथा विप्रलंभः अनाद्यभेदवासनारोपितमभेदज्ञानम् । अन्तरङ्गकारणं वैलक्षण्यानवधारणस्य बाह्याभ्यन्तरकारणद्वयं = तथा भिन्नसन्तानानां तिलादिबीजानां वैरक्षण्यानवधारणस्य पूर्वोक्तकारणद्वयं ज्ञेयं विशेषाभावात् । दि० प्र०। 4 अत्राह सौगतः । ननु अहो स्याद्वादिन् भिन्नदेशानां तिलादीनां समानोत्पत्ती सत्यामपि अभावेनाव्यवधानमेव कस्मात् । मध्ये अन्योन्यमभावः सीमाकरोऽस्ति यतः। स्याद्वाद्याह हे सोगत! इति त्वया न ज्ञातव्यम् । कस्मात् । एकसन्तानवत्तिनामपि मत्पिण्डादीनां भिन्नदेशत्वं सम्भवति । अभावेन सीमाकरणं प्रसजति यतः । दि० प्र०।
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