________________
१५८ ]
अष्टसहस्री
[ तृ० प० कारिका ४२ चेन्न, अत्यन्तविशेषानुपलब्धेः । तदविशेषादर्शने सर्वथान्ध्यं स्यात्, विशेषाविशेषयोरदृष्टी' तद्रहितवस्तुरूपोपलम्भाभावात् । तस्मादियमस्य प्रकृतिर्यया पूर्वोत्तरस्वभावहानोपादानाधिकरणस्थिति' प्रतिक्षणं बिभर्ति यतोयमुपादाननियमः सिद्धः, 'पूर्वोत्तरस्वभावहानोपादानमात्रे तदसिद्धेः स्थितिमात्रवत् । अथापि कथंचिदुपादाननियमः 'कल्प्येत, कार्यजन्मनि कथमाश्वासः? संवृतिमात्रेणोपकल्पितादुपादाननियमात्कार्योत्पत्तावनाश्वासदर्शनात् स्वप्नवत् । तदत्यन्तासतः कार्यस्योत्पत्तेस्तन्तुभ्यः पटादिरेव न पुनः कुटादिरिति निहतुको नियमः' स्यात् । पूर्वपूर्वविशेषादुत्तरोत्तरनियमकल्पनायामनुपादानेपि' स्यात् तन्नियमकल्पना ।
स्थिति मात्र के समान । अर्थात् अधिकरण रूप स्थिति को न मानकर निरन्वय विनाश स्वीकार करने पर उसमें उपादान का नियम सिद्ध नहीं हो सकता है । जैसे कि सर्वथा नित्य में स्थिति मात्र को स्वीकार करने पर उपादान का नियम सिद्ध नहीं हो सकता है ।
___ और यदि आप किसी भी प्रकार से उपादान का नियम कल्पित करें तब तो कार्य की उत्पत्ति में विश्वास भी कैसे हो सकेगा ? अर्थात् आधार रूप द्रव्य की स्थिति को न मानने पर "इससे यह होगा" इस प्रकार का विश्वास भी कैसे हो सकेगा ?
यदि आप संवति मात्र से उपकल्पित उपादान के नियम से कार्य की उत्पत्ति मानेगे तब तो कहीं पर विश्वास ही नहीं होगा। जैसे कि स्वप्न में कार्य हुआ देखकर उसके कारण पर विश्वास नहीं होता है।
इसलिये अत्यंत ही असत् से कार्य की उत्पत्ति मानने से तो "तन्तुओं से पटादि ही होवें न पुनः घटादि" यह नियम भी निर्हेतुक अकारण ही रहेगा। विवक्षित कार्य की उत्पति में पूर्व-पूर्व विशेष उत्तरोत्तर नियम की कल्पना करने पर तो जो उपादान नहीं है उसमें भी उपादान नियम की कल्पना हो जायेगी । अर्थात् वस्त्र कार्य के प्रति मिट्टी का पिंड भी उपादान बन जायेगा। तथा वैसा नहीं दीखता है वह अहेतुक ही है, एवं इसी में ही हमारा और तुम्हारा मत भेद है।
1 पररूपेणेव स्वरूपेणापि । ब्या० प्र० । 2 अदर्शने। ब्या०प्र०। 3 ताः । ब्या० प्र० । 4 आधाररूपाम् । दि० प्र० । 5 स्याद्वाद्याह हे सौगत ! भवन्मते पूर्वस्वभावोहीयते उत्तरस्वभाव उत्पद्यते इति पूर्वोत्तरस्वभावहानोपादानमात्रे अङ्गीकृते तस्योपादाननियमस्यासिद्धिः कोर्थः। उपादाननियमो सिद्धयति = अथ पुनराह स्याद्वादी केचचित्प्रकारेणोपादान नियमः सौगतैर्यदि कल्प्येत तदा उपादाननियमाभावे सौगतानां कार्योत्पत्तो प्रतीतिः । कथं जायते न कथमपि सोगतो वदति कल्पनया कार्योत्पत्तिरस्तीति चेत् कल्पनामात्रेण स्थापितात् उपादान नियमः । तस्मात्कार्योत्पत्तो सत्यां प्रतीतिदर्शनं न । यथास्वप्ने प्रतीतिदर्शनं नास्ति । पुनराह स्याद्वादी हे सौगत यतएवं तत्तस्मात्सर्वथा असतः कार्यस्योत्पत्तिर्भवतीति चेत। तदा तंतुभ्यः घटादिरेव जायते न पुनर्घटादिरिति नियमो निरर्थको जातः स्यात् । दि० प्र० । 6 केनचित्प्रकारेण । ब्या० प्र० । न तु तात्त्विकः । ब्या० प्र० । 8 हेतोः । ब्या० प्र० । 9विवक्षित कार्योत्पत्ती। ब्या० प्र०। 10 तन्तुलक्षणात । ब्या०प्र० । 11 कार्यः । ब्या० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org