________________
क्षणिक एकांत का निराकरण ]
[ १५७
षङ्गश्चैवम् । सति सादृश्यविशेषे मृत्पिण्डादिषु वैलक्षण्यानवधारणं तस्मिन् सति सादृश्यविशेष निश्चयः । इति नैकस्यापि निर्णयः स्यात् । नन्वनिश्चितादेव' सादृश्यविशेषादभेदाध्यवसायरूपं वैलक्षण्यानवधारणं निश्चीयते । ततः सादृश्यविशेषानुमानान्नेतरेतराश्रयत्वं तयोरिति चेन्न, एवं यमलकादिष्वपि तदनुमानप्रसङ्गादन्वयस्यापि तद्वत्प्रसक्तेः ।
तृतीय भाग
I
[ निरन्वयकारणमपि स्वकार्यं करोति न पुनः भिन्नकार्यमिति मान्यतायां दोषानाहुः जैना: । ] ननु ' च निरन्वयस्यापि तादृशी प्रकृतिरात्मानं कारणान्तरेभ्यो यथा विशेषयतीति
आदिकों में भेद का निश्चय नहीं होगा, और भेद का निश्चय न होने पर ही सादृश्य विशेष का निश्चय होगा । और इस प्रकार से तो एक का भी निर्णय नहीं हो सकेगा ।
बौद्ध - अनिश्चित ही सादृश्य विशेष से अभेद का अध्यवसाय रूप भेद का अनवधारण निश्चय किया जाता है। और तब सादृश्य विशेष अनुमान से उन सादृश्य विशेष और भेद के अनवधारण में इतरेतराश्रय दोष नहीं आता है ।
जैन - ऐसा नहीं कहना। क्योंकि इस प्रकार से तो यमलक आदि - युगपत् उत्पन्न हुये युगल बालकों में भी उस अनुमान का प्रसंग आ जायेगा । अर्थात् " यह वही हो सकता है क्योंकि भेद का अनवधारण है ।" ऐसा अनुमान करना पड़ेगा । और अन्वय में भो उस प्रकार का प्रसंग आ जायेगा अर्थात् अन्वय रूप एक संतान में भी युगपत् हुये बालकों की सदृशता के समान सादृश्य विशेष का अनुमान हो जायेगा ।
बौद्ध - जिस प्रकृति के द्वारा अपने निरन्वय भाव को कारणांतर - तंतु आदि से भिन्न किया जाता है निरन्वय की भी प्रकृति उसी प्रकार की है ।
जैन - ऐसा नहीं कहना। क्योंकि अत्यन्त रूप से विशेष भेद की उपलब्धि नहीं हो रही है । अर्थात् भिन्न संतान में भी सर्वथा भेद है और अभिन्न संतान में भी सर्वथा भेद है, भेद दोनों में ही समान है क्योंकि अन्वय को आपने स्वीकार ही नहीं किया है और प्रकृति की समानता नहीं दीखने से यह सारा जगत् सर्वथा अंध के समान ही हो जायेगा । अर्थात् आपके सिद्धान्त से अन्वय का अभाव होने से यह सारा जगत् अंधा ही हो जायेगा। क्योंकि विशेष और अविशेष दोनों के नहीं दीखने पर उन दोनों से रहित वस्तु रूप की उपलब्धि का ही अभाव है ।
1
इसलिये यह इसकी प्रकृति है कि जिसके द्वारा पूर्व स्वभाव का विनाश, उत्तर स्वभाव का ग्रहण और दोनों के आधार रूप स्थिति को ये कारण प्रतिक्षण धारण करता है अतएव यह उत्पाद, व्यय, धौव्यात्मक कारणरूप उपादान का नियम सिद्ध हो गया। क्योंकि पूर्व स्वभाव की हानि और उत्तर स्वभाव का उपादान मात्र स्वीकार करने पर वह उपादान का नियम सिद्ध नहीं हो सकता है।
1 अन्यस्मान्निर्णयोस्तीत्याह । ब्या० प्र० । 2 वैलक्षण्यानवधारणात् सादृश्यविशेषो निश्चीयते । ब्या० प्र० । 3 एकसन्तानत्वस्य । दि० प्र० । 4 मृत्पिण्डादेः । व्या० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org