________________
१५४ ]
अष्टसहस्री
[ तृ० प० कारिका ४२
वक्तृप्तिमारचयतां मोपादाननियमो भूत् कारणान्तरवत् तदन्वयाभावाविशेषात् सर्वथा वैलक्षण्यात् । न हि मत्पिण्डस्थासादीनां तन्तुपटादीनां च सर्वथा वैलक्षण्येनान्वयाभावाविशेषेपि मृत्पिण्ड एवोपादानं स्थासस्य, स्थास एव कोशस्य, कोश एव कुशूलस्य, कुशूल एव घटस्य, न पुनस्तत्वादयः स्थासादीनामिति नियमनिबन्धनं किमप्यस्ति', यतः पूर्वपूर्वस्योत्तरीभवनं मृत्पिण्डस्थासादिषु सकललोकसाक्षिकं न भवेत् । वैलक्षण्यानवधारणं निबन्धनमिति चेत्तद्यदि सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भात्प्रतिपत्तणामिष्यते तदा समसमयवर्तितिलादीनां संतत्योत्पद्यमानानां वैलक्षण्यानवधारणं स्यात् । ततश्च परस्परभिन्नसंततीनामप्युपादानत्वं प्रसज्येत विशेषाभावात् ।
मत्पिड स्थास आदिकों में और तन्तु पटादिकों में सर्वथा भेद होने से अन्वय का अभाव समान होने पर भी स्थास का उपादान मृत्पिड ही हो कोश का स्थास ही कुशूल का कोश ही एवं घट का कुशूल ही उपादान हो, किन्तु पट आदि स्थास आदि के उपादान न होवें। इस प्रकार के नियम का करने वाला कोई भी कारण नहीं है कि जिससे मृत्पिड, स्थास, कोश, कुशल, घटादिकों में पूर्व-पूर्व का उत्तररूप होना सकल लोक साक्षिक न होवें । अर्थात् है ही हैं।
बौद्ध-वैलक्षण्य-भेद का अवधारण न करना ही मृत्पिड आदि में उत्तर-उत्तर का उपादान कारण है । अर्थात् भेद के न समझने से ही वे मृत्पिड आदि आगे-आगे की पर्याय के लिये कारण माने जाते हैं किंतु तन्तु आदि घट के लिये उपादान कारण नहीं माने जाते हैं। मतलब मृत्पिड घटादि में ही अभेद का अवधारण है तन्तु घटादि में नहीं है ।
जैन-यदि सदशरूप अपरापर कार्य की उत्पत्ति में विप्रलंभ होने से जानने वालों को अभेद स्वीकृत है, तब तो समसमयवर्ती-फल के अंतर्वर्ती जो तेलादि हैं, जो कि संतति से उत्पन्न हो रहे हैं, उनमें भी भेद का अवधारण नहीं बन सकेगा। और इसी हेतु से परस्पर में भिन्न संततियों में भी उपादानपने का प्रसंग आ जावेगा क्योंकि दोनों जगह कोई अंतर नहीं है।
भावार्थ-बौद्ध के यहाँ कारण के नष्ट हो जाने पर कार्य होता है अतः आचार्य ने कहा जैसे मिट्टी का पिंड, स्थास, कोश, कुशूल, घट आदि में अगले-अगले कार्य को पूर्व-पूर्व कारण होते हैं वैसे ही तन्तु आदि भी घट के कारण बन जावें कोई कारण जब नष्ट हो गया तब उसके कार्य संबंध क्या रहा ? इस बौद्ध ने कहा कि इनमें भेद का निश्चित न होना ही कारण है जिससे परस्पर में कार्य कारणभाव सिद्ध है कि तन्तु घट तो भिन्न-भिन्न हैं । तब आचार्य ने कहा कि तन्तु घट की बात जाने दो किंतु जहाँ भेद का निश्चय नहीं है वहाँ भिन्न-भिन्न संततियों में कार्य-कारणभाव मानना पड़ेगा, जैसे तिल की फली एक साथ तिल भरे हैं बढ़ रहे हैं उनमें भेद का अवधारण नहीं
1 उपादानानुस्यूतता। ब्या० प्र०। 2 उपादानं । दि० प्र० । 3 इति सौगतप्रतिपादितं निश्चयकारणं किमपि. न ह्यस्ति । दि. प्र०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org