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क्षणिक एकांत का निराकरण ]
तृतीय भाग
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कारणाभावाविशेषात् । तदविशेषेपि कार्यस्य स्वयं नियतकालत्वे' नित्यस्य' सर्वदा भावाविशेषेपि तत्स्यादित्युक्तम् ।
किं च क्षणिकपक्षे न तावत्सदेव' कार्यमुत्पद्यते स्वमतविरोधादुत्पत्त्यनुपरमप्रसङ्गाच्च'
यद्यसत् सर्वथा कार्य तन्मा जनि खपुष्पवत्' । मोपादाननियामो" भून्माश्वासः " कार्यजन्मनि ॥४२॥
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कार्य हो जाना चाहिये । इस प्रकार से कहा गया है । अर्थात् बौद्ध ने कहा कि कारण के न होने पर ही कार्य होता है तब आचार्य ने कहा कि फिर तो कारणक्षण के पहले और अनंतर अनंत काल हैं। उनमें भी कारण नहीं है उन अनंत कालों में भी कार्य होता रहे । तब उसने कहा कि कारण के अभाव में ही कार्य होता है फिर भी उसका काल नियत है तब आचार्य ने कहा कि जैसे आपके यहाँ कारण के अभाव में ही कार्य होता है वैसे ही नित्य पक्ष में हमेशा कारणों का सद्भाव है एवं सर्वदा सद्भाव होने पर भी हमेशा कार्य नहीं होता है कार्य के काल में ही कार्य होता है ऐसा मान लो क्या बाधा है ?
उत्थानिका - दूसरी बात यह है कि क्षणिक पक्ष में सत्रूप ही कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता है क्योंकि स्वमत में विरोध आता है एवं कार्य की उत्पत्ति के अनुपरम का भी प्रसंग आता है अर्थात् बौद्धमत में असत् रूप ही कार्य का उत्पाद माना है क्योंकि सत् तो सर्वथा मौजूद ही है उसकी उत्पत्ति मानने से कभी उत्पत्ति की उपरति ही नहीं हो सकेगी ।
यदि कार्य सर्वथा असत् है, यदि असत् की हो उत्पत्ति,
अब सर्वथा असतु ही कार्य को मानने में क्या दोष आते हैं ? तो आचार्य दिखाते हैंगगन कुसुमवत् नहीं होगा । उपादान फिर क्या होगा || यव बीजों से यव ही हों यह, उपादान कारण निष्फल । पुनः कार्य के उत्पादन में, सब विश्वास रहा असफल ||४२ || कारिकार्य - यदि कार्य को सर्वथा असतुरूप ही मानें तब तो आकाश पुष्प के समान वह कभी उत्पन्न ही नहीं हो सकेगा, एवं उसके उपादान कारण का नियम भी नहीं बन सकेगा तथा उसके अभाव में कार्य की उत्पत्ति का कोई विश्वास भी नहीं हो सकेगा ||४२ ॥
1 अनाद्यनन्तकालयोः । दि० प्र० । 2 तस्य कारणाभावस्याविशेषेपि कार्यं भवतु मा भवतु परन्तु क्षणिकपक्षेपि स्वकाले कार्यमुत्पद्यते इति क्षणिकत्ववादिना उक्ते सति स्याद्वाद्याह नित्यस्य सर्वथा सद्रूपाविशेषेपि कार्यं भवेत्कोर्थः नित्यपक्षे नित्यं नित्यरूपेण सर्वदा तिष्ठतु स्वकाले कार्य करोतु इत्यायातम् । दि प्र० । 3 अङ्गीक्रियमाणे । दि० प्र० । 4 कारणरूपस्य | दि० प्रp 15 सद्भावः । दि० प्र० । 6 द्रव्याकारेणैव पर्यायाकारेणापि । दि० प्र० । 7 तह असत्कार्यमस्तु को दोष इत्याशंकायामाहुः सूरयः समन्तभद्राः । दि० प्र० । 8 घटपटादिकम् । दि० प्र० । 9 हि मोत्पद्यतां यथा खपुष्पमसन्नोत्पद्यते । दि० प्र० । 10 क्षणिके उपादाननियमो नास्ति । ब्या० प्र० । 11 कल्पितात् कारणात् कार्य्यनियमो भविष्यतीत्याशङ्कायामाह । ब्या० प्र० । 12 कार्योत्पत्तावपि विश्वासो मा भूत् । दि० प्र० ।
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