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अष्ट सहस्री
[ तृ० ५० कारिका ४२ पर्यायाकारेणेव द्रव्याकारेणापि सर्वथा यद्यसत्कार्यं तदा तन्मा जनिष्ट, खपुष्पमिव । तथा हि । यत् सर्वथाप्यसत्तन्न जायमानं दृष्ट, यथा खपुष्पम् । तथा च परस्य कार्यम् । इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः। कार्यत्वं हि कथंचित्सत्त्वेन व्याप्तम् । तद्विरुद्धं सर्वथाप्यसत्त्वम् । प्रतीतं हि लोके कथंचित्सतः कार्यत्वमुपादानस्योत्तरीभवनात् । सदेव कथमसत् स्याद्विरोधादिति न चोद्यं सकृदपि विरुद्धधर्माध्यासानिराकृतेश्चित्रवेदनवदित्युक्तप्रायम् । तथा चान्वयव्यतिरेकप्रतीतेर्भावस्वभावनिबन्धनायाः किं फलमपलापेन' ? तदन्यतर
पर्यायाकार के समान ही द्रव्याकार से भी यदि कार्य सर्वथा असत्रूप ही होवे तब तो वह उत्पन्न ही नहीं हो सकेगा। आकाश पुष्प के समान । तथाहि
__“जो सर्वथा भी असत् है वह उत्पन्न होता हुआ नहीं देखा जाता है जैसे आकाश पुष्प ।" और उसी प्रकार से बौद्ध के यहाँ कार्य है। “यहाँ सर्वथाप्यसत्वात्" रूप हेतु व्यापक विरूद्धोपलब्धि रूप है। क्योंकि कार्य कथंचित सत्त्व से व्याप्त है। और सर्वथा ही असत पना उस सत से विरूद्ध है। लोक में कथंचित् सत् का ही कार्यपना प्रतीति में आ रहा है क्योंकि उपादान ही उत्तराकार से होते हैं। अर्थात् मृत्पिडादि ही घट कार्यरूप से परिणत होते हुए देखे जाते हैं।
बौद्ध-सत् ही असत् रूप कैसे हो सकता है ?
जैन-यह प्रश्न करना ठीक नहीं है। एक बार क्या अनेक बार ही हमने विरुद्ध धर्मों के एक जगह रहने का प्रतिपादन किया है। चित्र ज्ञान के समान इस बात को बहुत बार कहा है। उसी प्रकार से अन्वय व्यतिरेक प्रतीति भी भाव स्वभाव निमित्तक ही है। पुनः उसके अपलाप से क्या फल मिलेगा? उन दोनों में से किसी एक का निराकरण करने से दोनों का ही निराकरण हो जायेगा, क्योंकि दोनों में अभेद है ।
बौद्ध-अन्वय व्यतिरेक में अभेद कैसे हो सकता है ? अर्थात अन्वय भावरूप है और व्यतिरेक अभावरूप है पुनः दोनों में एकत्व कैसे होगा ?
__ जैन-कारण के सद्भाव में होना ही उसके अभाव में नहीं होने रूप है। क्योंकि कारण के अभाव में न होना ही कारण के सद्भाव में होना न होवे ऐसा तो प्रतीति में नहीं आता है कि जिससे कि उस अन्वय व्यतिरेक में अभेद न हो सके अर्थात् अभेद ही सिद्ध होता है।
1 हेतुः । ब्या० प्र० । 2 स्याद्वादीनां मते यदवस्तु सत् तदेवासत् कथं स्यात् कस्मादेकत्रोभयो विरोधात् । हे सौगत इति त्वया न पृष्टव्यम् । कस्मात् कदाचिदपि एकेवात्र वस्तुनि विरुद्धधर्माणां प्रवर्तनस्य अनिराकरणात् । स्वरूपेण सत्यन्यरूपेणासत्-इत्यादि स्याद्वादीनां मते इष्टत्वात्तथाचित्रज्ञानेनं क्यं प्रतिभासभेदेन नानात्वमिति कथितप्रायं = स्याद्वादी वदति हे सौगत बुद्धप्रलापेन किं फलमन्वयव्यतिरेको द्वौ अपि वस्तु स्वभावी स्त, ते द्वयोर्द्वयोर्मध्ये एकस्य निराकरणे उभयनिराकरणं भवति तयोः भेदाभावात् । द्वि० प्र०। 3 साहित्यम् । ब्या० प्र०। 4 चित्रसंवेदने यथाज्ञानापेक्षयकत्वं पीतादिनिर्भासापेक्षया चानेकत्वं तथा प्रकृतेपि । ब्या० प्र० 5 व्याप्तिविकल्पस्य । ब्या० प्र० । 6 अन्वयव्यतिरेकप्रतीतेविकल्पज्ञानविषयतयापलापेन । ब्या० प्र० ।
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