________________
१३८
]
अष्टसहस्री
[ तृ०प० कारिका ४१
स्वकारणादुत्पन्नस्य कुटात्मनो विनाशस्य 'कारणान्तराणां वैयर्थ्यात् । अन्यथा परापरकारणानुपरमः- स्यात् ।
[ जैनाचार्या बौद्धस्य मंतव्यं निराकुर्वन्तः स्थितेनिहेतुकत्वं साधयन्ति ] इति' भावानां विनाशस्वभावत्वं साधनं स्थितेरपि निनिमित्तत्वं साधयेत् । तथा हि । यद्यद्भाव प्रत्यनपेक्षं तत्तद्भावनियतम्' । यथा बिनाशं प्रत्यन्यानपेक्षं विनश्वरम् । तथैव स्थिति प्रत्यनपेक्षं स्थास्नु वस्तु । इति स्वभावहेतुः । न चायमसिद्धः, 'तद्धेतोरकिञ्चिकरत्वात् तद्व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्ताकरणात्। इत्यादि सर्व समानम् । न हि वस्तुनो व्यति
दो विकल्प उठाकर दोनों में दोषारोपण कर दिया है। आगे जैनाचार्य स्वयं अपना मंतव्य बतलाते हुये पहले स्थिति को निर्हेतुक सिद्ध कर रहे हैं।
[ जैनाचार्य बौद्धों के मंतव्य का खंडन करते हुये स्थिति को निर्हेतुक सिद्ध कर रहे हैं। ]
जैन- इस प्रकार से पदार्थों में विनाश-स्वभाव को सिद्ध करने वाला हेतु स्थिति को भी निनिमित्तक सिद्ध करता है।
तथाहि । जो जिस भाव के प्रति अन्य की अपेक्षा नहीं रखता है, वह उस भाव का नियत है । जैसे विनाश के प्रति अन्य की अपेक्षा न रखने वाला विनश्वर पदार्थ । उसी प्रकार से स्थिति के प्रति अन्य की अपेक्षा न रखने वाली स्थास्नु वस्तु है। अर्थात् "नित्य पदार्थ स्थिति स्वभाव वाला ही होने योग्य है क्योंकि उस भाव के प्रति अन्य की अपेक्षा नहीं रखने वाला है।" इस तरह यह स्वभाव हेतु असिद्ध भी नहीं है क्योंकि उस स्थिति के प्रति वह हेतु अकिचित्कर ही है। वस्तु से उसकी स्थिति भिन्न या अभिन्नरूप से नहीं की जाती है । इत्यादि सभी कथन पूर्वोक्त विनाश में दिये गये के समान ही समझना। [ यहाँ जैनाचार्य वस्तु से स्थिति सर्वथा भिन्न है या अभिन्न ? इन दोनों पक्षों में दूषण दिखा रहे हैं । ]
यदि प्रथम पक्ष लेवें कि वस्तु से उसकी स्थिति भिन्न है तब तो वस्तु से भिन्न स्थिति उस वस्तुरूप कारणों से नहीं की जाती है क्योंकि उस वस्तु को अवस्थास्नुपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा।
1 मुद्गरादि । ब्या० प्र०। 2 मुद्गरादि। दि० प्र०। 3 अनवस्था । दि० प्र० । 4 एवम् । दि० प्र०। 5 अत्राह स्याद्वादी, हे सौगत भावानां यद्विनाशस्वभावसाधनं तदेव स्थितेरपि निर्हेतुकत्वं साधयति। तथाहि अनुमानरचनं वस्तुपक्षः । स्थास्नु भवतीति साध्यो धर्मः स्थिति प्रत्यनपेक्षत्वात् । यद्यद्भावं प्रत्यनपेक्षं तत्तद्भावनियतं । यथा विनाश प्रत्यनपेक्षं विनश्वरं स्थिति प्रत्यनपेक्षं वस्तु तस्मात्स्थास्तु । दि० प्र० । 6 नित्योर्थः स्थितिस्वभावनियतो भवितुमर्हति तद्भावं प्रत्यन्यानपेक्षत्त्वात् । ब्या० प्र० । 7 साध्यम् । ब्या० प्र०। 8 स्याद्वादी वदति स्थिति प्रत्यनपेक्षत्वात् इत्ययं स्वभावहेतु असिद्धो न । कस्मात्तद्वतोः स्थितिस्थितिमतो किञ्चित्कारणं नास्ति । पुनः कस्मात् । ततः स्थितिमतः सकाशास्थितिभिन्ना अभिन्नावान् क्रियते यतः । स्थिति हेतुभिः इत्यादि सर्व विनाशपक्षवद्दषणादिक समानं अस्यैव प्रपञ्चः अग्रे ज्ञातव्यः वस्तुनः सकाशात् भिन्नास्थितिः हेतुना न हि क्रियते क्रियते चेत्तस्य वस्तुनः अस्थिरत्वमापद्यते । दि० प्र०।१ स्थितिकारणस्य । दि० प्र०। 10 स्थितेः । ब्या० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org