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अष्टसहस्री
[ द्वि० ५० कारिका ४१ क्रान्ततमवद्वा, यतः पूर्वस्य कारणत्वनिर्णयः स्यात् । तदन्वयव्यतिरेकानुविधानादुत्तरं तत्कार्यमिति चेन्न, तस्यासिद्धेः । न हि समर्थेस्मिन् सति स्वयमनुत्पित्सोः पश्चाद्धवतस्तकार्यत्वं समनन्तरत्वं वा नित्यवत्, तद्भावे स्वयमभवतस्तदभावे' एव भवतस्तदन्वयव्यतिरेकानुविधानविरोधात् । क्षणिकैकान्ते कारणाभावाविशेषेपि 'कार्योत्पत्तिसमयनियमावक्लुप्तौ कस्यचित्कौटस्थ्येपि तत्करणसमर्थसद्धावाभेदेपि कार्यजन्मनः कालनियमः किन्न स्यात् ? विशेषाभावात । यथैव हि स्वदेशवत्स्वकाले सति कारणे समर्थे कार्य जायते,
जैन-नहीं। समनंतरपना होने पर भी अभाव-असत्रूप से दोनों ही समान हैं। इसलिये पूर्व का उत्तरक्षण कार्य नहीं है क्योंकि उस पूर्वक्षण का विनाश हो जाने पर ही वह कार्य हुआ है, वस्त्वंतर के समान अथवा अतिक्रांततम के समान । अर्थात् जैसे देवदत्त, यज्ञदत्त के चित्तक्षण भिन्न-भिन्न होने से उनमें कार्य कारण भाव नहीं है, अथवा चिरतर के बीते हुए ज्ञान क्षणों में कार्यकारण भाव नहीं है तथैव पूर्वक्षण और उत्तरक्षण में भी कार्यकारण भाव नहीं है कारण कि आपके यहाँ पूर्वक्षण का निरन्वय विनाश माना गया है पुनः वह सर्वथा अभावरूप होकर उत्तरक्षण को कैसे उत्पन्न कर सकेगा ? कि जिससे पूर्वक्षण कारण है यह निश्चय किया जा सके । अपितु नहीं किया जा सकता है ।
बौद्ध-उसके साथ अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान होने से वह उत्तरक्षण पूर्वक्षण का कार्य कहलाता है।
जैन-नहीं। आपके कार्य-कारण में वह अन्वय-व्यतिरेक भाव असिद्ध है।
क्योंकि समर्थरूप पूर्व (कारण) के होने पर तो स्वयं उत्पन्न होने की इच्छा न करे और पश्चात् होते हुये यह उस कारण का कार्य है अथवा समनंतर है ऐसा नहीं कह सकते हैं, जैसे कि नित्य में कार्य कारणभाव असंभव है उसी प्रकार से नष्ट हुये कारण से भी कार्य के नहीं होने से कार्यकारणभाव असंभव है।
उसके होने पर तो स्वयं न होवे और उसके अभाव में ही होवे उसमें अन्वय-व्यतिरेक का विरोध है।
1 सौगतः तयोः कारणकार्ययोरन्वयव्यतिरेकसम्बन्धात् । उत्तरक्षणं तस्य पूर्वक्षणकार्य भवतीति चेन्न । तस्यान्वयव्यतिरेकानविधानस्यासंभवात् । दि० प्र०। 2 वस्त्वन्तराभावे यथा विवक्षितकार्यसद्भावो न च तत कार्यत्वं वस्त्वन्तरकार्यत्वं तद्वदतिक्रान्ततमान्यकारणस्य पूर्वक्षणलक्षस्याभावेविवक्षितकार्यस्य सद्धावस्तथा न तत्कार्यमतिक्रान्ततमकार्यमिति शेषः । ब्या० प्र०। 3 कारण । दि० प्र०। 4 कार्यस्य । दि० प्र०। 5 कालः । ब्या०प्र० । 6 अविशेषेपि । ब्या० प्र०। 7 यथैव हि स्वदेशे इव स्वकाले सहकारिकारणे समर्थे सति कार्यमुत्पद्यते । असति नोत्पद्यते । तदन्वयव्यतिरेकानुविधानं कथ्यते । = तथा नित्य कान्तपक्षे आद्यरहिते स्वकाले सहकारिकारणे समर्थे सति आत्मकाले कार्यमुत्पद्यमानं अन्यदा स्वसमयाभावे अनुत्पद्यमानं तत् अन्वयव्यतिरेकानुविधानं त्वया सौगतेन कथं नाङ्गीक्रियते इत्युक्त स्याद्वादिना । दि० प्र० ।
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