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अष्टसहस्री
[ द्वि०प० कारिका ४१ मारभते इत्यपि मिथ्या, 'तस्याऽवस्तुत्वविरोधात् कार्यारम्भकस्य वस्तुत्वात् । चित्तक्षणानां चावस्तुतापत्तिरकार्यारम्भकत्वात् । न च तत्कार्यारम्भकत्वाभावे फलं पुण्यपापलक्षणं संभवति । तदभावे न प्रेत्यभावो न बन्धो न च मोक्षः स्यात् । इति क्षणक्षयकान्तदर्शनमहितम्, असंभवत्प्रेत्यभावादित्वादुच्छेदैकान्तवद्धव्यकान्ताभ्युपगमवद्वा। न हि सर्वथोच्छेदैकान्ते शून्यतालक्षणे नित्यत्वैकान्ते वा प्रेत्यभावादिः संभवति, यतोयं दृष्टान्तः साधनधर्मविधुरः' स्यात् । नापि प्रेक्षावतां तदाश्रयणं हितत्त्वेन मतं, येन साध्यविकलः स्यात् । अथ मतमेतत्, क्षणिकत्वेपि चित्तक्षणानां वासनावशात्प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदं सुखसाधनमिति स्मरणपुरस्सरमुत्पद्यते । ततोभिलाषात्तत्साधनाय प्रवृत्तिरिति कार्यारम्भात्पुण्यपाप
जायेगी किन्तु आपने सन्तान को तो अवस्तु ही माना है। और चित्त क्षणों को भी अवस्तुपने का प्रसंग आ जायेगा क्योंकि वे कार्य के आरम्भक नहीं हैं।
कार्य के आरम्भक का अभाव होने पर पुण्य पाप लक्षण फल भी संभव नहीं है । उस फल के अभाव में न प्रेत्यभाव होगा, न बंध होगा, न मोक्ष ही हो सकेगा। इसलिये क्षणक्षयकांत दर्शन अहितरूप ही है क्योंकि उसमें प्रेत्यभावादि सम्भव नहीं हैं, उच्छेदै कांत-शून्यकांत के समान, अथवा ध्रौव्यकांत-नित्यत्वैकांत की स्वीकृति के समान । अर्थात् जैसे शून्यवाद में और सर्वथा नित्यपक्ष में प्रेत्यभाव आदि सम्भव नहीं है, तथैव क्षणिकैकांत में भी सम्भव नहीं है । शून्यता लक्षण, सर्वथा उच्छेद एकांत में अथवा नित्यत्वकांत में प्रेत्यभावादि सम्भव नहीं हैं। जिससे कि ये दृष्टांत साधन धर्म से विधुर-रहित हो सकें अर्थात् नहीं हो सकते हैं । प्रेक्षावान् पुरुषों को उस क्षणिकैकांत का आश्रय हितरूप से मान्य हो ऐसा भी नहीं है, कि जिससे यह दृष्टांत साध्य विकल हो सके अर्थात् यह दृष्टांत साध्य विकल नहीं है।
बौद्ध-हमारे क्षणिकरूप एकांत पक्ष में भी चित्त क्षणों में वासना के निमित्त से "यह वही सुख साधन है" इस प्रकार स्मरण पूर्वक प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न हो जाता है । और उस प्रत्यभिज्ञान से अभिलाषा होती है, उस अभिलाषा से सुख के साधन के लिये प्रवृत्ति होती है इस प्रकार से कार्य का आरम्भ होने से पुण्य, पाप क्रिया सिद्ध हैं अतः हमारे यहाँ प्रेत्यभाव आदि सम्भव हैं। इसलिये "असंभवत्प्रेत्यभावादित्वात्" आपका यह हेतु असिद्ध है जो कि साध्य को सिद्ध करने के लिये समर्थ नहीं है।
1 अन्यथा । ब्या० प्र० । 2 कारकस्य । ब्या० प्र० । 3 सन्तानस्य कार्यारम्भकत्वे । ब्या० प्र०। 4 ज्ञानस्य। दि० प्र०। 5 तथा सति किं भवति । दि० प्र०। 6 असंभवत्प्रेत्यभावादिर्यत्रमणि केकान्तदर्शनेतत् असम्भवत् प्रेत्यभावादि तस्यभावस्तत्त्वं तस्मात् । दि० प्र०। 7 उच्छेदैकान्त ध्रौव्यकान्तवदित्ययं दृष्टान्तः असम्भवत्प्रेत्यभावादित्वात इत्यनेनसाधनधर्मेण विकल्पो यतः कुतः स्यान्नस्यादित्यर्थ:=विचारकाणां उच्छेदैकान्त धौव्यकान्ताश्रयणं उपकारकत्वेन मतं न । अहितमितिसाध्यधर्मरहितो येन केन स्यान्न स्यादित्यर्थः। दि० प्र०। 8 अनेन प्रकारेण । ब्या० प्र०।
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