________________
क्षणिक एकांत में दूषण ]
तृतीय भाग
[ १३३
स्युः क्षणक्षयवत् । यथैव हि क्षणिकस्वलक्षणस्य' नानाकार्याणि युगपदुपजनयतः सहकारिकारणानि न कञ्चिदतिशयं ततो भिन्नमभिन्नं वा समुपजनयन्ति । किं तर्हि ? कार्याण्येव भिन्नस्वभावानि विदधति । तथैव नित्यस्यापि । न हि कादाचित्कानि तत्तत्कतु समर्थानीति स्थिरोथस्तत्करणस्वभावं जहाति तद्बुद्धिपूर्वकत्वाभावात् क्षणिकसामग्रीसन्निपतितककारणान्तरवत् । न हि क्षणिकक्षित्युदकादिसामग्यामन्त्यक्षणप्राप्तायामङ्क रजननसमर्थायां सत्यां तत्सन्निपतितं बीजं कारणान्तरमा रजननस्वभाव जहाति, तस्य 'तदकार्यत्वप्रसङ्गात् । न हि हेतवः परस्परमीविलिप्ताः क्वचिदेकत्र कार्ये येनैकस्य तत्र व्यापा
"कादाचित्करूप सहकारीकारण उस-उस कार्य को करने के लिये समर्थ हैं" इस प्रकार से । ऐसा समझ कर) स्थिर नित्य उस कार्य को करने के स्वभाव को नहीं छोड़ता है क्योंकि उसमें बुद्धिपूर्वकत्व का अभाव है, क्षणिक सामग्री में सन्निपतित एक कारणांतर के समान । अर्थात् नित्य पदार्थ के ये सहकारी कारण इस कार्य को करने में समर्थ हैं, मुझ नित्य के द्वारा क्या करना चाहिये इस प्रकार से जो यह बुद्धिपूर्वकत्व है उसका वहाँ अभाव है क्योंकि परमाणु आदि अचेतन हैं ।
तलब यह है कि-नित्य पदार्थ में अनेकों कार्यों को करने अनेक स्वभाव नहीं है और सहकारीकारण ही अनेकों कार्यों को करते हैं, नित्य पदार्थ एक स्वभाव वाला ही है ऐसा जिनका कहना है वह गलत है जैनाचार्य तो अनेकों कार्यों को देखकर वस्तु में भी स्वभाव भेद स्वीकार कर रहे हैं। अन्त्य क्षण को प्राप्त, अंकूर को उत्पन्न करने में समर्थ, सहकारी रूप, क्षणिक पृथ्वी, जल आदि सामग्री के होने पर उसमें पड़ा हुआ कारणांतर बीज, अंकुर जनन स्वभाव को नहीं छोड़ता है अन्यथा उस बीज में अंकर को नहीं उत्पन्न करने रूप अकार्यत्व का प्रसंग आ जायेगा । अर्थात् अंकुर बीज का कार्य है यह बात नहीं बनेगी। क्योंकि वे सहकारी और उपादान रूप कारण किसी एक कार्य को करने में परस्पर में इर्ष्या से अवलिप्त नहीं है कि जिससे एक का वहाँ व्यापार होने पर दूसरे वहाँ से हट जायें। अर्थात् सहकारीकारण और उपादानकारण के भेद से कारण के दो भेद माने गये हैं यहाँ जल, मिट्टी आदि सामग्री अंकुर के लिये सहकारी कारण है और बीज उपादान कारण हैं। एवं इन सहकारीकारण और उपादानकारण का परस्पर में ईर्ष्या भाव नहीं है कि जिससे अंकुर कार्य को उत्पन्न करने के लिये सहकारी कारण आवें तो उपादान कारण हट जावे या
1 प्रदीपक्षणवत् । ब्या० प्र० । 2 प्रदीपादेरर्थस्य । 3 सहकारिकारणानि कर्तृ भूतानि किं कुर्वन्ति त_ति प्रश्ने पृथक्स्वभावान्ये व कार्याणि कुर्वन्ति तथैव नित्यस्यापि =तहि कादाचित्कानि सहकारिकारणानि तत्कार्यं । दि० प्र०। 4 कार्य । दि० प्र० । 5 आतपावकेशवातादयः । दि० प्र०। 6 कर्म । ब्या० प्र० । 7 बीजमंकुरजननस्वभावं यदि त्यजति तदा बीजस्य तत् अंकुरोत्पत्तिलक्षणकार्यत्वं न प्रसजति यतः। दि० प्र०। 8 हेतवः सहकारिकारणानि कस्मिश्चिदेकस्मिन् कार्ये परस्परं अभ्यसूया रूढ़ा नहि। एकस्य सहकारिकारणस्य तत्र कार्ये व्यापारे जाते सति अन्ये हेतवः येन केन अतिक्रमेरन् । अपितु नोल्लंघयेयुरिति । दि० प्र०। 9 संमिश्रिताः । ब्या० प्र० । 10 कारणस्य । ब्या० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org