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क्षणिक एकांत में दूषण ] तृतीय भाग
[ १२३ क्रियासिद्धेः प्रेत्यभावादिसंभवादसंभवत्प्रेत्यभावादित्वादिति हेतुरसिद्धो न साध्य. साधनायालमिति, तदसत्, भिन्नकालक्षणानामसंभवद्वासनत्वादकार्यकारणवत् । पूर्वमेव चित्तमुत्तरोत्पत्तौ वासना तत्कारणत्वादिति चेन्न, निरन्वयक्षणिकत्वे कारणस्यैवासंभवात् । तथा हि।
[ विनष्टं कारणं कथं कार्यं कुर्यात् यथा कारणमिति नाम लभेत । ] न विनष्टं कारणमसत्त्वाच्चिरतरातीतवत् । समनन्तरातीतं कारणमिति चेन्न, समनन्तरत्वेप्यभावाविशेषात् । न च पूर्वस्योत्तरं कार्य, तदसत्येव हि 'भावाद्वस्त्वन्तरवदति
जैन-यह कथन असत् है। क्योंकि भिन्न है काल जिनका ऐसे उन ज्ञान क्षणों में वासना ही असम्भव है। जैसे कि जिनका कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं है ऐसे घट, पट आदि क्षणों में भिन्न काल होने से वासना असम्भव है। ऐसा आपने माना है तथैव भिन्न-भिन्न कालवर्ती ज्ञानक्षणों में भो वासना नहीं हो सकती है।
बौद्ध-पूर्व-पूर्व का ही चित्तक्षण उत्तर-उत्तर चित्तक्षण की उत्पत्ति में वासना कहलाता है। क्योंकि पूर्वचित्त का क्षण उत्तर चित्तक्षण के लिये कारण है।
जैन-ऐसा नहीं कह सकते । क्योंकि सभी ज्ञानक्षणों को निरन्वय क्षणिक मान लेने पर उनमें कारण ही असम्भव है । तथाहि[विनष्ट हुआ कारण कैसे कार्य को कर सकेगा कि जिससे वह 'कारण' इस नाम को प्राप्त कर सके ? ]
विनष्ट हुआ क्षण कारण नहीं है असत् होने से, चिरतर अतीतक्षण के समान । अर्थात् क्षणिक-स्वरूप पूर्वचित्त नष्ट हो गया अत: वह कारण नहीं है जैसे कि बहुत पहले के बीते हुये चित्त उत्तरचित्त के लिये कारण नहीं हैं । उसी प्रकार से समनंतर अतीत (प्रथम क्षण के बाद ही होने वाला) भी कारण नहीं है क्योंकि असत्रूप से तो दोनों ही समान हैं।
बौद्ध-समनंतर का अतीतक्षण कारण हैं।
1 क्षणक्षणकान्तदर्शनमहितं । असम्भवत् प्रेत्यवादित्वात् । ब्या० प्र०। 2 जैनाह । यदुक्त सौगतेन तदसत्यं कस्मात् भिन्नकालक्षणान्नां वासना न संभवति यतः । यथा परसन्तानः क्षण: कारणमपरसन्तानक्षणस्य कार्यस्योत्पादकं न भवति । तथा स्वसन्तानेऽपि कार्यकारणभावो न भिन्नकालक्षणत्वात् । दि० प्र०। 3 चित्तक्षणानाम् । व्या० प्र० । 4 देवदत्तयज्ञदत्तलक्षणचित्तक्षणवत् । ब्या० प्र० । 5 पूर्वमेवचित्तं वासना । ब्या० प्र० । 6 अत्राह जैन: ! हे सौगत पूर्व चित्तमुत्तरचित्तस्य कारणमभवतोच्यते । तत्सान्वयक्षणिकत्वे निरन्वयक्षणिकत्वे वा इति प्रश्नः । तत्र सान्वयक्षणिकत्वे भवत् मतहानिः । द्वितीयनिरन्वयक्षणिकत्वे कारणमेव न संभवति =तथाहि विवादापन्नं पूर्वचित्तं विनष्टं पक्षः कारणं न भवतीति साध्यो धर्मः । असत्वात् । यथा चिरतरातीतं चित्तं असच्चेदं तस्मात्कारणं न भवति । दि० प्र० 17 चिरतरातीतवदा प्रकृष्टेत्तरत्तमप्प्रत्ययो । ब्या० प्र०।
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