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क्षणिक एकांत में दूषण ] तृतीय भाग
[ १२५ नासतीति तदन्वयव्यतिरेकानुविधायीष्यते तथा स्वकालेऽनाद्यनन्ते सति समर्थे नित्ये स्वसमये कार्यमुपजायमानमन्यदानुपजायमानं तदन्वयव्यतिरेकानुविधायि कथं नानुमन्यते ? सर्वदा समर्थे नित्ये कारणे सति स्वकाले एव कार्यं भवत्कथं तदन्वयव्यतिरेकानुविधायीति चेत्तहि कारणक्षणात्पूर्वं पश्चाच्चानाद्यनन्ते तदभावे विशेषशून्येपि क्वचिदेव तदभावसमये भवत्कार्यं कथं तदन्वय यतिरेकानुविधायि' ? इति न' कश्चिद्विशेषः । तदेवमन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाविशेषेपि क्षणिकैकान्ते एव कार्यजन्मेति वचनमभिनिवेशमात्रनिबन्धनम् ।
यदि क्षणिकैकांत में चिरतर का अतीत और अनंतरवर्ती दोनों में कारण का अभाव समान रूप से होने पर भी कार्योत्पत्ति के समय के नियम की कल्पना करेंगे तब तो सांख्य के द्वारा मान्य कूटस्थ नित्य वस्तु में भी उस करण की सामर्थ्य का सद्भाव अभिन्न होने पर भी कार्य के जन्मकाल का नियम क्यों नहीं हो जायेगा ? क्योंकि दोनों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है।
जिस प्रकार से कार्य प्रदेश के कारणरूप होने पर कार्य होता है, नहीं होने पर नहीं होता है। ऐसे उस स्वदेश के समान स्वकालरूप कारण के समर्थ होने पर कार्य उत्पन्न होता है, नहीं होने पर नहीं होता है । इस प्रकार से वह कार्य-कारणभाव अन्वय-व्यतिरेकानुविधायी है ऐसा आप बौद्धों के द्वारा माना गया है उसी प्रकार से अनादि अनंतरूप नित्य समर्थ स्वकाल के होने पर उस कार्य क्षणरूप स्वसमय में कार्य उत्पन्न होता हुआ एवं अन्यकाल में उत्पन्न न होता हुआ उस कारण के साथ वह कार्य अन्वय-व्यतिरेकानुविधायी है ऐसा आप बौद्धों के द्वारा क्यों नहीं माना जाता है ?
बौद्ध-हमेशा ही समर्थभूत नित्य कारण के विद्यमान रहने पर भी स्वकाल में ही होता हुआ कार्य कारण के साथ अन्वय-व्यतिरेकानुविधायो कैसे हो सकता है ?
जैन-तब तो कारणक्षण से पहले और बाद में जो अनादि अनंत काल है उसमें उसका अभाव है और विशेष से शून्य अर्थात् अभावरूप से समान होने पर भी किसी ही उसके अभाव समय में होता हुआ कार्य उस कारण के साथ अन्वय-व्यतिरेकानुविधायी कैसे हो सकता है ?
क्योंकि इस प्रकार से नित्य और क्षणिक में कोई असर नहीं है।
भावार्थ---बौद्ध असत्कार्यवादी है उसका कहना है कि कारणरूप मृत्पिड के जड़मूल से विनाश हो गया पुनः अनंतर क्षण में घट रूप कार्य उत्पन्न हो गया है। यहाँ आचार्य स्वयं पहले अपना इष्ट तत्त्व नहीं बतलाते हैं किन्तु इस बौद्ध ने जो नित्य पक्ष में दोषारोपण किये थे उन्हीं दोषों को आचार्य इस बौद्ध के शिर मढ़ रहे हैं आचार्य कहते हैं कि भाई ! यदि तुम सर्वथा-क्षणिक पक्ष में कार्य-कारणभाव मान लेते हो तो सर्वथा कूटस्थ नित्य में भी मानों, अन्यथा हम जैनों के समान दोनों ही पक्षों में मत मानों, क्योंकि दूषण या भूषण दोनों जगह समान ही हैं।
1 कारण । दि० प्र० 1 2 क्षणिक । दि० प्र०। 3 उभयत्र क्षणिकान्ते नित्येकान्ते च अन्वयव्यतिरेकानूविधानाभावेन विशेषो नास्ति । दि० प्र०।
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