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क्षणिक एकांतवाद का खण्डन
तृतीय भाग [ १२१ _ 'सत्यमेतन्नित्यत्वैकान्ते दूषणं क्षणक्षयकान्तस्यैव प्रातीतिकत्वादिति वदन्तं वादिनं प्रत्याहु :
क्षणिकैकान्तपक्षेपि' 'प्रेत्यभावाद्यसंभवः ।
प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥४१॥ क्षणिकैकान्तपक्षे' चेतसः कार्यारम्भो नास्ति, 'प्रत्यभिज्ञानस्मृतीच्छादेरभावात्। सन्तानान्तरचित्तवत् । तदभावश्च प्रत्यभिज्ञातुरेकस्यान्वितस्याभावात् । सन्तानः कार्य
उत्थानिका-नित्यत्वैकांत में यह दूषण सत्य ही है क्योंकि क्षण क्षय रूप एकांत की ही प्रतीति हो रही है। इस प्रकार से कहते हुये बौद्धों के प्रति श्रीस्वामी समंतभद्राचार्यवर्य कहते हैं ।
क्षणिकैकांत पक्ष में भी, परलोकगमन कैसे होगा। बंध-मोक्ष प्रक्रिया असंभव, है फिर धर्म कहाँ होगा । क्योंकि प्रत्यभिज्ञान असंभव, है स्मृति अनुमान कहाँ।
पुनः कार्य आरम्भ न होगा, फल भी उसका रहा कहाँ ।।४१।। कारिकार्थ-क्षणिकैकांत पक्ष में भी प्रेत्यभाव आदि असम्भव हैं, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान आदि का अभाव होने से कार्यादि का आरम्भ नहीं हो सकता है पुन: फल कैसे हो सकेगा ? ॥४१॥
क्षणिकैकांत पक्ष में ज्ञानरूप चित्त का कार्यारंभ नहीं है क्योंकि उसमें प्रत्यभिज्ञान, स्मृति, इच्छा आदि का अभाव है। जैसे कि भिन्न-भिन्न संतान के चित्तक्षण । और उन प्रत्यभिज्ञान आदि का अभाव भी क्यों है ? तो एक अन्वयरूप प्रत्यभिज्ञाता आत्मा का अभाव है।
बौद्ध-हमारे यहाँ तो सन्तान ही कार्य का आरम्भ करता है।
जैन-यह कथन भी मिथ्या है । पुन: आपकी यह सन्तान अवस्तु नहीं रहेगी क्योंकि कार्य का आरम्भ करने वाला वस्तुभूत होता है अर्थात् सन्तान को कार्य करने वाली मानने से वह वस्तु हो
1 सौगतः । दि० प्र०। 2 प्रमाणोपपन्नत्वात् । दि० प्र०। 3 अनित्यत्वैकान्तपक्षे सौगताभिमते । दि० प्र० । 4 बंधमोक्षादीनामप्यभावः । दि० प्र०। 5 पुनः क्षणिकैकान्तपक्षे ज्ञानक्षणस्य कार्यारम्भो नास्ति पूर्वक्षणवत्तिनो ज्ञानस्य क्षणिकरूपस्य उत्तरक्षणस्थकार्यनिष्पत्ती कारणत्वं न स्यात् कुतः कार्यकारणयोरन्वयाभावात् । अन्यथा घटपटादिकार्यव्यापारो ग्राह्यः । दि० प्र० । 6 पुण्यपापलक्षणम् । दि० प्र० ।। क्षणिकपतिरन्वयलक्षणपरमाणुरूपस्य संवेदनस्थकार्यस्य शुभाशुभरूपस्य प्रारम्भो न भवति । दि० प्र० । 8 कारणं । ब्या० प्र० । 9 तदेवेदं सुखसाधनमिति । ब्या० प्र० । 10 प्रत्यभिज्ञानस्मरणाभिलाषाभिलाषप्रवृत्त्यनुभवादेरसंभवात् । दि० प्र०। 11 अत्राह सौगत: चेतसः कार्यारम्भो मा भवतु । सन्तानः कार्य आरभते । स्याद्वाद्याह इत्यप्यसत्यं कस्मात्तस्य सन्तानस्य सौगताभ्युपगतस्य प्रवस्तुत्वं विरुद्धयते यत्कार्यारम्भकं तदेव वस्तु । दि० प्र०।
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