________________
नित्य एकांतवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग [ ११६
नित्य एकान्त के खण्डन का सारांश
आत्मा कूटस्थ नित्य है वह कारक नहीं है "करोति क्रियां निवर्तयति इति कारकः" इस लक्षण से उत्पत्तिलक्षण क्रिया और ज्ञप्तिलक्षण क्रिया का साधक आत्मा नहीं है। इस तरह से हमारे यहाँ पुरुष अवस्तुरूप भी नहीं होगा क्योंकि आत्मा की अर्थ क्रिया चेतना है “चेतयते इति चेतना" यह क्रिया पुरुष का ही लक्षण है "चैत्यन्यं पुरुषस्य स्वरूप" ऐसा सूत्र है । किन्तु चेतना से भिन्न कार्य की उत्पत्ति लक्षण या अर्थज्ञप्तिलक्षण अर्थक्रिया आत्मा में नहीं है वह तो प्रधान का धर्म है । अतः आत्मा चेतना स्वभावरूप नित्य अर्थक्रिया वाला होने से वस्तुभूत है। पूर्वाकार का तिरोभाव होकर उत्तराकार का आविर्भाव होना परिणाम है एवं इससे भिन्न सदा स्थायीस्वरूप स्वभाव है। परिणाम, विवर्त, विकार, अवस्था और पर्याय स्वभाव से भिन्न हैं क्योंकि ये कादाचित्क हैं, इसलिये सुख आदि विशेष परिणाम, स्वभावपर्याय नहीं हैं किन्तु हमेशा अनपायी असाधारणस्वरूप ही स्वभाव है।
जैनाचार्य-इस कूटस्थ नित्यकांत में तो इस प्रकार से अनेक प्रकार की क्रिया में उत्पन्न नहीं हो सकेंगी। कार्य की उत्पत्ति के पहले कारक का अभाव होने से प्रमाण एवं उसका फल भी संभव नहीं है । जो आपने आत्मा को अकारक कहा है तब वह जाननेरूप क्रिया का कर्ता न होने से अज्ञाता एवं भुजिक्रिया का कर्ता न होने से अभोक्ता बन जायेगा। तथ: प्रत्यक्ष एवं अनुमान आदि चेतनारूप नित्यक्रिया का अनुभव न होकर "मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ" इत्यादिरूप स्वसंवेदन से अनित्यरूप का ही अनुभव होता है । तथा आपका सिद्धान्त है कि प्रधान की धर्मरूप बुद्धि के द्वारा ही किसी भी पदार्थ का निश्चय हो जाने पर उसको आत्मा जानती है पुनः ज्ञान से अनिश्चित चेतना को आत्मा कैसे जानेगी ? सर्वथा नित्य पदार्थ में कारक हेतु एवं ज्ञापक हेतु का व्यापार ही असंभव है।
तथा एकांत से हमेशा स्थायी एकरूप कोई स्वभाव नहीं देखा जाता है प्रत्युत पूर्वाकार का त्याग करके उत्तराकार को ग्रहण करके घट पटादि को जानती हुई आत्मा अनुभव सिद्ध है यह परिणाम ही स्वभाव पर्याय है विवर्त आदि इसी के नाम हैं इससे भिन्न सतत् स्थित कोई स्वभाव प्रमाण से सिद्ध नहीं है। पूर्वाकार का तिरोभाव उत्तराकार का आविर्भाव होना ही नाश, उत्पाद रूप हैं तुमने केवल नाम बदल दिया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org