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अष्टसहस्री
[ द्वि० १० कारिका ४० अतः उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक आत्मा ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, स्मरण प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम एवं सुनिश्चितासंभवबाधक प्रमाण से सिद्ध है। कूटस्थ नित्य में सर्वथा उत्पाद व्यय का अभाव होने से उसका अभाव ही हो जायेगा यदि आप कहें कि जैसे इन्द्रियाँ अपने विषयों को अभिव्यक्त करती हैं तथैव प्रमाण एवं कारक महान् अहंकार आदि व्यक्त को अभिव्यक्त करते हैं, यह कथन भी असत्य है क्योंकि वे प्रमाण और कारक तो आपके यहाँ सर्वथा नित्य हैं । यदि ये प्रमाण एवं कारक अपने अनभिव्यंजकरूप पूर्व स्वभाव का त्याग करके व्यक्त करने रूप उत्तराकार को ग्रहण करे तब तो वे अभिव्यंजक होंगे एवं ऐसा मानने से तो आप अंधसर्प बिल प्रवेश न्याय से स्याद्वाद को ही आश्रय ले लेते हैं । अन्यथा आपके यहाँ कार्य-कारण के अभाव में वस्तु का ही अभाव हो जायेगा।
यदि आप कहें कि महान अहंकार आदि कार्य हैं प्रधान कारण हैं तब तो आप यह बतायें कि कार्य सर्वथा सत्रूप है या असत्रूप ? सर्वथा सत्रूप कार्य पुरुष के समान उत्पन्न हो नहीं सकता है। यदि होगा तो अनित्य मानना होगा। यदि सर्वथा कार्य असत्रूप है तो आकाश के फूल भी लटकते हुये दिखने चाहियें। अर्थात् सांख्य सत्कार्यवादी है उनका कहना है कि कारण में कार्य सदैव विद्यमान है। वे कहते हैं कि महान् अहंकार आदि क्रमश: पूर्व-पूर्व में लीन होते हुये प्रधान में तिरोभूत-लीन हो जाते हैं। इसलिये नित्य नहीं हैं और तिरोभूत होकर भी उसमें हमेशा मौजूद हैं उनका नाश नहीं है। इस कथन से तो अनेकांत का आश्रय लेने से आप सर्वथा नित्यकांतवादी नहीं रह सकते हैं।
___ अतएव कूटस्थ नित्यकांत सिद्ध नहीं हुआ क्योंकि उसमें पुण्य, पाप क्रिया नहीं हो सकती हैं एवं क्रियाओं के फल परलोक तथा सुख-दुःखादि भी असंभव हैं एवं बंध, मोक्ष की व्यवस्था भी कथमपि शक्य नहीं है । अतः कथंचित् नित्यशासन ही श्रेयस्कर है।
सार का सार-सांख्य आत्मा को सर्वथा नित्य मानता है अकर्ता मानता है एवं प्रकृति को करने वाली अनित्य मानता है। उसमें भी उसकी मान्यता है कि मिट्टी से घड़ा बना नहीं प्रत्युत कुम्भकार दण्ड चक्र आदि से घड़ा प्रगट हो गया है अतः कारण में कार्य सदा विद्यमान ही है । परन्तु जैनाचार्यों ने इस नित्यकांत का निराकरण कर दिया है क्योंकि यदि आत्मा सर्वथा नित्य ही है तब उसको जन्म-मरण आदि के दुःख नहीं होने चाहियें अतः कथंचित् द्रव्य दृष्टि से आत्मा नित्य है । पर्याय की अपेक्षा से अनित्य भी है तथा कारण में कार्य शक्तिरूप से विद्यमान है प्रगट रूप से नहीं, वह कार्य निमित्तों से उत्पन्न होता है न कि प्रगट ऐसा स्पष्ट है।
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