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अनेकांत की सिद्धि ]
तृतीय भाग निश्चयवत् । तस्यैव सतो' द्रव्यादिभेदात् पृथक्त्वमुदाहरणं पूर्ववत् । तथा च बहिरन्तश्च भावानां सदात्मनैकत्वं द्रव्याद्यात्मना पृथक्त्वं च स्वस्वभावः' सिद्धो, न पुनरसाधारणं भिन्न रूपम् । तेन च स्वस्वभावेन व्यवस्थितेः स्वभावपरभावाभ्यां भावाः स्वभावेनानुवृत्तिव्यावृत्तिभागिनो, न पुनरेकान्ततो व्यावृत्तिभागिनः । 'तस्माद्यतो यतोर्थानां व्यावृत्तिस्तन्निबन्धना भेदविशेषा एव प्रकल्प्यन्ते, न जातिविशेषाः प्रतीतिविरोधात् । यतो यतस्त्वनुवृत्तिस्ततस्ततो जातयः प्रकल्प्यन्ते', तासामेवानुवृत्तिप्रत्ययलिङ्गत्वात् । ततो यो येन धर्मेण विशेषोऽविशेषश्च
"उन्हीं सवरूप जीवादि वस्तुओं में ही द्रव्यादि के भेद से पृथक्त्व सिद्ध है पूर्व के समान अर्थात् जैसे प्रतिभास भेदों से चित्रज्ञान अनेक है तथैव द्रव्यादि के भेदों से जीवादि वस्तुयें अनेक हैं।" इस प्रकार से बहिरंग, अंतरंग सभी पदार्थों में सत्स्वरूप से एकत्व एवं द्रव्यादि के भेद से पृथक्त्व सिद्ध है जो कि वस्तु का स्वस्वभाव है, किंतु उनमें असाधारण भिन्नरूप नहीं है अर्थात् सर्वथा विधि से-एकत्व से निरपेक्ष पृथक्त्व या पृथक्त्व से निरपेक्ष एकत्व नहीं है। एवं उस स्वस्वभाव से व्यवस्थित हो जाने से स्वभाव, परभाव के द्वारा सभी पदार्थ स्वभाव से ही अनुवृत्ति-व्यावृत्ति स्वरूप वाले हैं किन्तु वे एकांत से व्यावृत्ति स्वभाव वाले ही नहीं हैं अर्थात् सभी पदार्थ सामान्य विशेषात्मक हैं। जिस प्रकार से स्वभाव से अनुवृत्तिरूप होना वस्तु का स्वभाव है उसी प्रकार से परभाव से व्यावृत्तिरूप होना भी वस्तु का स्वभाव है किन्तु बौद्धाभिमत पर से व्यावृत्तिरूप मात्र होना ही वस्तु का स्वभाव नहीं है ।
___ इसलिये जिस-जिस अर्थ से पदार्थों में व्यावृत्ति है उस-उस निमित्तक ही भेद विशेष निश्चित किये जाते हैं किन्तु जाति विशेषरूप से नहीं क्योंकि प्रतीति में विरोध आता है अर्थात् व्यावृत्ति से विशेषों की (भेदों की) ही प्रतीति होती है, जाति-सामान्य की नहीं। कारण सामान्य तो अनुवृत्तिरूप से प्रतीति में आ रहा है अत: विपर्यय से प्रतीति में विरोध है ऐसा भाव समझना ।
जिस-जिससे अनुवत्ति-अन्वय होता है उस-उससे जातियों-सामान्यों का निश्चय किया जाता है क्योंकि वे सामान्य ही अन्वयज्ञान में कारण हैं। जो जिस धर्म से विशेष और अविशेषरूप प्रतीति में आता है उसको उससे भिन्नरूप से निश्चित करना शक्य नहीं है अर्थात् पृथक्त्व धर्म से भेद का अनुभव आता है और सत्सामान्य धर्म से अभेद का अनुभव आता है।
1 विद्यमानस्यैव वस्तुनः द्रव्यादिभेदात्पृथक्त्वम् । दि० प्र०। 2 अतः परं स्याद्वादी यदुक्तं सौगतेन सर्वे भावाः स्वभावेन द्रव्यादिकारिकाये। तदेव विपरीतव्याख्यानेन खण्डयति =बहिर्भावानाञ्च सदात्मना ऐक्यं द्रव्याद्यात्मना पृथक्त्वम् । एवमेकत्व पृथगैकात्मकमिति स्वस्वभावः सिद्धो ज्ञातव्यः । न पुनः असाधारणं भिन्नम् । कोर्थः सौगताभ्युपगतं व्यावृत्तिलक्षणम् । स्वस्वभावः सिद्धो न । ते न च एकत्वपृथक्त्वलक्षणे न स्वस्वभावानां पदार्थानां व्यवस्थितघटनात । दि० प्र०। 3 स्वरूपम् । दि० प्र०। 4 स्वभावेनानुवत्तिभागिनो न पुनः सर्वथा व्यावत्तिभागिनो यस्मात् । एकत्वेनानेकत्वेन स्वरूपेण । दि० प्र०। 5 यं यमर्थमाश्रित्य । ब्या० प्र०। 6 तं तमर्थमाश्रित्य । दि० प्र० । 7 ज्ञायन्ते । दि० प्र० । 8 वसः । दि० प्र० ।
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