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अष्टसहस्री
[ द्वि० ५० कारिका ३४ कज्ञाननीलादिनिर्भासानां संविदात्मनैकत्वेपि साङ्कर्याप्रसक्तिवत् । नहि तेषामनेकत्वे चित्रज्ञानसिद्धिः सर्वथैकत्ववत् । तत' एव न किंचिद्भिन्नज्ञानं निरंशसंवेदनाद्वैतोपगमादिति चेन्न, तत्रापि 'वेद्याकारविवेकसंविदाकारयोः परोक्षप्रत्यक्षयोरेकसंवेदनत्वेपि सार्यानिष्टेरन्यथा' संविदाकारस्यापि परोक्षत्वप्रसङ्गात् वेद्याकारविवेकवत् । तस्य वा प्रत्यक्षत्वं संविदाकारवत् स्यात् । न चैवं तद्विप्रतिपत्तिविरोधात्' समारोपस्यापि सर्वथाप्यविशेषे क्वचिदेवासंभवा
परस्पर में मिश्रण-ऐक्य के होने पर भी सांकर्य दोष का प्रसंग नहीं आता है जैसे कि एक चित्रज्ञान के नील, पीत आदि प्रतिभास भेदों में संवित्-ज्ञानरूप से एकत्व होने पर भी निरंश संवेदनाद्वैतवादियों के यहाँ सांकर्य दोष का प्रसंग नहीं है।
यदि आप उस चित्र के नीलादि प्रतिभासों को अनेकरूप मानों तब तो एक चित्रज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकेगी, जैसे कि सर्वथा एकत्व सिद्ध नहीं है।
विज्ञानाद्वैतवादी-इसी हेतु से किंचित् भी भिन्न ज्ञान नहीं है क्योंकि हमने निरंशरूप संवेदनाद्वैत को स्वीकार किया है अर्थात् निरंशज्ञान मात्र एक तत्त्व है उससे भिन्न ज्ञान कुछ भी नहीं है।
जैन-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि वहाँ पर भी वैद्याकार से भिन्न संविदाकार है जो कि परोक्ष और प्रत्यक्षरूप है उनमें एक ज्ञानत्व होने पर भी संकर दोष इष्ट नहीं है अर्थात् "वेद्याकार परोक्ष है जैसे यह नील वस्तु है क्योंकि वेद्याकार की अन्यथा उपपत्ति है यह अनुमान सिद्ध है और संविदाकार प्रत्यक्ष है क्योंकि वह अनुभवसिद्ध है। इस प्रकार इन परोक्ष प्रत्यक्षरूप वेद्याकार-संविदाकार में आपने एक ज्ञानत्व स्वीकार किया है उसमें संकर दोष आपको इष्ट नहीं है।
अन्यथा वेद्याकार विवेक के समान संविदाकार भी परोक्ष हो जायेगा अथवा संविदाकार के समान वह वेद्याकार भी प्रत्यक्ष हो जायेगा परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि इनमें विविध प्रतिपत्ति-ज्ञान का विरोध है अर्थात् इन वेद्याकार-संविदाकार में परोक्ष-प्रत्यक्षरूप दो प्रकार के ज्ञान का अनुभव नहीं होता है। और यदि आप समारोप में भी सर्वथा अभेद मानों तब तो किसी वेद्यवेदकाकार विवेक में भी भेद संभव नहीं होगा जैसे कि दोनों में भी भेद के मानने पर किसी संविदाकार में निश्चय असंभव है।
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1 ता। ब्या० प्र०। 2 सर्वथा। ब्या० प्र०। 3 लब्ध्वावसरो योगाचारः प्रत्यवतिष्ठते । ब्या० प्र० । 4 सर्वथाऽनेकाकारचित्रज्ञानस्य सिद्धयभावादेव । ब्या० प्र०। 5 भेद। ब्या० प्र०। 6 परिच्छित्तिः । ब्या० प्र० । 7 सांकर्यस्य दष्टिर्भवति चेत्तदा संविदाकारस्यापि परोक्षत्वमायाति यथा वेद्याकारविवेकस्य । दि० प्र० । 8 संविदाकारस्य परोक्षत्वं वेद्याकारविवेकस्य प्रत्यक्षत्वं एवं न च । एवं भवति चेत्तदा तयोः संविदाकारवेद्याकारयो. विवेकयोः विवादो नास्ति-न घटते-अत्र प्रतिवाद्यभिप्रायं शंकते स्याद्वादी कि शंकते तयोः समारोपोस्तीति चेन्न । तयोर्वेद्याकारविवेकसंविदाकारयोः सर्वथाऽभेदे सति क्वचिदेकत्रांशे समारोपस्य संभवो न घटते। किंवत् निश्चयवत् यथा निश्चयस्य संभवो न घटत इति । दि० प्र० । 9 वेद्याकारसंविदाकारयोनिरंशैकज्ञानेन । दि० प्र० ।
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