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अष्टसहस्री
[ द्वि० प० कारिका ३५
चेत्तर्हि' यतो विवक्षाविशेषादर्थं विवक्षित्वा प्रवर्तमानो' न विसंवाद्यते तद्विषयः कथमसन् भवेत् ?
[ अविवक्षाया विषयोऽसदेवेति बौद्धन मन्यमाने जैनाचार्याः समादधते । ] अविवक्षाविषयोऽसन्नेवान्यथा तदनुपपत्तेरिति चेन्न, सकलवाग्गोचरातीतेनार्थस्वलक्षणेन व्यभिचारात् । सर्वस्य वस्तुनो' वाच्यत्वान्नाविवक्षाविषयत्वमिति चेन्न, नाम्नस्तद्भागानां च नामान्तराभावादन्यथानवस्थानुषङ्गात् । तेषामविवक्षाविषयत्वेपि सत्त्वे कथमन्यदपि
जैन-यदि ऐसी बात है तब तो जिस विवक्षा विशेष से पदार्थ को विवक्षित करके प्रवर्तमान हुआ मनुष्य विसंवाद को प्राप्त नहीं होता है, उस विवक्षा विशेष का विषय कैसे असत्रूप हो जायेगा? अर्थात् वह भी सत्रूप ही रहेगा।
[ अविवक्षा का विषय असत् है ऐसी बोद्ध की मान्यता पर आचार्य समाधान करते हैं। ]
बौद्ध-अविवक्षा का विषय तो असत् ही है । अन्यथा--सत्रूप मान लेने से तो वह अविवक्षा का विषय कैसे कहलायेगा ? अर्थात् "भेदाभेद में किसी एक की विवक्षा करने पर अन्यतर विषय असत् ही हैं क्योंकि वह अविवक्षा के विषय हैं अतएव वे असत् ही हैं । यदि सत्रूप हो जावें तो वे अविवक्षा के विषय नहीं होकर विवक्षा के विषय हो जायेंगे।
जैन-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि सकल वचन के अगोचर स्वलक्षण से व्यभिचार आता है अर्थात् बौद्धों का अर्थ स्वलक्षण अविवक्षा का विषय है फिर भी बौद्ध उस स्वलक्षण को सत्रूप मानते हैं अत: आपके ही इस कथन से व्यभिचार आता है।
शब्दाद्वैतवादी—सभी वस्तुयें शब्द के द्वारा वाच्य हैं इसलिये वे अविवक्षा का विषय नहीं हैं।
जैन-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि नाम-शब्द और उसके भाग-अंशों में नामांतर का अभाव है, अन्यथा अनवस्था का प्रसंग आ जायेगा अर्थात् घट नाम में और घट (घ अट् अ) संबंधी वर्गों में घट नाम से भिन्न पट नाम का और पट के वर्णों का अभाव है। यदि ऐसा नहीं मानोगे तो
1 जैनः। दि० प्र०। 2 अर्थक्रियामिति संबन्धः । दि० प्र०। 3 ता। विवक्षा। दि० प्र०। 4 सौगताभ्युपगतं क्षणक्षयिरूपमर्थसुलक्षणं सकल वाग्विषयरहितमस्ति तदप्यसदस्तु । दि० प्र०। 5 उक्तप्रकारेण । यत एवं तत्तस्मात्सदसत्स्वभावानां विद्यमानानामेव विवक्षाविवक्षाभ्यां सहयोगत: संबन्धः तदथिभिः सद्सद्भ्यां प्रयोजनबद्भिः भिविधीयेत् । अन्यथा असतां धर्माणां विवक्षेतराभ्यां योगः क्रियते चेत्तदाऽर्थनिष्पत्तिन घटते-अर्थक्रियाथिनां सामर्थनिष्पत्तिमनाश्रित्य विवक्षाविवक्षाभ्यां सम्बन्धो न हि संभवत्यत्र प्रतिवादी शंकते । तदभावेप्यर्थ निष्पत्तेरमावेपि विवक्षोतराभ्यां योग: येन केन न स्यात् । अपितु स्यात् । स्याद्वाद्याह अर्थनिष्पत्तेरभावेपि विवक्षेतराभ्यां योग उपचारमात्रं तु स्यान्न तु परमार्थतः । कथं छात्रः कोपेन कृत्वा अग्निरूप इत्युपचारः। स चाग्निर्माणवक: पाकदाहप्रकाशकक्रियायां समर्थो न भवति । दि० प्र० ।
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