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अष्टसहस्री
[ द्वि० प० कारिका ३५
विवक्षाऽविवक्षयोरसद्विषयत्वान्न' तद्वशात्तत्त्वव्यवस्था युक्तेति मन्यमानं प्रत्याहुः सूरयः।
विवक्षा चाविवक्षा च 'विशेष्येऽनन्तमिणि ।
सतो विशेषणस्यात्र 'नासतस्तैस्तथिभिः ॥३॥ क्रियते इति शेषः । विशेष्योर्थस्तावदनन्तधर्मा प्रागुक्तः । तत्र' कस्यचिद्विशेषणस्यैकत्वस्य सत एव विवक्षा पृथक्त्वस्य च सत एव वाऽविवक्षा, न पुनरसतः क्रियते तैः प्रतिपत्तभिरेकत्वपृथक्त्वाभ्यामथिभिः, सर्वथा तत्र कस्यचिदर्थित्वार्थित्वयोरसंभवात्, तस्य सकलार्थक्रियाशक्तिशून्यत्वात् खरविषाणवत् ।
उत्थानिका-विवक्षा और अविवक्षा असत् को विषय करती हैं इसलिये उनके निमित्त से तत्त्व की व्यवस्था करना युक्तियुक्त नहीं है इस प्रकार से मानने वाले बौद्धों के प्रति स्वामी श्री समंतभद्राचार्यवर्य कहते हैं
अनंतधर्मा वस्तू में ही, घटे विवक्षा अविवक्षा। ये दोनों सत्रूप विशेषण, को कहती न असत् इच्छा ॥ अर्थी करें विवक्षा तथा, अनर्थी अविवक्षा करते।
सत् वस्तू में ही दोनों हैं, असत् वस्तु में नहिं घटते ।।३५।। कारिकार्थ-अनंतधर्मात्मक जीवादि पदार्थरूप विशेष्य में एकत्वानेकत्वरूप विशेषणों के इक विद्वानों द्वारा सत्स्वरूप विशेषण की ही विवक्षा और अविवक्षा की जाती है, असतरूप विशेषण की नहीं की जाती है ।।३।।
क्रियते' यहाँ कारिका में इस क्रिया का अध्याहार समझना। विशेष्य-पदार्थ अनंतधर्मात्मक हैं ऐसा पहले "धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थः" इस कारिका में कह दिया है। एकत्व-पृथक्त्व धर्मों के द्वारा वस्त को जानने के अर्थी—इच्छुक विद्वानों द्वारा उस धर्मी में किसी सत्रूप ही एकत्व विशेषण की विवक्षा अथवा किसी सत्रूप ही पृथक्त्व विशेषण की अविवक्षा की जाती है किन्तु सर्वथा असत्रूप विशेषणों की विवक्षा और अविवक्षा नहीं की जाती है। सर्वथा असत् में किसी भी पुरुष की इच्छाअनिच्छा का होना ही असंभव है क्योंकि सर्वथा असत् वस्तुयें सकल अर्थक्रिया की शक्ति से शन्य हैं। जैसे खरविषाण असत् होने से संपूर्ण अर्थक्रिया की शक्ति से रहित है।
1 अत्राह, तिवादी विवक्षाऽविवक्षा चासत्त्वविषया अवस्तुभूता। अतः कारणात् । तद्विवक्षाऽविवक्षावशात् तयोरक्यपृथक्त्वयोर्व्यवस्था युक्ता न भवतीति जानन्तं प्रतिवादिनं प्रति आचार्या: प्राहुः कारिकाम् । दि० प्र० । 2 तद्वशातदयवस्था इति पा० । दि० प्र० । 3 क्रियत इति शेषः । वक्तूमिच्छा । दि० प्र०। 4 धर्मे धर्मेन्य एवार्थ इति श्लोके निरूपितरूप। दि० प्र०। 5 प्रतिपतृभिः । ब्या० प्र० । तथाथिभिरिति पाठः । दि० प्र० । 6 अध्याहारः । दि० प्र०। 7 एकत्वेनासति वस्तुनि । दि० प्र०। 8 सर्वथा तत्रासत्त्वे कस्यचिद्विशेषणस्य विवक्षाविवक्षे न संभवतः । दि० प्र० ।
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