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अनेकांत की सिद्धि ।
तृतीय भाग
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पृथक्त्वैकत्वरूप अनेकांत की सिद्धि का सारांश यद्यपि पूर्व की कारिकओं द्वारा सर्वथा एकत्व एवं सर्वथा पृथक्त्व का खण्डन किया गया है फिर भी उसे ही दृढ़ करने के लिये अनेकांत की सिद्धि करते हैं क्योंकि जाने हुये को भी पुनः विशेषतया जानने के लिये हम जैनों ने प्रमाणसंप्लव को दोष नहीं माना है अतएव परस्पर निरपेक्ष पृथक्त्व एवं एकत्व नहीं है।
जीवादि वस्तु सापेक्ष सत् एकत्वरूप हैं क्योंकि कथंचित् एकत्व का अनुभव आ रहा है तथैव वे ही जीवादि वस्तु कथंचित् पृथक्त्वरूप हैं क्योंकि कथंचित् भेदरूप से प्रतीति है अतएव पक्षधर्मादिरूप एक हेतु के समान सभी जीवादि पदार्थ कथंचित् भेदाभेदात्मक हैं। एक में अनेक की कल्पना तो सभी ने किसी न किसी रूप से मानी ही है जैसे
विज्ञानाद्वैतवादी के यहाँ अन्वय, व्यतिरेक के द्वारा हेतु को न मानते हुये संवेदनाद्वैत को स्वीकार करते हुये नीलादि प्रतिभासरूप परस्पर निरपेक्ष भेदों से विशिष्ट चित्रज्ञान एकरूप सिद्ध है । वेद्य वेदकाकार से भेदरूप होकर भी ज्ञान से एकरूप विज्ञानाद्वैत भी सिद्ध है तथैव वेदांतवादी हेतु को न मानकर अद्वैत पुरुष को ही मानते हैं फिर भी पुरुष शब्द या ज्ञानज्योति आकार भेदवाला है एवं विद्या और अविद्यारूप अनेक भेद वाला है। वैशेषिक अपने भिन्न-भिन्न अवयवों से निर्मित अवयवी एक मानते हैं तथा सांख्य सत्त्व, रज, तम से एक प्रधानरूप वस्तु को मानते हैं ।
हेतु भी पक्षधर्मादि से सहित है। तथैव जीवादि वस्तु कथंचित् द्रव्य की अपेक्षा एकरूप हैं । तथा पर्यायों की अपेक्षा से अनेक रूप हैं।
बौद्ध कहता है कि एकत्व के निमित्त से पृथक्त्व एवं पृथक्त्व के निमित्त से एकत्व के होने से ये दोनों ही अन्योन्याश्रित होने से विषयरहित शून्य हैं।
__ इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि सत्सामान्य की अपेक्षा से सभी वस्तु एकत्वरूप हैं एवं द्रव्यादि के भेद की विवक्षा से सभी वस्तुयें भेदरूप हैं ये एकत्व-पृथक्त्व ज्ञान निविषयक नहीं है। सभी पदार्थ भिन्न-भिन्न-अमिश्रित स्वभाव वाले ही हैं ऐसा एकांत नहीं करना क्योंकि कथंचित् भिन्नभिन्न पदार्थों में भी सत्सामान्य स्वभाव से स्वभावभेद नहीं है सभी पदार्थ सतरूप हैं ऐसा अनुभव अबाधित है अतः स्वभावभेद के न होने से सभी जीवादि पदार्थ एकत्वरूप हैं यह कथन ठीक ही है। हमारे यहाँ परस्पर मिश्रण दोष नहीं आता है जैसे कि चित्रज्ञान के नील पीतादि प्रतिभास भेदों में ज्ञान से एकत्व है।
सार का सार-आचार्यों का कहना है कि सभी वस्तु कथंचित् एक हैं क्योंकि सतरूप हैं अथवा द्रव्यरूप हैं इत्यादि, एवं सभी वस्तु कथंचित् पृथक-पृथक हैं क्योंकि उन-उन का अस्तित्व अलग-अलग है । अवांतर सत्ता से सभी वस्तुओं का अस्तित्व पृथक हैं अतः सभी वस्तुयें भिन्न-भिन्न हैं यह सब कथन स्याद्वाद प्रक्रिया बिना दुर्घट है।
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