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अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग
[ ८१ ततो यो येन धर्मेण विशेषः संप्रतीयते । न स शक्यस्ततोन्येन', तेन भिन्ना व्यवस्थितिः॥३॥" इति ।
[ अधुना बौद्धस्य पक्षं निराकुर्वन्ति जैनाचार्याः । ] अत्राभिधीयते । जीवादिभेदानामैक्यं, यथैकभेदस्य स्वभावविच्छेदाभावात् । न हि स्वभावविच्छेदाभावादृते नीलस्वलक्षणस्य' संवेदनस्य वा कस्यचिदेकस्य स्वयमिष्टस्याप्येकत्वनिबन्धनं किंचिदस्ति । नापि कथंचिद्धिन्नानामपि भावानां सत्सामान्यस्वभावेन' विच्छेदोस्ति, तथा विच्छेदाभावस्यानुभवात् । अन्यथकं सदन्यदसत् स्यात् । ततः समञ्जसं सर्वमेकं सदविशेषादिति', सदात्मना सर्वभावानां परस्परमिश्रणेपि' साङ्कर्याप्रसक्तेः10 चित्र
श्लोकार्थ—इसलिये जो जिस भेद लक्षण धर्म से विशेषरूप प्रतीति में आता है, उसको अन्य से निश्चित करना शक्य नहीं है। इस कारण से उनकी भिन्न-भिन्न ही व्यवस्था है ।।३।।
[ इस प्रकार से बौद्धों के पूर्वपक्ष का जैनाचार्य खण्डन करते हैं। ) जैन-जीवादि भेदों में एकत्व है, "जिस प्रकार से एक भेद में स्वभाव-विच्छेद का अभाव होने से एकत्व है उसी प्रकार से जीवादि वस्तुओं में भी ऐक्य है" क्योंकि स्वभाव विच्छेदाभाव के बिना स्वयं एकरूप से इष्ट भी किसी नीलस्वलक्षण अथवा संवेदन में एकत्व का कारण अन्य कुछ नहीं है। अर्थात् नीलस्वलक्षण अथवा चित्रज्ञान एक हैं क्योंकि उनमें स्वभाव विच्छेद का अभाव है। "मतलब यह है कि यह स्वभाव विच्छेदाभाव ही इनमें ऐक्य की व्यवस्था करता है, अन्य कोई नहीं करता है। [ स्वभाव विच्छेद के अभाव से नीलस्वलक्षण और ज्ञान में ऐक्य निमित्त हो जावे किन्तु भिन्न पदार्थों में नहीं है कारण कि उनमें विच्छेद पाया जाता है ऐसी शंका होने पर आचार्य उत्तर देते हैं । ]
कथंचित् भिन्न पदार्थों में भी सत्सामान्य स्वभाव से स्वभावविच्छेद-स्वभावभेद नहीं हैं क्योंकि सभी में सत्रूप से भेद का अभाव-अभेद अनुभव में आ रहा है।
"अन्यथा-यदि ऐसा नहीं मानों तो एक पदार्थ सत और अन्य सभी पदार्थ असत् हो जायेंगे, सभी पदार्थ सत्रूप ही नहीं रहेंगे इसलिये स्वभावभेद का अभाव होने से "सभी जीवादि वस्तु एक हैं" यह कथन समंजस है क्योंकि सभी में सत्स्वरूप समान ही है।" एवं सत्सामान्य से सभी पदार्थों में
1 भेदलक्षणात् । अभेदरूपेण धर्मेण । अन्येन संप्रत्येतं न शक्य इति संबन्धः । दि० प्र०। 2 परित्यागः । दि० प्र० । 3 स्याद्वादी वदति हे सौगत ! नीलार्थस्य बहितत्त्वस्य नीलज्ञानस्यान्तस्तत्त्वस्य वा एकस्य कस्यचित्स्वयं सौगतैरभ्युपगतस्य स्वभावं विना अन्यत् किञ्चिदेकत्वकारणं न ह्यस्ति । दि० प्र०। 4 बाह्य । दि० प्र० । 5 अन्त । दि० प्र० । 6 कथञ्चित् पृथग्भूतानामपि पदार्थानां सत्सामान्यस्वभावेन कृत्वा पृथक्त्वं नास्ति कस्मात् । तथा सत्सामान्यस्वभावेन विच्छेदाभावो तु भूयते यतः भन्यथा सत्सामान्येन विच्छेदाभावो नानुभूयते चेत्तदा एक घटादिवस्तु सत्त्वं भवति । अन्यत्पटादिवस्त्वसत्त्वं भवति। दि० प्र०। 7 कृत्वा । ब्या० प्र० । 8 एतत् । दि० प्र० । 9 सदात्मना ऐक्येऽपि । ब्या० प्र०। 10 सांकयं न प्रसजति यतः। दि० प्र० ।
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