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अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग
[ ७६ माश्रित्यानुभूयते । ततो' न पृथक्त्वप्रत्ययोपि निविषयः, तस्य द्रव्यादिभेदविषयत्वादिति निवेदितं बोद्धव्यम् । हेतुरत्र ज्ञापकः कारकश्चोच्यते । स चासाधारणो यथास्वं प्रवादिभि. विशेषेणेष्टत्वात् । स च यथा स्वभेदानां पक्षधर्मत्वादीनां स्वारम्भकावयवादीनां वा विवक्षायां पृथगेव हेतुत्वेन घटावयव्यादित्वेन वा 'तदभेदविवक्षायामेक एव तथा सर्व विवादाध्यासितमिति दृष्टान्तदाष्र्टान्तिकघटनात् ।
विषय करता है। एवं सभी जीवादि वस्तुयें द्रव्यादि पदार्थों के भेद का आश्रय लेकर पृथक्भिन्न-भिन्नरूप अनुभव में आ रही हैं इसलिये पृथक्त्व ज्ञान भी निविषय नहीं है क्योंकि वह द्रव्यादि के भेदों को विषय करता है इस प्रकार कहा गया समझना चाहिये। यहाँ हेतु से ज्ञापक और कारकरूप दोनों हेतु ग्रहण किये गये हैं अर्थात् हेतु के दो भेद हैं-ज्ञापक और कारक अनुमान प्रकरण के हेतुओं को ज्ञापक हेतु कहते हैं यथा-अग्नि को सिद्ध करने में "धूमवत्वात् हेतु" और मुहूर्त के पहले भरणि नक्षत्र के उदय को सिद्ध करने में कृत्तिका का उदयरूप हेतु। ये हेतु मात्र अपने साध्य को बतलाने वाले हैं। तथा कार्य करने वाले साधनों को कारक हेतु कहते हैं। जैसे कि धूम का कारक हेतु अग्नि है । एवं घट का कुम्हार मिट्टी दण्डादि ।
__ कहीं-कहीं कारक हेतु साध्य हो जाता है । उस कारक हेतु का कार्य ज्ञापक हेतु बन जाता है। जैसे "पर्वतो वन्हिमान् धूमात्" यहाँ कारकहेतुरूप अग्नि को साध्य बनाया है और अग्नि के कार्यरूप धूम को ज्ञापक हेतु बनाया है और वह असाधारणहेतु अपने स्वरूप का उलंघन न करके प्रवादियों को विशेषरूप से इष्ट है। जिस प्रकार से वह हेतु ज्ञापक हेतु के पक्ष में पक्ष धर्मत्व आदि अपने भेदों की विवक्षा से हेतुरूप से पृथक्-भिन्न ही है। और वही हेतु अभेद विवक्षा से विवक्षित होने से एक ही है। अथवा कारक हेतु के पक्ष में अपने घट आदि के आरम्भक द्वयणुक, व्यणुक आदि अवयवों की अपेक्षा से पृथक ही है एवं घटादि अवयवीपने से उस अभेद विवक्षा से विवक्षित होने पर वे घटादि एक ही हैं । अर्थात् हेतु हेतुसामान्य से एकरूप है और पक्षधर्मत्व आदि की अपेक्षा से तीन आदि भेदरूप हैं अतः हेतु एकत्व और पृथक्त्व धर्म से सहित है यह उदाहरण ज्ञापक हेतु की अपेक्षा है। वैसे ही घट आदि अवयवी की अपेक्षा एक हैं अवयवों की अपेक्षा पृथक-पृथक् है अतः इसमें भी एकत्वपृथक्त्व धर्म हैं यह उदाहरण कारक हेतु अपेक्षा से है। उसी प्रकार से विवाद की कोटि में आये हुये सभी जीवादि वस्तु एकानेकरूप ही हैं।
इस प्रकार से दृष्टांत और दाष्टांत की व्यवस्था सुघटितरूप है ।
1 गुणादि । दि० प्र०। 2 पृथक्प्रत्ययस्य । दि० प्र० । 3 स चासाधारणहेतुः यथाऽऽत्मभेदानां पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वविपक्षव्यावृत्त्यादिलक्षणानां ज्ञापकः । स्वारंभकावयवादीनामुत्पादकः सन्निति विवक्षायां जाप्तायां सत्यां पृथक्त्वमेव । दि० प्र०। 4 सत्त्वरजस्तमः । ब्या०प्र०। 5 भेदो भिन्न इत्यर्थः । ब्या० प्र०। 6 आदिशब्दत्वेन प्रधानत्वेन । ब्या० प्र०। 7 ज्ञापकहेतोः कारकहेतोश्च । ब्या० प्र०। 8 संभवः । ब्या० प्र०।
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