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अष्टसहस्री
[ दि १० कारिका २८
यौगाभिमत पृथकत्वकांत खण्डन का सारांश
योग के २ भेद हैं वैशेषिक एवं नैयायिक । वैशेषिक यहाँ द्रव्य, गुण, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये कर्म पदार्थ भिन्न-२ ही हैं । नैयायिक के प्रमाण, प्रमेय आदि १६ पदार्थ सर्वथा पृथक्पृथक हैं । इन दोनों का कहना है कि पृथक्त्वगुण के योग से पदार्थ पृथक्-पृथक हैं अर्थात् द्रव्य आदि में समवाय संबन्ध से पृथक्त्वगुण रहता है । यह पृथक्त्वगुण अथवा अन्य संयोगादि गुण सभी पदार्थों से पृथक् हैं एवं स्वयं में निरंश होकर भी अनेक द्रव्यों में निष्पर्यायरूप से रहते हैं जैसे गगन, दिशा, काल आदि अनंश एक हैं फिर भी अनेक देश में रहते हैं अथवा सत्ता एक निरंश है एवं युगपत् अनेक में रहती हैं । तथैव संयोग, विभाग परत्वापरत्व एक होते हुये भी युगपत् अनेकानुगत है एवं संयोग आदि जिसमें रहते हैं वे परिणामी हैं तथा संयोग आदि उनके परिणाम हैं।
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस पृथक्त्वकांत पक्ष में पृथक्त्वगुण से पदार्थों को भिन्न-भिन्न मानने पर तो प्रश्न यह होता है कि यह पृथक्त्वगुण पृथक्भूत पदार्थों से पृथक् है या अपृथक्-अपृथक् तो आप कह नहीं सकते क्योंकि आपने गुण और गुणी में सर्वथा भेद ही माना है, पृथक् कहते हैं तब तो पृथक पदार्थों से पृथक्गुण भिन्न ही रहा पुनः उन द्रव्य, गुण, पदार्थों में अपृथक्पने का प्रसंग आ गया। इस पर यदि आप वैशेषिक यह कहें कि पृथक्गुण उन पदार्थों का है इसलिये “पृथक्" यह ज्ञान उस पृथक्त्वगुण के आधीन है अतः अभिन्नता का दोष नहीं आता है इस कथन से तो वह पृथक्गुण द्रव्य से कथंचित् अपृथक् होकर तादात्म्य बन जाता है क्योंकि भिन्न में अन्य सम्बन्ध संभव नहीं है जो आपने समवाय से सम्बन्ध कहा है वह समवाय भी तो "कथंचित् तादात्म्य" को छोड़कर अन्य कुछ संभव नहीं है । तथा जो आपने गुणों को निरंश एक सिद्ध किया है वह तो सर्वथा ही अघटितरूप है क्या एक निरंश परमाणु एक साथ अनेक देशस्थ हिमवन् विंध्याचल आदिकों में रह सकता है ? जो उदाहरण में आपने आकाश, काल कहे हैं वे भी गलत हैं। आकाश एक होकर भी निरंश नहीं है प्रत्युत अनंत प्रदेशी है तथैव कालाणु भी असंख्यात हैं, त्रिकाल समय की अपेक्षा से तो अनंतानंत है तथा आकाश तो किसी के आश्रय न होने से उसका समवाय सम्बन्ध से कहीं पर रहना शक्य नहीं है। सत्ता को भी हम जैनों ने अनंतपर्याय वाली मानी है तथा सत्ता को भी हमने समवाय से कहीं पर
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