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अष्टसहस्री
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[ द्वि० प० कारिका २६ कारणभावस्तत्प्रभृतितस्तस्याव्यभिचारादन्यथा' बुद्धचित्तस्यासर्वज्ञत्वप्रसङ्गात् । नाऽननुकृतान्वयव्यतिरेक कारणं, नाकारणं विषय इति वचनात् । स्यान्मतं, येषामग्राह्यग्राहकत्वे सत्यऽव्यभिचारी कार्यकारणभावस्तेषामेकसंतानत्वोपगमान्न दोष इति चेत्तदप्ययुक्तं, समनन्तरप्रत्ययेनापि सह बुद्धचित्तस्यैकसंतानतापायप्रसक्तेः', तस्य' बुद्धचित्तनाग्राह्यत्वे तस्यासर्ववेदित्वापत्तेः । समनन्तरप्रत्ययस्य समनन्तरत्वादेव बुद्धचित्तेन सहैकसंतानत्वमिति चेत्
जैन-यह कथन भी अयुक्त ही है। समनंतरप्रत्यय के साथ भी बुद्ध के चित्त में एक संतानत्व के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है अर्थात् कार्यभूत उत्तर ज्ञान क्षण कारणभूत बुद्ध के चित्तक्षण को ग्रहण करता है क्योंकि वह उससे उत्पन्न हुआ है। इसे समनंतरप्रत्यय कहते हैं।
उस समनंतर प्रत्यय को बुद्ध के चित्त से ग्राह्य न मानने पर उस बुद्ध चित्त को असर्वज्ञपने का प्रसंग आ जाता है। मतलब यह है कि बुद्ध चित्त जिस पूर्वक्षण से उत्पन्न हुआ है उसको नहीं जाना अतः उसके न जानने से "सर्वं जानाति इति सर्वज्ञः" इस प्रकार से सभी जानने वाला सर्वज्ञ नहीं हो सकेगा।
बौद्ध-पूर्व के ज्ञानक्षणरूप समनंतरप्रत्यय में समनंतरपना होने से ही बुद्ध चित्त के साथ एक संतानत्व सिद्ध है।
जैन-यदि ऐसी बात है तो बताओ! उसमें समनंतरपना कैसे है ?
बौद्ध-वह उत्तरचित्त कार्य के प्रति अव्यभिचारी कारण है अतः उसमें समनंतरपना संभव है।
जैन-ऐसा नहीं कह सकते। अन्यथा सभी पदार्थों को उसके समनंतरत्व का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा अर्थात् बुद्ध चित्त की उत्पत्ति में सभी पदार्थ सामान्यरूप से कारण हैं अतः सभी पदार्थ अपने पूर्व क्षण के समान समनंतर रूप ही हो जायेंगे क्योंकि बुद्ध का चित्तक्षण सभी को जानता है अतः पदार्थों से ही उसकी उत्पत्ति मान लेना चाहिये।
1 कार्यकारणभावस्य व्यभिचारो न । दि० प्र० । 2 बुद्धचित्तस्यापि सन्तान्तरचित्तकारणे सर्वज्ञत्वप्रसंगात् इति पा० । दि० प्र०। 3 अनुगतत्वरहितं यदन्वयव्यतिरेकं तत्कारणं न भवति विषयः कार्यमकारणं नयकारणकमेव कोर्थः कारणात्कार्य जायते । दि. प्र० । 4 उपादानोपादेयक्षणानामेवैकसन्तानत्वं ततो बुद्धतरचित्तक्षणानां न तदिति चेत् न । सजातीयोत्पादादन्यस्योपादानोपादेयभावस्यानिष्टेस्तस्यचात्रापि भावात्सर्वसाक्षात्कारि तद्विपरीतचित्तक्षणयोविजातीयत्वादनुपादानोपादेयभाव इति चेन्न निराश्रवचितोत्पात प्राक्तन समनन्तरचित्तक्षणेन सह निराश्रवचित्तस्योपादानोपादेयभावप्रसंगात् । दि० प्र० । 5 ज्ञानोत्पत्तौ । ब्या० प्र० । येषां जनानां चित्तस्य ग्राह्यग्राहकत्वं नास्तिज्ञानाभावात् किन्तु संसारिणाम् । दि०प्र०। 6 तत्र ग्राह्यग्राहकत्वेपि एकसन्तानत्वं वर्तते तन्मास्तु । ब्या०प्र० । 7 समनन्तरप्रत्ययस्य । दि० प्र०। 8 बुद्धिचितं तस्य समनन्तरप्रत्ययस्य ग्राहकं न भवति चेत्तदा बुद्धचित्तस्य सर्वजत्वमापद्यते । दि० प्र० ।
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