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उभय एकांत का खण्डन ]
तृतीय भाग
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'एवं तर्हि' मा भूत् पृथक्त्वैकान्तोऽद्वैतैकान्तवदशक्यव्यवस्थापनत्वात् । तदुभयैकात्म्यं तु श्रेय इति मन्यमानं वादिनं सर्वथा वाऽवाच्यं तत्त्वमातिष्ठमानं प्रत्याहु:विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्तेप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ ३२ ॥
'अस्तित्वनास्तित्वकत्वानेकत्ववत् पृथक्त्वेतर परस्पर प्रत्यनीकस्वभावद्वयसंभवोपि भूद्विप्रतिषेधात् । न खलु सर्वात्मना विरुद्धधर्माध्यासोस्ति' तदन्योन्यविधिप्रतिषेधलक्षणत्वाद्व न्ध्यासुतवत् । यथैव हि वन्ध्याया विधिरेव तत्सुतप्रतिषेधः स एव वा वन्ध्याया विधिरिति
उत्थानिका— तब तो इस प्रकार से अद्वैत के समान सर्वथा द्वैतरूप पृथक्त्वैकांत पक्ष मत होवे क्योंकि उसकी व्यवस्था करना अशक्य है किन्तु उभयैकात्म्यवाद ही श्रेयस्कर हैं क्योंकि इस मान्यता में एक ही वस्तु में गुण और गुणी का पृथक्त्व अथवा अपृथक्त्वरूप एकात्म्य मौजूद है । इस प्रकार से मानने वाले मीमांसक के प्रति अथवा सर्वथा तत्त्व "अवाच्य” ही है ऐसा मानने वाले सौगत के प्रति स्वामी श्री समंतभद्राचार्यवर्य कहते हैं
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ये एकत्व, पृथक्त्व, उभय, आपस में नित्य विरोधी हैं । स्याद्वाद विद्वेषी के ये, उभय तत्त्व निरपेक्ष रहें || यदि दोनों हैं "अवाच्य" द्वैताद्वैत कथन नहि हो युगपत् ।
तब निरपेक्ष "अवाच्य" यही वच, कैसे होवेगा सुघटित ||३२||
मा
कारिकार्थ- - स्याद्वाद न्याय से द्वेष रखने वाले एकांतवादियों के यहाँ उभयैकात्म्य भी सिद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि पृथक्त्वकांत एवं अपृथक्त्वकांत इन दोनों का परस्पर में विरोध है । यदि आप कहें कि हम तत्त्व को एकांत से अवाच्य मानते हैं तब तो "अवाच्य" यह कथन भी नहीं बन सकेगा । ॥३२॥
" जैसे अस्तित्व, नास्तित्व एवं एकत्व, अनेकत्व परस्पर में विरुद्ध स्वभाव वाले हैं, अत: एकत्र वस्तु में संभव नहीं हैं तथैव पृथक्त्व और अपृथक्त्व भी परस्पर में विरुद्ध द्वय स्वभाव वाले हैं अत: ये भी दोनों एक साथ एक धर्मी में संभव नहीं हैं क्योंकि विरोध देखा जाता है । निश्चय से सर्वरूप से धर्म और धर्मो की अपेक्षा से विरुद्ध धर्माध्यास नहीं है अर्थात् एक ही वस्तु में कथंचित् पृथक्त्व, अपृथक्त्व
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1 पृथक्त्वैकान्ते पृथक्त्वगुणस्य सन्तानादेश्वाभावो यदि स्यात् । ब्या० प्र० । 2 अत्राह कश्चिदुभयैकात्म्यवादी हे स्याद्वादिन् अणुमानं शृणु पृथक्त्वैकान्तः पक्षः नास्तीति साध्यो धर्मोऽशक्यव्यवस्थापनत्वात् यथाऽद्वैतं कान्तस्तस्मात्सर्वथा पृथगक्यात्म्यं श्रेयः निर्दोषम् । इति मन्यमानं प्रतिपादनं सर्वथाऽवाच्यस्वरूपं तत्त्वं ब्रुवन्तं प्रतिवादिनं स्वामिनः प्राहुः । दि० प्र० । 3 अस्तित्वना स्तित्व कत्वाने कत्वपृथक्त्वेत रपरस्यरेति । पाठान्तरम् । ब्या० प्र० । 4 अद्वैतम् । दि० प्र० । 5 एकधर्मिणि । व्या० प्र० ।
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