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अष्टसहस्री
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[ द्वि० ५० कारिका २८ इष्टमद्वैतकान्तापवारण', पृथक्त्वैकान्ताङ्गीकरणादिति माऽवदीधरत् । यस्मात्,
*पृथक्त्वैकान्तपक्षेपि पृथक्त्वादपृथक् तु तौ ।
पृथक्त्वे न पृथक्त्वं स्यादनेकस्थो ह्यसौ गुणः ॥२८॥ पृथगेव' द्रव्यादिपदार्थाः प्रमाणादिपदार्थाश्च, पृथक्प्रत्ययविषयत्वात् सह्यविन्ध्यवदित्ये
[ यौगाभिमत पृथक्त्वगुण का खण्डन ] अब यहाँ नैयायिक और वैशेषिक कहते हैं कि
"अद्वैतकांत का निराकरण करना तो हमें इष्ट ही है"। क्योंकि हमने पृथक्त्वैकांत-सर्वथा भेद को ही स्वीकार किया है। परन्तु जैनाचार्य इस पृथक्त्वैकांत का भी अवधारण नहीं करते हैं। क्योंकि
इस पृथक्त्वैकांत पक्ष में, द्रव्य गुणों से पृथक्त्व गुण । अपृथक् है या पृथक् कहो यदि, अपृथक् है तब पक्ष अघट ।। यदी कहो यह द्रव्य गुणों से, अलग पड़ा तब सिद्ध नहीं।
क्योंकि एक अनेकों में यह, रहता अतः असिद्ध सही ।।२८।। कारिकार्थ-पृथक्त्वैकांत पक्ष में भी पृथक्त्वगुण से पदार्थों को भिन्न मानने पर पृथक् पृथक् रूप रहे हुये पदार्थ अथवा गुण और गुणी सब अपृथक्-अभिन्न हो जायेंगे। एवं सभी को पृथक्त्व-भिन्न-भिन्न मानने पर पृथक्त्वगुण की सिद्धि नहीं हो सकेगी-क्योंकि यह पृथक्त्व गुण अनेक पदार्थों में रहने वाला माना गया है ॥२८॥
"द्रव्यादि सात पदार्थ एवं प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थ पृथक ही हैं क्योंकि वे पृथक्, प्रत्यय-ज्ञान के विषय हैं । जैसे कि सह्य और विंध्य पर्वत । इस प्रकार का एकांत पृथक्त्वैकांत कहलाता है, तथा बाह्य और अन्तरंग परमाणु सजातीय विजातीय से व्यावृत्त एवं निरन्वय विनश्वर ही है, इस प्रकार का अभिप्राय भी पृथक्त्वैकांत कहलाता है। इन तीनों पक्ष में द्रव्य, गुण, कर्म आदि को पृथक्-पृथक् मानने वाले वैशेषिक हैं। प्रमाण प्रमेय आदि को पृथक्-पृथक् मानने वाले नैयायिक हैं एवं बाह्य परमाणु और ज्ञान परमाणुओं को पृथक्-पृथक् मानने वाले सौगत हैं।
1 यदाचार्यैः सर्वथकान्तं निराकृतम् । तदा पृथक्त्वैकान्तवादी योगादिर्वदति कि इत्युक्त अद्वैतैकान्तवर्जनमस्माकमिष्टं कस्मात्पृथक्त्वैकान्ताभ्युपगमात् । स्याद्वाद्याह हे पृथकत्वैकान्तवादिन् ! भवान् इति स्वमनसि मा धरति स्म । दि० प्र०। 2 भिन्नत्व । दि० प्र०। 3 द्रव्यादयः षडेव पदार्थाः परस्परं भिन्ना इति भेदकान्तपक्षे । दि० प्र० । 4 अभिन्नी। दि० प्र०। 5 द्रव्यगुणौ। ब्या० प्र०। 6 गुणः । दि० प्र०। 7 स्वयमेकः सन् । दि० प्र० । 8 यस्मात् । दि० प्र०। 9 'द्रव्याश्रया णा गुणाः' इति सूत्रवचनात् । दि० प्र० ।
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