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ब्रह्माद्वैतवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग
[ २६
विषयत्वमयुक्तं, विद्यावदविद्याया अपि कथंचिद्वस्तुत्वात् । तथा 'विद्यात्वप्रसङ्ग इति चेन्न किंचिदनिष्टं, यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणतेत्यकलङ्कदेवैरप्युक्तत्वात् । बहिःप्रमेयापेक्षया तु कस्यचित्संवेदनस्याविद्यात्वं बाधकप्रमाणावसेयम् । कथमप्रमाणविषयः ? तद्बाधकं पुनरर्थान्यथात्वसाधकमेव प्रमाणमनुभूयते इति वस्तुवृत्तमपेक्ष्यवाविद्या निरूपणीया । न च कथंचिद्विद्यावतोप्यात्मनः प्रतिपत्तुरविद्यावत्त्वं विरुध्यते, यतोयं महान् दोषः स्यात् । नाप्यविद्याशून्यत्वे कथंचिद्विद्यानर्थक्यं प्रसज्यते, तत्फलस्य सकलविद्यालक्षणस्य भावात् । न चाविद्यायामेव स्थित्वाऽस्येयमविद्येति' कल्प्यते, सर्वस्य विद्यावस्थायामेवाविद्येतरविभाग
क्योंकि बाह्यप्रमेय की अपेक्षा से किसी संवेदन (सीपादि में रजतादि ज्ञान) को अविद्यापना है, वह बाधक प्रमाण से जाना जाता है पुनः वह अविद्या अप्रमाण का विषय कैसे हो सकती है ? अर्थात् केवल अंतःप्रमेय की अपेक्षा से ही वह अविद्या प्रमाण का विषय नहीं है किंतु बहिःप्रमेय की अपेक्षा से वह प्रमाण का विषय है अतएव वह अविद्या सर्वथा प्रमाण का अविषय नहीं है क्योंकि अंतःप्रमेय की अपेक्षा से कोई अविद्या है ही नहीं। मतलब समस्त ज्ञान अपने-अपने विषय में प्रमाण भूत माने गये हैं। बहिःप्रमाण की अपेक्षा से ही विद्या और अविद्या की व्यवस्था मानने में आई है अतएव किसी अपेक्षा से अविद्या ही वस्तुभूत है सर्वथा प्रमाणातिक्रांत-तुच्छाभावरूप नहीं है।
अद्वैतवादी-उस अविद्या को बाधित करने वाला प्रमाण कौन है ?
जैन-पदार्थ को अन्यथा विपरीतादिरूप सिद्ध करना ही उसका बाधक प्रमाण है जो कि अनुभव में आता रहता है । अर्थात् पदार्थों का जैसा प्रतिभास हो रहा है उससे भिन्न उसको समझना या उसमें संशय आदि करना ही तो अज्ञान या मिथ्याज्ञान है और उसका गलत प्रतिभास उसके लिये बाधक प्रमाण है इसलिये वस्तुभूत-परमार्थपने की अपेक्षा करके ही अविद्या का निरूपण करना चाहिये।
कथंचित् विद्यावान भी प्रतिपत्ता आत्मा का अविद्यावान होना विरुद्ध नहीं है, जिससे कि पूर्वोक्त महान दोष आवे एवं अविद्या से शून्य (सम्यग्मति-श्रुतज्ञान से सहित) मनुष्यों में भी कथंचित् विद्या की अनर्थकता का प्रसंग भी नहीं आता है क्योंकि सकल विद्या लक्षण उसका फल मौजूद है अर्थात् सच्चे मति, श्रुतज्ञान का फल पूर्ण मतिज्ञान श्रुतज्ञानरूप है। अविद्या में ही स्थिति होकर
1 अत्राह द्वैतवादी हे द्वैतवादिन् ! अविद्यायाः प्रमाणविषयत्वे सति तस्या विद्यात्वं प्रसजति । दि० प्र० । 2 अविद्यायाः स्वरूपे । ब्या० प्र०। 3 असत्यत्वम् । ब्या० प्र०। 4 शक्तिका शकले रजतज्ञानमविद्या पश्चान्निश्चिते सति ममाविद्या उत्पन्ना इति बाधकप्रमाणेन निश्चीयते । दि० प्र० । 5 मरीचिकादौ तोयादिज्ञानमविद्यात्वं तेन गृहीतोर्थः असत्यभूतस्तस्य अन्यथात्वस्य सत्यभूतस्य साधकम् । अन्यथात्वसाधकमेवज्ञानं तस्याविद्यात्वस्य बाधकं निश्चीयते इति अविद्यावस्तुभूतैव कथनीया इति स्याद्वादिमतम् । दि० प्र०। 6 तस्य भविद्याशन्यत्वस्य फलं सकलविद्यालक्षणं भवति यत: । दि० प्र०। 20 ब्रह्मणः । ब्या० प्र०।
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