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अष्टसहस्र
[ द्वि० प० कारिका २७
आत्मा ब्रह्म ेति पारोक्ष्यसद्वितीयत्वबाधनात् ' । पुमर्थे निश्चितं शास्त्रमिति सिद्ध समीहितम् ॥२॥”
इति, मोहस्याविद्यारूपस्याकिंचिद्रूपत्वे' पारोक्ष्यहेतुत्वाघटनात् सद्वितीयत्वदर्शननिबन्धनत्वासंभवात् तस्य वस्तुरूपत्वे ' द्वैतसिद्धिप्रसक्तेस्तत एव पारोक्ष्यसद्वितीयत्वयोर्बाधनात् पुमर्थे' निश्चितं शास्त्रमित्येतस्यापि ' द्वैतसाधनत्वात् शास्त्रपुमर्थयोर्भेदाभावे'
संभवात्' ।
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साध्यसाधनभावा
अद्वैतं न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना । संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित्" ॥२७॥
बाधा
श्लोकार्थ - परन्तु आत्मा और ब्रह्म इस प्रकार के परोक्ष्य और द्वितीयरूप सहित आने से पुमर्थ-पारोक्ष्य और सद्वितीय के निराकरणरूप पुरुष को सिद्ध करने के लिये ही शास्त्र निश्चित है अतः ब्रह्मा और आत्मा में ऐक्य को सिद्ध करने वाला हमारा समीहित - मनोरथ सिद्ध हो जाता है ॥२॥
इस प्रकार से मोह तो अविद्यारूप है और वह "विद्यायाः अभावः अविद्या" रूप से अकिंचित्रूप है अत: उस अविद्या हेतु के द्वारा पारोक्ष्य ( यह ब्रह्मा है और यह आत्मा है ऐसा भेद प्रतिभास) सिद्ध नहीं हो सकेगा । सद्वितीयत्व दर्शन के प्रति मोह का निमित्त असंभव है क्योंकि मोह स्वयं अविद्यारूप है । यदि उस मोह को वस्तुरूप - वास्तविक मान लेंगे तब तो द्वंत सिद्धि का ही प्रसंग क्षा जाता है और उसी द्वैतसिद्धि की प्रसक्ति से पारोक्ष्य और सद्वितीयत्व में बाधा आती है एवं “मर्थ में शास्त्र निश्चित है" यह कथन भी द्वैत को ही सिद्ध करता है । फिर भी शास्त्र और पुमर्थ में भेद का अभाव है ऐसा कहने पर साध्य-साधन का भाव ही असंभव हो जावेगा । द्वैत बिना अद्वैत न होगा, नञ् समास से बना सही ।
था हेतु के बिना अहेतू, हो सकता है कभी नहीं ॥
वस्तू का निषेध - प्रतिषेध, योग्य वस्तु बिन बने नहीं ।
है निषिद्ध "आकाश कुसुम " फिर भी वह वृक्षों में नित ही ॥२७॥
कारिकार्थ - जिस प्रकार से हेतु के बिना अहेतु सिद्ध नहीं है उसी प्रकार से द्वैत के बिना अद्वैत भी नहीं बन सकता । क्योंकि प्रतिषेध्य - द्वैतादि के बिना संज्ञी - द्वैतरूप का प्रतिषेध भी नहीं हो सकता है | ॥ २७ ॥
1 अवस्तुत्वे । दि० प्र० । 2 मोहस्यावस्तुत्वे सति अवैशद्यज्ञानकारणत्वं न घटते । दि० प्र० । 3 किञ्चिद्रूपत्वे । दि० प्र० । 4 पुरुषाद्वैते । भद्वैतसाधनार्थे । दि० प्र० । 5 उपनिषद् । दि० प्र० । 6 उपनिषद्वतयोः । दि० प्र० । 7 साध्यसाधनयोर्भेदे सति एवं साध्यसाधनभावस्तथा च द्वैतसिद्धिः । दि० प्र० । 8 प्रदेशघटपटादिवत् । दि० प्र० ।
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9 अतः । कारिकां व्याख्यातुमाह । व्या० प्र० ।
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