Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नहीं। इसलिये दोनों अन्तों को छोड़कर उन्होंने मध्यम मार्ग का उपदेश दिया । तथागत बुद्ध का यह चिन्तन था कि यदि आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न माना जाये तो फिर उसे कायकृत कर्मों का फल नहीं मिलना चाहिये । अत्यन्त भेद मानने पर अकृतामग दोष की आपत्ति है । यदि अत्यन्त अभिन्न मानें तो जब शरीर को जला कर नष्ट कर देते हैं तो आत्मा भी नष्ट हो जायेगा। जब आत्मा नष्ट हो गया है तो परलोक सम्भव नहीं है । इस तरह कृतप्रणाश दोष की आपत्ति होगी। इन दोषों से बचने के लिये उन्होंने भेद और अभेद दोनों पक्ष ठीक नहीं माने। पर महावीर ने इन दोनों विरोधी वादों का समन्वय किया । एकान्त भेद और एकान्त अभेद मानने पर जिन दोषों की सम्भावना थी, वे दोष उभयवाद मानने पर नहीं होते। जीव और शरीर का भेद मानने का कारण यही है। शरीर नष्ट होने पर भी आत्मा दूसरे जन्म में रहती है। सिद्धावस्था में जो आत्मा है, वह शरीरमुक्त है। आत्मा और शरीर का जो अभेद माना गया है, उसका कारण है कि संसार - अवस्था में आत्मा नीर-क्षीर-वत् रहता है । इसलिये शरीर से किसी वस्तु का संस्पर्श होने पर आत्मा में भी संवेदन होता है और कायकर्म का विपाक आत्मा में होता है । चार्वाक दर्शन शरीर को ही आत्मा मानता था तो उपनिषद् काल के ऋषिगण आत्मा को शरीर से अत्यन्त भिन्न मानते थे। पर महावीर ने उन दोनों भेद और अभेद पक्षों का अनेकान्त दृष्टि से समन्वय कर दार्शनिकों के सामने समन्वय का मार्ग प्रस्तुत किया है।
इसी प्रकार जीव की सान्तता और अनन्तता के प्रश्न पर भी बुद्ध का मन्तव्य स्पष्ट नहीं था । यदि काल की दृष्टि से सान्तता और अनन्तता का प्रश्न हो तो अव्याकृत मत से समाधान हो जाता है पर द्रव्य या क्षेत्र की दृष्टि से जीव की सान्तता और निरन्तरता के विषय में उनके क्या विचार थे, इस सम्बन्ध में त्रिपिटक साहित्य मौन है, जबकि भगवान् महावीर ने जीव की सान्तता, निरन्तरता के सम्बन्ध में अपने स्पष्ट विचार प्रस्तुत किये हैं। उनके अभिमतानुसार जीव एक स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में है । वह द्रव्य से सान्त है, क्षेत्र से सान्त है, काल से अनन्त है और भाव से अनन्त है । इस तरह जीव सान्त भी है, अनन्त भी है। काल की दृष्टि से और पर्यार्यों की अपेक्षा से उसका. कोई अन्त नहीं पर वह द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से सान्त है ।
उपनिषद् का आत्मा के सम्बन्ध के 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' के मन्तव्य का भगवान् महावीर ने निराकरण किया है। क्षेत्र की दृष्टि से आत्मा की व्यापकता को भगवान् महावीर ने स्वीकार नहीं किया है और एक ही आत्मद्रव्य सब कुछ है, यह भी भगवान् महावीर का मन्तव्य नहीं है। उनका मन्तव्य है कि आत्मद्रव्य और उसका क्षेत्र मर्यादित है । उन्होंने क्षेत्र की दृष्टि से आत्मा को सान्त कहते हुए भी काल की दृष्टि से आत्मा को अनन्त कहा है । भाव की दृष्टि से भी आत्मा अनन्त है क्योंकि जीव की ज्ञानपर्यायों का कोई अन्त नहीं है और न दर्शन और चारित्र पर्यायों का ही कोई अन्त है । प्रतिपल-प्रतिक्षण नई-नई पर्यायों का आविर्भाव होता रहता है और पूर्व पर्याय नष्ट होते रहते हैं । इसी प्रकार सिद्धि के सम्बन्ध में भी भगवान् महावीर ने अनेकान्त दृष्टि से उत्तर देकर एक गम्भीर दार्शनिक समस्या का सहज समाधान किया है।
मृत्यु : एक कला
मृत्यु एक कला है। इस कला के सम्बन्ध में जैन मनीषियों ने विस्तार से विश्लेषण किया है। जैन
आगम युग का जैनदर्शन, पं. दलसुख मालवणिया, पृ. ६६-६७
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