Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
उद्देशक १ में विस्तार से आया है। वह एक महामनीषी परिव्राजक था । उससे पिंगल नामक निर्ग्रन्थ वैशाली श्रावक ने लोक सान्त हैं या अनन्त है, जीव सान्त है या अनन्त, सिद्धि सान्त है या अनन्त है, किस प्रकार का मरण पाकर जीव संसार को घटाता है और बढ़ाता है—इन प्रश्नों का उत्तर चाहा। प्रश्न सुनकर आर्य स्कन्दक सकपका गये। वे भगवान् महावीर के चरणों में पहुँचे। सर्वज्ञ सर्वदर्शी महावीर ने स्कन्दक को सम्बोधित कर कहा—उपर्युक्त प्रश्न पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे पूछे और उनका सही समाधान पाने के लिये तुम मेरे पास उपस्थित हुए हो । उनका समाधान इस प्रकार है—
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से लोक चार प्रकार का है । द्रव्य की अपेक्षा वह एक और सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा असंख्य कोटाकोटी योजन आयाम - विष्कम्भ वाला है। इसकी परिधि असंख्य कोटा- कोटी योजन है, इसका अन्त है। काल की अपेक्षा यह किसी दिन नहीं था ऐसा नहीं है, किसी दिन नहीं रहेगा ऐसा भी नहीं है। वह तीनों कालों में रहेगा और इसका अन्त नहीं हैं । भाव की अपेक्षा यह अनन्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श पर्यव रूप है । अनन्त संस्थान पर्यव, अनन्त गुरुलघु पर्यव और अनन्त अगुरुलघु पर्यव रूप है। द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा लोक सान्त है, काल और भाव की अपेक्षा वह अनन्त है । इस प्रकार लोक सान्त है और अनन्त भी ।
के सम्बन्ध में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चिन्तन किया जाय तो द्रव्य की दृष्टि से जीव एक और सान्त है, क्षेत्र की दृष्टि से वह असंख्यात प्रदेशी और सान्त है। काल की दृष्टि से वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा अतः नित्य है, उसका कभी अन्त नहीं। भाव की दृष्टि से वह अनन्त ज्ञान पर्यत्र रूप है, अनन्त दर्शन पर्यव रूप है यावत् अनन्त अगुरुलघु पर्यव रूप है। इसका अन्त नहीं है । इस प्रकार द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से जीव अन्तयुक्त है। काल और भाव की दृष्टि से अन्तरहित है।
मोक्ष के सम्बन्ध में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जानना होगा । द्रव्य की दृष्टि से मोक्ष . एक है और सान्त है। क्षेत्र की दृष्टि से पैंतालीस लाख योजन आयाम-विष्कम्भ वाला है और इसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक है। इसका अन्त है। काल की दृष्टि से यह नहीं कहा जा सकता कि किसी दिन मोक्ष नहीं था, नहीं है, नहीं रहेगा। भाव की अपेक्षा से यह अन्तरहित है
। द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से मोक्ष अन्तयुक्त है तथा काल और भाव की अपेक्षा से अन्तरहित है। इसी तरह सिद्ध अन्तयुक्त है या अन्तरहित है ? इसके उत्तर हैं— द्रव्य की दृष्टि से सिद्ध एक है और अन्तयुक्त है । क्षेत्र की दृष्टि से सिद्ध असंख्य प्रदेश - अवगाढ होने पर भी अन्तयुक्त है । काल की दृष्टि से सिद्ध की आदि तो है, पर अन्त नहीं है। भाव की दृष्टि से सिद्ध ज्ञानदर्शन पर्यव रूप है और उसका अन्त नहीं है। इसी तरह भगवान् महावीर ने मरण के भी दो प्रकार बताये - १. बालमरण और २. पण्डितमरण। बालमरण के बारह प्रकार हैं । बालमरण से मर कर जीव चतुर्गत्यात्मक संसार की अभिवृद्धि करते हैं और पण्डितमरण से मर कर जीव दीर्घ संसार को सीमित कर देते हैं।
इन प्रश्नों का विस्तार से उत्तर सुनकर आर्य स्कन्दक अत्यन्त आह्लादित हुए और उन्होंने भगवान् महावीर के पास आहंती दीक्षा ग्रहण की। जब हम महावीरयुग का अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि उस युग में इस प्रकार के प्रश्न दार्शनिकों के मस्तिष्क को झकझोर रहे थे और वे यथार्थ समाधान पाने के लिये मूर्धन्य मनीषियों
[ ६०]