Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 04 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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हैं वे स्वेच्छा से नहीं अपितु श्रमणजीवन की आचारसंहिता का पालन करते हुए आकस्मिक रूप से यदि किसी प्रकार का कोई संकट समुपस्थित हो जाता है तो उसे सहन किया जाता है। किन्तु तपस्या में जो कष्ट सहन किया जाता है, वह स्वेच्छा से किया जाता है। कष्ट श्रमणजीवन को निखारने के लिये आता है। श्रमण को कष्टसहिष्णु होना चाहिए, जिससे वह साधना-पथ से विचलित न हो सके। भगवती में जिस प्रकार परीषह के बाईस प्रकार बताये हैं वैसे ही उत्तराध्ययन और समावायाङ्ग सूत्र में भी बाईस परीषह-प्रकारों को बताया है। संख्या की दृष्टि से समानता होने पर भी क्रम की दृष्टि से कुछ अन्तर है।
अंगुत्तरनिकाय में तथागत बुद्ध ने कहा—भिक्षु को दुःखपूर्ण, तीव्र, प्रखर, कटु, प्रतिकूल, बुरी, शारीरिक वेदनाएं हों, उन्हें सहन करने का प्रयास करना चाहिये। भिक्षुओं को समभावपूर्वक कष्ट सहन करने का सन्देश देते हुए सुत्तनिपात में भी बुद्ध ने कहा है—धीर, स्मृतिमान् संयत आचरण वाला भिक्षु डसने वाली मक्खियों से, सौ से, पापियों द्वारा दी जाने वाली पीड़ा से और पशुओं से भयभीत न हो, सभी कष्टों का सामना करे। बीमारी के कष्ट को, क्षुधा की वेदना को, शीत और उष्ण को सहन करे। सुत्तनिपात में कष्टसहिष्णुता के लिए परिषह शब्द का प्रयोग हुआ है, पर जैनपरम्परा में और बौद्धपरम्परा में परीषह के सम्बन्ध में कुछ पृथक्-पृथक् चिन्तन है। जैनदृष्टि से परीषह को सहन करना मुक्ति-मार्ग के लिये साधक है, जबकि बौद्धपरम्परा में परीषह निर्वाणमार्ग के लिये बाधक है और उस बाधक तत्त्व को दूर करने का सन्देश दिया है। तथागत बुद्ध परीषह को सहन करने की अपेक्षा परीषह को दूर करना श्रेयस्कर समझते थे। दोनों परम्पराओं में परीषह का मूल मन्तव्य एक होने पर भी दृष्टिकोण में अन्तर है।
जैन और बौद्ध परम्परा में जिस प्रकार परीषह का निरूपण हुआ है और मुनियों के लिये कष्टसहिष्णु होना आवश्यक माना है वैसे ही वैदिक परम्परा में भी संन्यासियों के लिये कष्टसहिष्णु होना आवश्यक माना गया है। वहाँ पर यह भी प्रतिपादित किया गया है कि संन्यासियों को कष्टों को निमंत्रित करना चाहिये। आचार्य मनु ने लिखा है—वानप्रस्थी को पंचाग्नि के मध्य खड़े होकर, वर्षा में खुले में खड़े रहकर और शीत ऋतु में गीले वस्त्र धारण करने चाहिये। उसे खुले आकाश के नीचे सोना चाहिये और शरीर में रोग पैदा होने पर भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। इस तरह कष्ट को स्वेच्छापूर्वक निमन्त्रण देने की प्रेरणा दी है।
किन कर्मप्रकृतियों के कारण कौन से परीषह होते हैं, उस पर भी प्रकाश डालते हुए बताया हैज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अन्तराय के कारण परीषह उत्पन्न होते हैं।
२. ३. ४. ५. ६. ७.
उत्तराध्ययन, अध्ययन २ . समवायांग, २२२१ अंगुत्तरनिकाय, ३४९ सुत्तनिपात ५४|१०-१२ सुत्तनिपात. ५४/६ सुत्तनिपात ५४/६/१५ मनुस्मृति ६/२३; ३४ देखिये-जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, खण्ड-२, पृ. ३६२-३६३
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