Book Title: Samaysundar Ras Panchak
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Catalog link: https://jainqq.org/explore/003820/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दर रास पंचक सम्पादक भवरलाल नाहटा 24 पराश . . . ज्ञान . 531A पूट राज रिसर्च बीकानेर प्रकाशक साढूल राजस्थानी रिसर्च-इन्स्टीट्यूट बीकानेर। Jain Educatunaries son Pause Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान भारती प्रकाशन समयसुन्दर रास पंचक सादूल राजस्थानी ति १००० ] सम्पादक भँवरलाल नाहटा Jain Educationa International ज्ञानभेक वशत: बीकानेर प्रकाशक गल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर | इन्स्टीट्यूट For Personal and Private Use Only रिसर्च Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: सादुल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर मुद्रक : श्री शोभाचन्द सुराणा रेफिल आर्ट प्रेस, ३१, बड़तल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता-७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन्होंने सत्साहित्य की निरन्तर सेवा और ज्ञानोपासना के लिए सदा प्रेरित और प्रोत्साहित किया, जिनके अनन्त उपकारों से कभी उऋण नहीं हो सकता, उन्हीं सरलहृदय, सौजन्यमूर्त्ति, धर्मप्राण, सौम्य और कर्मठ समाजसेवक, जोवन-निर्माता, परमपूज्य पितृदेव श्री भैरू दानजी नाहटा की स्वर्गीय Jain Educationa International आत्मा को सादर समर्पित विनीत भँवरलाल नाहटा For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द श्री भंवरलाल नाहटा ने 'समयसुन्दर रासपंचक' का संपादन कर एक बड़ा उपयोगी कार्य किया है। संपादक ने प्रारम्भ में पाँचों रासों का सार प्रस्तुतकर प्रस्तुत ग्रन्थ को हिन्दी पाठकों के लिए भी सहज ही बोधगम्य बना दिया है । अन्त में रासपंचक में प्रयुक्त देशी सूची भी दे दी गई है। ___ जैन साधु-सन्तों ने लोक-साहित्य की रक्षा के लिए जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया, वह अनुपम है। उपदेश देते समय जैन साधु अनेक दृष्टान्त-कथाओं का प्रयोग किया करते थे, जिससे उपदेशों की छाप श्रोताओं के मन पर चिरांकित हो सके। ऐसी अनेक दृष्टान्त-कथाएँ प्रस्तुत रास-पंचक में प्रयुक्त हुई हैं। महोपाध्याय समयसुन्दर द्वारा विरचित इन पाँचों रासों का मेरी दृष्टि में एक विशेष महत्त्व है। इन रासों में जिन लोक-कथाओं का समावेश हुआ है, वे मूल अभिप्रायों ( Motives ) की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध हैं। सर्वप्रथम रास 'सिंहलसुत चौपई' में काष्ठ-पट्ट के सहारे धनवती द्वारा समुद्रतट प्राप्त करने का उल्लेख हुआ है। लोक-कथाओं और कथा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) काव्यों में इस अभिप्राय का प्रचुर प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। जायसी के पद्मावत में भी इस कथानक-रूढ़ि का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार मुद्रिका को पानी में खोलकर राजकुमारी पर छिड़कना, उसे पिलाना और उसका सचेत होकर उठ बैठना 'जादू की वस्तुएँ' ( Magical Articles ) नामक प्ररूढ़ि के अन्तर्गत समझना चाहिए। इसी प्रकार अद्भुत कथा जो प्रति दिन खंखेरने पर सौ रुपये देती थी तथा आकाशगामिनी खटोली भी इसी अभिप्राय की निदर्शिका हैं। साँप द्वारा कुमार को कुब्जा और कुरूप बना देना अनायास ही महाभारत के नलोपाख्यान का स्मरण करा देता है, जहाँ कुरूप बना देना विपत्ति-रक्षा के साधन के रूप में गृहीत हुआ है। इस रास में 'मौन भंग' नामक प्ररूढ़ि (Motive) का प्रयोग भी बहुत ही कुतूहलवर्धक हुआ है । वामन थोड़ी-सी कथा कह कर शेष कथा दूसरे दिन पर स्थगित कर देता है, जिससे क्रमशः तीनों स्त्रियाँ बोल उठती हैं। 'वल्कलचीरी' में श्वेत केश की रूढ़ि का प्रयोग हुआ है। रामचरित मानस के दशरथ भी जब हाथ में दर्पण लेकर अपना मुंह देखकर मुकुट को सीधा करते हैं तो उन्हें जान पड़ता है कि उनके कानों के पास बाल सफेद हो गये हैं मानो वे यह उपदेश देते हैं कि अब वृद्धत्व आ गया है-इसलिए हे राजन् ! श्री रामचन्द्रजी को युवराजपद देकर अपने जीवन और जन्म का लाभ क्यों नहीं लेते ? . पा नहा लत ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रवन समीप भए सित केसा । मनहुँ जरठपन अस उपदेसा ॥ नृप जुबराजु राम कहुँ देहू । जीवन जनम लाहु किन लेहू ॥ चम्पक सेठ सम्बन्धी रास में साधुदत्त भावी की अमिटता के सम्बन्ध में एक दृष्टान्त सुनाता है, किन्तु इसके विपरीत वृद्धदत्त की मान्यता है कि उद्यम के आगे भावी कुछ नहीं। इस सम्बन्ध में वह भी एक दृष्टान्त सुनाता है और यह सिद्ध करने का प्रयत्न करता है कि उद्यम का आश्रय लेकर विधाता के लेख में भी मेख मारी जा सकती है, किन्तु आगे की कथा से स्पष्ट है कि वृद्धदत्त विधि के विधान को टाल नहीं सका। चम्पक के मारने के प्रयत्न में वह स्वयं मृत्यु का शिकार हो जाता है। इस रास में 'भाग्य-लेख' नामक प्ररूढ़ि के साथसाथ 'मृत्यु-पत्र' नामक मूल अभिप्राय का भी बड़ा सार्थक और समीचीन प्रयोग हुआ है। चंपक के 'पूर्व जन्म वृत्तान्त' में जर्जर दीवाल की कथा कही गई है, जो बाल-कथाओं की सुपरिचित प्रश्नोत्तरकी माला-शैली में वर्णित है। इसी वृत्तान्त में कपटकोशा वेश्या की चतुराई का चित्रण हुआ है, जिसे पढ़ कर राजस्थानी की निम्नलिखित पद्यमयी लोकोक्ति का स्मरण हो आता है साहण हँसी साह घर आयो, विप्र हँस्यो गयो धन पायो। तू के हँस्यो रै बरड़ा भिखी, एक कला मैं अधकी सीखी ॥ धनदत्त श्रेष्ठी तथा पुण्यसार विषयक रास भी अपने ढंग के सुन्दर रास हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक-कथाओं के मूल अभिप्रायों, तत्कालीन भाषा तथा देशी ढालों के अध्ययन की दृष्टि से इन रासों का विशेष महत्त्व है। इन रासों के सम्पादन के लिए श्री भँवरलालजी नाहटा बधाई के पात्र हैं। ... पिलानी । .. कन्हैयालाल सहल ३०-४-६१ प्रिंसिपल बिड़ला आर्ट्स कालेज, पिलानी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भारतीय वाङ्मय की गौरव वृद्धि करने वाले महान् कवियों में राजस्थान के उच्च कोटि के सन्त और साहित्यकार महोपाध्याय समयसुन्दर का स्थान बड़ा ही महत्वपूर्ण है। संस्कृत में उनके मौलिक व वृत्तिपरक अनेक ग्रन्थ हैं उनमें 'अष्टलक्षी' तो विश्व साहित्य का अजोड़ ग्रंथ है, जिसमें "राजानो ददते सौख्यम्” इन आठ अक्षरों वाले वाक्य के दस लाख से अधिक अर्थ करके सम्राट अकबर व उसकी विद्वत् परिषद को चमत्कृत किया था। राजस्थानी एवं गुजराती भाषा में भी आपके रचित काव्यों की संख्या प्रचुर है। सीताराम चौपई जैसे जैन रामायण काव्य की ३७५० श्लोकों में आपने रचना की थी। नलदमयन्ती, मृगावती, सांब-प्रद्युम्न, थावञ्चा, ४ प्रत्येक बुद्ध आदि अनेक भाषा काव्यों का निर्माण किया था। आपकी ५६२ लघु रचनाओं का संग्रह हमने अपनी "समयसुन्दर कृति कुसुमाञ्जलि” में प्रकाशित किया है। उक्त ग्रन्थ में आपकी जीवनी व रचनाओं के सम्बन्ध में विस्तृत प्रकाश डाला गया है इसलिए यहाँ अधिक लिखना अनावश्यक है। संक्षेप में आपका जन्म मारवाड़ प्रदेश के साचौर नामक जैन तीर्थ स्थान में पोरवाड़ रूपसी की भार्या लीलादेवी की कुक्षि से सं० १६१५ के आसपास हुआ था। आप लघुवय में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) ही युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी के करकमलों से दीक्षित हुए, आपके गुरुश्री का नाम सकलचन्द गणि था। सं० १६४१ से सं० १७०० तक आप अनवरत साहित्य साधना करते रहे। सं० १६४४ में सम्राट अकबर के काश्मीर प्रयाण के समय एकत्रित विस्तृत सभा में अपना अष्टलक्षो ग्रंथ विद्वज्जन समक्ष रखकर सबको आश्चर्यान्वित कर दिया था। इसी वर्ष फाल्गुन शुक्ला २ के दिन आपको वाचनाचार्य पद युगप्रधान श्रीजिनचंद्रसूरिजी ने दिया। सं० १७७१ में लवेरा में आचार्य श्रीजिनसिंह सूरिजी ने आपको उपाध्याय पद से अलंकृत किया था। राजस्थान, गुजरात, सिन्ध आदि में आपने विहार करके कई राजाओं एवं शेख मकनुम आदि को प्रतिबोध देकर पंचनदी के मत्स्य एवं गौहत्या का निषेध कराया था। वादी हर्षनन्दन आदि आपके ४२ विद्वान शिष्य थे, जिनकी शिष्य संतति अद्यावधि विद्यमान है। सं० १७०२ चैत्र शुक्ला १३ को अहमदाबाद में आपका स्वर्गवास हुआ। ___ कथा कहानी के प्रति मानव का सहज आकर्षण आदिकाल से ही रहा है और इसी बात को लक्ष में रखकर धर्म प्रचारकों ने भी कथा साहित्य को अपने उपदेश का माध्यम बनाया और जनता में धर्म-सदाचार और नीति का विशद प्रचार किया। जैन विद्वानों ने परम्परानुगत पौराणिक और लोककथाओं को प्रचुरता से अपनाया। प्रस्तुत ग्रंथ में कविवर समयसुन्दर के रचित पाँच राजस्थानी कथा काव्यों को प्रकाशित किया जा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) : रहा है । इनमें कुछ तो प्राचीन जैन ग्रन्थों से आधारित है एवं कुछ लोक कथाएँ भी हैं। सिंहल सुत-प्रियमेलक तीर्थ की कथा सम्बन्धी यह काव्य सं० १६७२ मेड़ता में जेसलमेरी झाबक कचरा के मुलतान में किये गए आग्रह के अनुसार दान-धर्म के माहात्म्य पर कौतुक के लिए रचे जाने का कवि ने उल्लेख किया है। दूसरी कथा वल्कलचीरी की है, यह बौद्ध जातक एवं महाभारत में भी ऋषिशृङ्ग के नाम से प्राप्त है । सं० १६८९ में जेसलमेर में मुलतान निवासी जेसलमेरी साह कर्मचन्द्र के आग्रह से कवि ने इस कथा काव्य का निर्माण किया है । तीसरी चम्पक सेठ की कथा अनुकम्पा दान के माहात्म्य के सम्बन्ध में सं० १६६५ जालोर में शिष्य के आग्रह से रची गयी थी, यह चौपाई दो खण्डों में विभक्त है इसके बीच में सं० १६८७ के दुष्काल का आँखों देखा वर्णन भी कवि ने सम्मिलित कर दिया है । चौथी कथा धनदत्त सेठ की व्यवहार शुद्धि या नीति के प्रसङ्ग से सं० १६६६ आश्विन महीने में अहमदाबाद में रची गई है। पाँचवीं पुण्यसार . चरित्र चौ० पुण्य के माहात्म्य को बतलाने के लिए सं० १६७३ में शान्तिनाथ चरित्र से कविवर ने निर्माण की है। हमने इस संग्रह में पाँचों लघुकृतियों को प्राचीन व शुद्ध प्रतियों से . उद्धृत किया है। जो हमारे अभय जैन ग्रन्थालय में संरक्षित है और उनकी प्रशस्तियाँ भी प्रान्त में दे दी हैं। वल्कलचीरी चौ० की एक प्रति कविवर के स्वयं लिखित श्री पूरणचन्द्रजी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) नाहर के संग्रह में है, जिसका हमने अपने आदरणीय मित्र श्री विजयसिंहजी नाहर के सौजन्य से इसमें उपयोग किया है, एवं पुण्यसार चौ० की एक प्रति बीकानेर की सेठिया लाइब्रेरी में है, जिसके पाठान्तरों का उपयोग कर पुष्पिका यहाँ साभार उद्धृत की जाती है : संवत् १७२९ प्रमिते कार्तिक मासे कृष्ण नवम्यां तिथौ महोपाध्यायजी श्री श्री ५ समयसुन्दरजी शिष्य वाचनाचार्य श्री मेघविजयजी तत् शिष्य वाचनाचार्य श्रीहर्षकुशलजी तत् शिष्य पण्डित प्रवर हर्षनिधान गणि तत् शिष्य हर्षसागर मुनि लिखितं । पं० नयणसी प्रतापसी पठनार्थम् ॥ इन रासों में सिंहलसुत चौ० आदि का अत्यधिक प्रचार रहा है और उसकी अनेक सचित्र प्रतियाँ भी उपलब्ध हैं । महाकवि समयसुन्दर की कृतियाँ अत्यन्त लोकप्रिय हैं, उनकी भाषा सरल और प्रासाद गुणयुक्त हैं। पाठकों से अनुरोध है कि वे मूल कृतियों का रसास्वादन करें । पाँचों रासों का कथासार भी आगे के पृष्ठों में प्रकाशित किया जा रहा है । पूर्व योजनानुसार इस संग्रह में कविवर के तीन रास ही देने अभीष्ट थे पर पीछे से दो रास और दे दिये गए। अतः पृष्ठ बढ़ जाने से लोक कथाओं के तुलनात्मक अध्ययन एवं कठिन शब्दकोश आदि देने का लोभ संवरण कर लेना पड़ा है, इसके. लिए आशा है पाठकगण क्षमा करेंगे । Jain Educationa International —भँवरलाल नाहटा For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) सिंहलसुत चौ० का कथासार सिंहलद्वीप के नरेश्वर सिंहल की रानी सिंहली का पुत्र सिंहलसिंह कुमार सूरवीर गुणवान और पुण्यात्मा था। वह माता पिता का आज्ञाकारी, सुन्दर तथा शुभ लक्षण युक्त था । एक बार बसंत ऋतु के आने पर पौरजन क्रीड़ा के हेतु उपवन में गए, कुमार भी सपरिकर वहाँ उपस्थित था। एक जंगली हाथी उन्मत्त होकर उधर आया और नगरसेठ धनदत्त की पुत्री जो खेल रही थी, अपने सुण्डादण्ड में ग्रहण कर भागने लगा। कुमारी भयभीत होकर उच्च स्वर से आक्रन्द करने लगी-मुझे बचाओ! बचाओ ! यह दुष्ट हाथी मुझे मार डालेगा 'हाय ! माता पिता कुलदेवता स्वजन सब कहाँ गये, कोई चाँदनी रात्रि का जन्मा सत्पुरुष हो तो मुझे बचाओ ! राजकुमार सिंहलसिंह ने दूर से विलापपूर्ण आक्रन्द सुना और परोपकार बुद्धि से तुरन्त दौड़ा हुआ आया। उसने बुद्धि और युक्ति के प्रयोग से कुमारी को उन्मत्त गजेन्द्र की सूड से छुड़ा कर कीर्तियश उपार्जन किया । सेठ ने कुमारी की प्राण रक्षा हो जाने पर बधाई बाँटनी शुरू की। राजा भी देखने के लिए उपस्थित हुआ, सेठ ने कुमार के प्रति कुमारी का स्नेहानुराग ज्ञात कर धनवती को राजा के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मुख उपस्थित किया और सर्व सम्मति से कुमार के साथ पाणिग्रहण करा दिया। सिंहलसिंह अपनी प्रिया धनवती के साथ सुखपूर्वक काल निर्गमन करने लगा। राजकुमार जिस गली में जाता उसके सौन्दर्य से मुग्ध हो नगर वनिताएँ गृह कार्य छोड़ कर पीछे पीछे घूमने लगती पंचों ने मिलकर सिंहल नरेश्वर से प्रार्थना की कि आप कुमार को निवारण करो अथवा हमें विदा दिलाओ! राजा ने कुमार का नगर वीथिकाओं में क्रीड़ा करना बन्द कर महाजनों को तो सन्तुष्ट कर दिया पर कुमार के हृदय में यह अपमानशल्य निरन्तर चुभने लगा। कुमार ने भाग्य परीक्षा के निमित्त स्वदेश-त्याग का निश्चय किया और अपनी प्रिया धनवती के साथ अद्ध रात्रि में महलों से निकल कर समुद्रतट पहुंचा। उसने तत्काल प्रवहणारूढ़ होकर परद्वीप के निमित्त प्रयाण कर दिया। सिंहलकुमार का प्रवहण समुद्र की उत्ताल तरंगों के बीच तूफान के प्रखर झोकों द्वारा झकझोर डाला गया । भग्न प्रवहण के यात्रीगणों को समुद्र ने उदरस्थ कर लिया। पूर्व पुण्य के प्रभाव से धनवती ने एक पाटिया पकड़ लिया और जैसे तैसे कष्टपूर्वक समुद्र का तट प्राप्त किया। वह अपने हृदय में नाना विकल्पों को लिये हुए उद्वेग पूर्वक वस्ती की ओर बढ़ी। नगर के निकट एक दण्ड कलश और ध्वज-युक्त प्रासाद को देख कर किसी धर्मिष्ठ महिला से नगरतीर्थ का नाम ठाम पूछा । उसने कहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > यह कुसुमपुर नगर है और यह विश्वविश्रुत प्रियमेलक तीर्थ है। यहां का 'चमत्कार प्रत्यक्ष है, यहाँ जो मौन तप पूर्वक शरण लेकर बैठती है उसके बिछुड़े हुए प्रियजन का मिलाप निश्चय पूर्वक होता है। धनवती भी निराहार मौनव्रत ग्रहण कर वहाँ पतिमिलन का संकल्प लेकर बैठ गयी । इधर सिंहलकुमार भी संयोगवश हाथ लगे हुए लम्बे काष्ट खंड के सहारे किनारे जा पहुँचा। आगे चल कर वह रतनपुर नगर में पहुँचा, जहाँ के राजा रत्नप्रभ की रानी रतनसुन्दरी की पुत्री रत्नवती अत्यन्त सुन्दरी और तरुणावस्था प्राप्त थी । राजकुमारी को साँप ने काट खाया जिसे निर्विष करने के लिए गारुड़ी मंत्र, मणि, औषधोपचार आदि नाना उपाय किये गये पर उसकी मूर्छा दूर नहीं हुई, अन्ततोगत्वा राजा ने ढंढोरा पिटवाया | कुमार सिंहलसिंह ने उपकार बुद्धि से अपनी मुद्रिका को पानी में खोल कर राजकुमारी पर छिड़का और उसे पिलाया जिससे वह तुरन्त सचेत हो उठ बैठी । राजा ने उपकारी और आकृति से कुलीन ज्ञात कर कुमार के साथ राजकुमारी रत्नवती का पाणिग्रहण करा दिया रात्रि के समय रंगमहल में कोमल शय्या को त्याग कर धरती सोने पर रत्नवती ने इसका कारण पूछा। कुमार यद्यपि अपनी प्रिया के वियोग में ऐसा कर रहा था पर उसे भेद देना उचित न समझ कहा कि - प्रिये ! माता पिता से बिछुड़ने के कारण मैंने भूमिशयन व ब्रह्मचर्य का नियम ले रखा है । राजकुमारी ने यह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन उसके माता पिता की भक्ति की प्रशंसा की। राजा को ज्ञात होने पर उसने कुमार का कुल वंश ज्ञात कर पुत्री व जामाता के विदाई की तैयारी की। एक जहाज में वस्त्र, मणि रत्नादि प्रचुर सामग्री देकर दोनों को विदा किया व साथ में पहुंचाने के लिए रुद्र पुरोहित को भी भेजा। जहाज सिंहलद्वीप की ओर चला। ___ रत्नवती के सौन्दर्य से मुग्ध होकर रुद्रपुरोहित ने सिंहलकुमार को अथाह समुद्र में गिरा दिया और उसके समक्ष मिथ्या विलाप करने लगा। राजकुमारी ने यह कुकृत्य उसी दुष्ट पुरोहित का जान लिया। उसके आगे प्रार्थना करने पर रत्नवती ने कहा मैं तो तुम्हारे वश में ही हूँ अभी पति का बारिया हो जाने दो, कह कर पिण्ड छुड़ाया। आगे चलने पर समुद्र की लहरों में पड़कर प्रवहण भग्न हो गया। कुमारी ने तख्ते के सहारे तैर कर समुद्रतट प्राप्त किया और प्रियमेलक यक्ष का भेद ज्ञात कर जहाँ आगे धनवती बैठी थी, रत्नवती ने भी जा कर मौनपूर्वक आसन जमा दिया। पापी पुरोहित भी जीवित बच निकला और उसने कुसुमपुर आकर राजा का मंत्रिपद प्राप्त कर लिया। सिंहलकुमार को समुद्र में गिरते हुए किसीने पूर्व पुण्य के प्रभाव से ग्रहण कर लिया और उसे तापस आश्रम में पहुँचा दिया। शुभ लक्षण वाले कुमार को देख कर हर्षित हुए तापस ने अपनी रूपवती नामक पुत्री के साथ पाणिग्रहण करा दिया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 8 ) करमोचन के समय कुमार को एक ऐसी अद्भुत कथा दी जो प्रति दिन खंखेरने पर सौ रुपये देती थी, इसके साथ एक आकाश-गामिनी खटोली भी दी, जिस पर बैठकर स्वेच्छानुसार जा सके। कुमार अपनी नव परिणीता पत्नी के साथ खटोली पर आरूढ़ हो गया, खटोली ने उसे कुसुमपुर के निकट ला उतारा। रूपवती को धूप और गरमी के मारे जोर की प्यास लग गई थी। अतः कुमार जल लाने के लिये अकेला गया। ज्योंही वह जलकूप के निकट पहुँच कर पानी निकालने लगा एक भुजंग ने मनुष्य की भाषा में अपने को कुए में से निकाल देने की प्रार्थना की। कुमार ने उसे लम्बा कपड़ा डालकर बाहर निकाला। साँप ने निकलते ही उसपर आक्रमण कर काट खाया जिससे कुमार कुजा और कुरूप हो गया। कुमार के उपालम्भ देने पर साँप ने कहा-बुरा मत मानो, इसका गुण आगे अनुभव करोगे। तुम्हारे में संकट पड़ने पर मैं तुम्हें सहाय करूंगा। कुमार सविस्मय जल लेकर अपनी प्रिया के पास आया और उसे जल पीकर प्यास बुझाने को कहा। रूपवती ने कुब्जे के रूप में पति को न पहिचान कर पीठ फेर ली और तुरन्त वहाँ से प्यासी ही चल दी। उसने इधर-उधर घूम कर सारा वन छान डाला, अन्त में पति के न मिलने पर निराश होकर वहीं जा पहुंची जहाँ प्रियमेलकं तीर्थ की शरण लेकर दो तरुणियाँ बैठी थीं। रूपवती भी उसके 'पास जाकर मौन तपस्या करने लगी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) सिंहलकुमार कंथा और खाट कहीं छोड़ कर नगरी की शोभा देखता हुआ घूमने लगा, उसने अपनी तीनों प्रियाओं को भी तपस्यारत देख लिया। कुछ दिन बाद यह बात सर्वत्र प्रचलित हो गई कि तीन महिलाएँ न मालूम क्यों मौन तपश्चर्या में लगी हुई हैं, जिन्होंने सौन्दर्यवती होते हुए भी तप द्वारा देह को कृश बना लिया है। यह वृन्तान्त सुनकर राजा के मन में उन्हें बोलाने की उत्सुकता जगी। नरेश्वर ने नगर में ढिंढोरा पिटाया कि जो इन तरुण तपस्विनियों का मौन भंग करा देगा उन्हें मैं अपनी पुत्री दूंगा। घूमते हुए वामनरूपी सिंहलकुमार ने पटह स्पर्श किया। राजा के पास ले जाने पर वामन ने दूसरे दिन प्रातःकाल युवतियों को बोलाने की स्वीकृति दी। दूसरे दिन राजा, मंत्री, महाजन आदि सब लोग प्रियमेलक तीर्थ के पास आकर जम गये । वामन ने कोरे पन्ने निकाल कर बाँचने का उपक्रम करते हुए कहा कि ये अदृश्याक्षर हैं। राजा आदि आश्चर्यपूर्वक सावधानी से सुनने लगे। वामन ने कहासिंहलकुमार अपनी प्रिया के साथ प्रवहणरूढ होकर समुद्र यात्रा करने चला, मार्ग में तूफान के चक्कर में प्रवहण भग्न हो गया। इतनी कथा आज कही आगे की बात कल कहूँगा। धनवती ने कहा-आगे क्या हुआ ? वामन ने कहा-राजन् !' देखिये यह बोल गयी। दृसरे दिन फिर सबकी उपस्थिति में वामन ने कोरे पन्नों को बाँचते हुए कहा-"काष्ठ का सहतीर पकड़कर कुमार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) रतनपुर नगर पहुँचा, वहाँ उसने राजकुमारी रत्नवती से व्याह' किया फिर वहाँ से विदा होकर आते समय मार्ग में पापी पुरोहित ने कुमार को समुद्र में गिरा दिया।" उसने पोथी बाँधते हुए कहा आज का सम्बन्ध इतना ही है, आगे का सुनना हो तो कल आना। रत्नवती ने उत्सुकतावश कहा“हाथ जोड़ती हूँ पण्डित आगे का वृतान्त कहो।” इस प्रकार दूसरी भी सब लोगों के समक्ष बोल गयी। दूसरे दिन प्रातःकाल फिर लाखों की उपस्थिति में वामन ने पुस्तक वाचन प्रारम्भ किया। उसने कहा-कुमार को जल में गिरते हुए किसी ने ग्रहण कर लिया फिर उसे तापस ने अपनी कन्या रूपवती को परणाई। वे दोनों दम्पति खटोलड़ी में बैठ कर यहाँ आये, कुमार जल लेने के निमित्त कुएँ पर गया जिस पर वहाँ साँप ने आक्रमण किया इस प्रकार यह तीनों बातें हुई। वामन के चुप रहने पर रूपवती से चुप नहीं रहा गया, उसने भी आगे का वृतान्त पूछा । वामनने कहा-राजन् ! अब तीनों स्त्रियाँ बोल चुकीं मुझे कुसुमवती देकर अपना वचन निर्वाह करो। राजा ने वचन के अनुसार घर आकर चौंरी मांडकर विवाह की तैयारी की। वामन और राजकुमारी के सम्बन्ध से खिन्न होकर औरतों के गीत गान में अनुद्यत रहने पर आगे का वृतान्त जानने की उत्सुकता से तीनों कुमारपत्नियाँ विवाह मण्डप में जाकर गीत गाने लगी। करमोचन के समय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) 'उल्लासरहित साले ने कहा-साँप लो ! कुमार ने कुएँ के साँप को याद किया, उसने आते ही कुमार को डस दिया, जिससे वह मूर्छित हो गया। अब वे सब कन्याएँ मरने को उद्यत होकर कहने लगीं-हम भी इसके साथ ही मरेंगी, हमें इन्हीं का शरण है। इतने में देव ने प्रगट होकर कुमार को अपने असली रूप में प्रगट कर दिया, सब लोग इस नाटकीय पटपरिवर्तन को देखकर परम आनन्दित हुए। कुसुमवती को अपार हर्ष था, अपने पति को पहचान कर चारों पत्नियाँ विकसित कमल की भाँति प्रफुल्लित हो गई। अब कुसुमवती का व्याह बड़े धूमधाम से हुआ और कुमार सिंहलसिंह अपनी चारों पत्नियों के साथ आनन्दपूर्वक काल निर्गमन करने लगा। कुमार ने देव से 'पूछा-तुम कौन हो और निष्कारण मेरा उपकार कैसे किया ? देव ने कहा-मैं नागकुमार देव हूँ, मैंने ही तुम्हें समुद्र में डूबते को बचाकर आश्रम में छोड़ा, तुम्हें कुब्जे के रूप में परिवर्तन करने वाला भी मैं हूँ। तुम्हारे पूर्व पुण्य तथा प्रबल स्नेह के कारण मैं तुम्हारा सान्निध्यकारी बना। कुमार के पूछने पर देव ने पूर्व भव का वृतान्त बतलाना प्रारम्भ किया। पूर्व जन्म वृत्तान्त धनपुर नगर में धनंजय नामक सेठ और उसके धनवती नामक सुशीला पत्नी थी। एक बार मासक्षमण तप करने वाले त्यागी वैरागी निग्रन्थ मुनिराज के पधारने पर धनदेव ने उन्हें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) सत्कारपूर्वक अन्न जलादि वहोराया जिसके पुण्य प्रभाव से वह मर कर महर्द्धिक नागकुमार देव हुआ। धनदत्तके भी भावपूर्वक मुनिराज को सेलड़ी ( ईख ) का रस दान करते हुए तीन वार भाव खण्डित हुआ और मर कर तुम सिंहलसिंह हुए । तीन वार परिणाम गिरने से तुम समुद्र में गिरे फिर वहराते रहने से स्त्रियों की प्राप्ति हुई । तुम्हें कुरूप वामन करने का मेरा यह उद्देश्य था कि अधम पुरोहित तुम्हें पहिचान कर मारने का प्रयत्न न करे । सिंहलसिंह कुमार को अपना पूर्व भव सुनकर जातिस्मरण ज्ञान हो आया जिससे अपना पूर्व भव वृतान्त उसे स्वयं ज्ञात हो गया । राजा ने पुरोहित पर कुपित हो उसे मारने की आज्ञा दी ; कृपालु कुमार ने उसे छुड़ा दिया । अब कुमार के हृदय में माता-पिता के दर्शनों की उत्कण्ठा जागृत हुई, उसने स्वसुर से विदा मांगी और उड़नखटोली पर आरूढ़ हो चारों पत्नियों को चारों ओर तथा मध्य में स्वयं विराजमान हो आकाशमार्ग से सत्वर अपने देश लौटा । माता-पिता के चरणों में उपस्थित होकर उन सबका वियोग दूर किया । चारों बहुओं ने सासू के चरणों में प्रणाम कर आशीर्वाद पाया । राजा ने कुमार को अपने सिंहासन पर अभिषिक्त कर स्वयं योग-मार्ग ग्रहण किया । राजा सिंहल सुत ( सिंह ) श्रावक व्रत को पालन करता हुआ न्याय पूर्वक राज्य करने लगा । उसने उत्साह पूर्वक धर्म : Jain Educationa International 1 For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य करने में अपना जीवन सफल किया। जिनालय निर्माण, जीर्णोद्धार, शास्त्र लेखन, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका की भक्ति, औषधालय निर्माण, दानशाला तथा साधारण द्रव्य इत्यादि दसों क्षेत्रों में प्रचुर द्रव्य व्यय किया। दिनोंदिन अधिकाधिक धर्म ध्यान करते हुए गृहस्थ धर्म का चिरकाल पालन कर आयुष्य पूर्ण होने पर समाधिपूर्वक मरकर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर मोक्ष पद प्राप्त करेगा । (२) वल्कलचीरी भगवान पार्श्वनाथ, सद्गुरु और सरस्वती को नमस्कार कर पापों का नाश करने के हेतु कविवर समयसुंदर वल्कलचीरी केवली की चौपई का निर्माण करते हैं। - मगध देश का राजगृह नगर अत्यन्त समृद्धिशाली था। यहाँ भगवान महावीर ने १४ चातुर्मास किये। यहीं धन्ना, शालिभद्र, नन्दन मणिहार, कयवन्ना सेठ, जंबू स्वामी, मेतार्य मुनि, महाराजा श्रेणिक, अभयकुमार आदि महापुरुष हुए हैं, गौतम स्वामी की निर्वाणभूमि भी यही है। एक बार भगवान महावीर राजगृह के गुणशील चैत्य में समवसरे। वनपालक से वधाई पाकर श्रेणिक महाराजा भगवान को वन्दनार्थ चला । उसने मार्ग में एक महामुनि के दर्शन किये जो एक पैर के सहारे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों हाथ ऊँचा किये सूर्य के समक्ष खड़े तपश्चर्या कर रहे थे। सुमुख और दुमुख नामक श्रेणिक के दो राजदूत उधर से निकले। सुमुख ने मुनिराज के त्याग वैराग्य की बड़ी भारी प्रशंसा-स्तुति की तो दुमुख ने कहा-यह कायर और पाखंडी है, अपने बालक पुत्र को राजगद्दी देकर स्वयं तपश्चर्या का ढोंग करता है ! अब शत्रु लोग मौका पाकर आक्रमण करेंगे और इसके पुत्र को मार कर रानियों को बंदी कर लेंगे। इससे यह निःसन्तान होकर दुर्गति का भाजन होगा! . दुमुख के वचन सुनकर मुनिराज के हृदय में पुत्र मोह जगा और उसके मनः परिणाम, रौद्र ध्यान में लीन हो गए, वह मन ही मन शत्रओं के साथ संग्राम करने लगा। श्रेणिक ने हाथी से उतर कर मुनिराज को वन्दन किया और वहाँ से समवशरण में आकर भगवान का उपदेश सुनने लगा। उसने भगवान से 'पूछा-मैंने मार्ग में जिस उग्र तपश्वी राजर्षि को वन्दन किया, वह यदि अभी मरे तो किस गति में जावे ? भगवान ने कहा-सातवीं नरक। श्रेणिक के मन में सन्देह हुआ और क्षणान्तर में फिर प्रश्न किया तो भगवान ने उत्तर दियासर्वार्थसिद्ध ! श्रेणिक ने साश्चर्य कारण पूछा तो भगवान ने कहा दुमुख के वचनों से रौद्र ध्यान में चढ कर जब वह मान'सिक संग्राम रत था तो उसके परिणाम नरकगामी के थे पर जब उसे अपने लोच किये हुए सिर का ख्याल आया तो पश्चात्ताप पूर्वक शुभ ध्यान में आरूढ़ हो गया और भावनाओं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के बल से अशुभ कर्मों को खपा कर इस समय वह अपने आत्म ध्यान में तल्लीन हो रहा है ! श्रेणिक ने पूछा-भगवन् ! राजर्षि ने बालक को राज्य देकर किस लिए प्रव्रज्या स्वीकार की ? भगवन् ने फरमाया पोतनपुर के राजा सोमचंद और उनकी राणी का नाम धारिणी था। एक वार राजा रानी महल में बैठे हुए थे। रानी प्रेमपूर्वक राजा का मस्तक सहला रही थी तो उसने एक श्वेत केश देखकर कहा-देव! देखिये, दूत आ गया है ! राजा ने जब इधर उधर देखकर किसी दूत को न पाया तो रानी से दूत का रहस्य पूछा रानी ने श्वेत केश दिखाते हुए कहा-यह देखिये, जम का दूत ! राजा का हृदय जागृत हो गया, उसने कहा-मेरे पूर्वजों ने तो श्वेत केश आने से पहिले ही राज पाट त्याग कर दीक्षा स्वीकार कर ली थी पर खेद है कि मैं अभी तक मोह माया में फँसा हुआ हूँ। क्या करूँ अभी पुत्र प्रसन्नचंद्र छोटा है। अतः तुम उसके पास रहो, मैं तो वनवासी बनूँगा! रानी ने कहा-मैं तो आपके साथ ही छाया की तरह रहूँगी! पुत्र राजसुख भोगता रहे ! अंत में राजा सोमचंद्र और धारिणी ने पुत्र को राजगद्दी पर बैठा कर स्वयं तापसी दीक्षा स्वीकार कर ली वे तपसाश्रम की कुटिया में रहने लगे। रानी इंधन लाती, गोबर से कुटिया में लीपन करती। राजा वन-व्रीहि लाता और रानी तृणों की शय्या बिछाती, इस तरह दोनों कठिन तप करते हुए वन में रहते। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) आश्रम में रहते हुए सोमचंद्र ने जब रानी धारिणी को गर्भवती देखकर उसका कारण पूछा तो रानी ने कहा-मेरे गृहस्थावस्था में ही गर्भ था पर दीक्षा लेने में अन्तराय पड़ने के भय से मैंने उसे अप्रकट रखा। गर्भकाल पूर्ण होने पर धारिणी ने पुत्र प्रसव किया और तत्काल बीमार होकर मर गई। वल्कलवस्त्र में लपेटा हुआ होने से पिता ने उसका 'वल्कलचीरी' नाम दिया। कुछ दिन तक तो धाय माता ने उसका लालन पालन किया पर जब वह भी काल प्राप्त हो गई तो पिता ने उसे भैंस का दूध, वनफल और बिना बोये हुए अन्न से पाल पोष कर बड़ा किया। वल्कलचीरी मृगशावकों के साथ खेलता, पढ़ता-लिखता और पिता की सेवा किया करता। वह तरुण हो जाने पर भी भोला-भाला ब्रह्मचारी था, स्त्री जाति क्या होती है ? यह भी उसे मालूम नहीं था। राजा प्रसन्नचंद्र ने जब सुना कि धारिणी माता पुत्र प्रसव करने के बाद दिवंगत हो गई और मेरा भाई अब तरुण हो गया है तो उसका हृदय भ्रातृ स्नेह से अभिभूत हो गया। वह उसे देखने के लिए उत्कण्ठित हुआ। उसने चित्रकारों को आश्रम में भेज कर वल्कलचीरी का चित्रपट बनवा कर मँगाया । जब चित्रकारों ने उसका चित्र राजा को लाकर दिया तो उस सुन्दर तरुण भ्राता के चित्र को हृदय से लगाकर विचार करने लगा कि पिताजी तो वृद्धावस्था में वैराग्यपूर्ण हृदय से दुष्कर तप करते हैं पर मेरा छोटा भाई इस तरुण अवस्था में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) जंगल में कष्ट पाता है और इधर मैं राज्य ऋद्धि भोगता हूँ अतः मुझे धिक्कार है ! उसने भाई को नगर में बुलाने के लिए कई वेश्याओं को आज्ञा दी कि तुम लोग तापस-वेश करके आश्रम में जाओ और अपने हाव-भाव, कला-विलास से आकृष्ट कर मेरे भाई वल्कलचीरी को शीघ्र यहां ले आओ ! तरुणी वेश्याएं बील, फलादि लेकर तापसाश्रम पहुँची । वल्कलचीरी ने अतिथि आये जान कर उनका स्वागत करते हुए पूछा कि आप लोग किस आश्रम से आये हैं ? उन्होंने कहा हम लोग पोतन आश्रम में रहते हैं ! जब वल्कलचीरी ने उन्हें वन - फल खाने को दिये तो उन्होंने अपने लाए हुए फल उसे देते हुए कहा कि - देखो हमारे आश्रम के ये स्वादिष्ट फल हैं, तुम तो निरस फल खाते हो ! वल्कलचीरी ने उनकी सुकुमार देह पर हाथ लगाया और पूछा कि तुम्हारे हृदयस्थल पर ये बील की तरह सुकोमल सुस्पर्श क्या है ? वेश्याओं ने कहाहमारे आश्रम का सुकुमाल स्पर्श और मधुर फल पुण्योदय से ही मिलता है । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो हमारे आश्रम में चलो ! वल्कलचीरी मधुर फलों के स्वाद और अंग स्पर्श से आकृष्ट हो कर पोतन आश्रम चलने के लिए प्रस्तुत हो गया । वेश्याओं ने नये वस्त्र पहिना कर उसके पहिने हुए वल्कल को वृक्ष पर टंगा दिया एवं संकेतानुसार आश्रम से निकल पड़े। वन में जब दूर से ऋषि सोमचंद्र के आने का समाचार उन्होंने सुना तो भय के मारे वेश्याएं भग गई । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) तापसों (वेश्याओं) को न देख कर वल्कलचीरी भयभ्रान्त होकर वन में घूमने लगा, इतने ही मैं उसने एक रथी को देखा और उसे अभिवादन पूर्वक पूछा कि तुम कहां जाओगे ? उसने कहा मैं पोतन जा रहा हूँ ! वल्कलचीरी भी पोतन आश्रम जाने को उत्सुक तो था ही, अतः उससे अनुमति लेकर उसके साथ साथ चलने लगा । वल्कलचीरी रथ के पीछे चलता हुआ रथी की स्त्री को तात ! तात !! कहकर पुकारने लगा । उसकी स्त्री ने जब इस व्यवहार पर आश्चर्य प्रगट किया तो रथी ने कहा - यह ऋषिपुत्र भोला है, इसने कभी स्त्री देखी नहीं है । इसके लिए तो सारा संसार ही तापस है । आगे चलकर वल्कलचीरी ने पूछाबड़े-बड़े मृगों को मारते हुए इस में क्यों चलाते हो ? तो रथी ने कहा- यह इनके कर्मों का दोष है, मैं क्या करूँ ? रथी ने ऋषिपुत्र को खाने के लिए लडू दिये तो उसके स्वाद से प्रसन्न होकर कहा - पोतन आश्रम के तापसों ( वेश्याओं ) ने भी मुझे ऐसे फल दिये थे । वल्कलचीरी जंगल के निरस फलों से विरक्त हो गया और शीघ्र पोतन आश्रम पहुँचने के लिए उसके हृदय में तालावेली लग गई। आगे चलकर एक चोर के साथ रथी की भिड़न्त हो गई । रथी के वार से घायल चोर ने प्रसन्न होकर मरते हुए अपना सारा माल उसे दे दिया । पोतनपुर पहुँचने पर रथी ने धन का बँटवारा करते हुए वल्कलचीरी से कहा- तुम मेरे राह के मित्र हो, अपने हिस्से का यह धन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) संभालो, क्योंकि यहाँ इसके बिना तुम्हें खान-पान या ठहरने को स्थान तक नहीं मिलेगा। ___ वल्कलचीरी पोतनपुर नगर की शोभा देखता हुआ इतस्ततः घूमने लगा। वह वहाँ की ऋद्धि समृद्धि देख कर मन में करता इस आश्रम के लोग बड़े सुखी प्रतीत होते हैं। वह लोगों को देखकर तात ! तात! कहता हुआ अभिवादन करता तो सब लोग उसके भोलेपन की बड़ी हंसी उड़ाते। उसे घूमते घूमते संध्या हो गई पर कहीं रहने को आश्रय नहीं मिला अन्त में वह एक वेश्या के यहाँ जा कर उसे बहुतसा द्रब्य देकर उसके यहाँ ठहरा। वेश्या ने नापित को बुलाकर उसके लम्बे लम्बे नख उतरवाये, जटाजूट को खोलकर सुगंधित तेल और कंघे द्वारा सुसंस्कारित किए। स्नानादि से उसका शरीर निर्मल कर सुसज्जित किया। वल्कलचीरी के ना ना करने पर वेश्या ने कहा-यदि यहाँ रहना हो तो हमारा अतिथि सत्कार चुपचाप जैसे कहते हैं, स्वीकार करो। वेश्या ने उसे वस्त्र आभरण पहिना कर अपनी पुत्री के साथ उसका पाणिग्रहण करा दिया। विवाह के सारे रीति रिवाज देखकर और वेश्यापुत्री के साथ शयनगृह में जाते हुए भोले ऋषिकुमार ने पोतनपुर के अतिथि सत्कार को बड़ा ही आश्चर्यजनक अनुभव किया । इधर जो वेश्याएँ तापस रूप में आश्रम जाकर वल्कलचीरी को बहका लाई थी, वे सोमचन्द्र के भय से भग कर राजा के. पास आई और सारा वृतान्त उससे कह सुनाया। राजा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) प्रसन्नचन्द्र भाई के आश्रम से निकल कर नगर न पहुँचने के कारण बड़ा चिन्तित हुआ और शोकपूर्ण हृदय से रात्रि व्यतीत करने लगा। जब उसने गीत वाजिन सुने तो कहा- मेरे शोकपूर्ण वातावरण में यह जिसके घर गीत वा जित्र हो रहे हैं, उसे पकड़कर लाओ! राजपुरुषों ने वेश्या को राजा के सामने उपस्थित किया । वेश्या ने मधुरवाणी से कहा-राजन् ! ज्योतिषी के वचनानुसार हमारे घर में अनाहूत आये हुए ऋषिपुत्र के साथ मैंने अपनी पुत्री का विवाह किया है। मेरे घर में उसी के सोहले गीत-वाजित्रादि मंगलकृत्य किये जा रहे हैं। मुझे श्रीमान के चिन्ता-शोक का बिल्कुल ज्ञान नहीं था, अतः क्षमा करें! राजाने अपने पास रहा हुआ चित्र दिखाकर विश्वस्त व्यक्तियों को उसे पहचानने के लिए भेजा। और अपने भाई की प्रतीति होने पर महोत्सवपूर्वक गजारूढ़ कर अपने पास राजमहल में बुला लिया। राजाने उसे खान-पान रीति-रिवाज और गृहस्थ के सारे शिष्टाचार सिखाये और कई सुन्दर कन्याओं से विवाह करवा दिया। एक बार बाजार में वल्कलचीरी के साथी रथी को चोर से प्राप्त आभरणों को बेचते हुए, आभरणों के वास्तविक स्वामी ने देखा और उसे गिरफ्तार करवा दिया तो वल्कलचीरी ने अपने मित्र रथी को पहिचान कर छुड़वा दिया। ___ इधर आश्रम से वल्कलचीरी के एकाएक गायब हो जाने से राजर्षि सोमचन्द्र को अपार दुख हुआ। उनके तो वृद्धावस्था Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) में एक मात्र पुत्र का ही आधार था। पुत्र की चिन्ता में राजर्षि झुरते हुए अन्धे हो गए। अन्तमें जब दूसरे तापसों के मुखसे वल्कलचीरी के पोतनपुर पहुँचने के समाचार उन्हें ज्ञात हुए तो कुछ सन्तोष अनुभव किया । वृद्ध तपस्वी के लिये अन्य तापस लोग वनफल आदि पहुंचा कर सेवा सत्कार कर देते थे। वल्कलचीरी को पोतनपुर में बारह वर्ष बीत गए, एक दिन रात्रि के समय वह जगकर अपना आश्रम जीवन स्मरण करने लगा। उसे अपने पिता की याद आ गई और वह अपने को कोटिशः धिक्कारता हुआ पश्चाताप करने लगा। उसने पुनः पिता की सेवा में आश्रम जाने का अपना निश्चय, भाई प्रसन्नचन्द्र के समक्ष व्यक्त किया। दोनों भाई आश्रम के पास पहुंच कर घोड़े से उतर पड़े। वल्कलचीरी आश्रम की सारी वस्तुओं को दिखाते हुए भाई को कहने लगा-यहाँ मैं वनफल इन्हीं वृक्षों से प्राप्त करता, इन्हीं भैंसों को दूह कर पिता-पुत्र हम दूध पीते। इन्हीं मृगशावकों के साथ मैं खेलता हुआ समय निर्गमन करता था। इस प्रकार आश्रम की शोभा देखते हुए दोनों भाई राजर्षि सोमचन्द्र के पास जाकर चरणों में गिरे। और अपने पुत्रों का परिचय प्राप्त होते ही राजर्षि का हृदय हर्षप्लावित हो गया और हर्षाश्रुओं के प्रवाह से उसके आँखों के पटल दूर हो गए। वे लोग परस्पर सारी बीती बातें और कुशलप्रसन्न पूछने लगे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) वल्कलचीरी ने एक कुटी में जाकर तापसोपगरणों को देखा और उनका प्रतिलेखन करते हुए ऊहापोह पूर्वक जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त किया। उसे अपने मनुष्य और देव के भव स्मरण हो आये। उसे साधुपन के आदर्शका ध्यान हुआ और उच्च आत्म भावना भाते हुए लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। देवताओं ने प्रगट होकर साधुवेश दिया। वल्कलचीरी केवलीने प्रत्येकबुद्ध होकर पिता व भाई को प्रतिबोध दिया और स्वयं अन्यत्र विहार कर गए। राजा प्रसन्नचन्द्र वैराग्यपूर्ण हृदय से पोतनपुर लौटे, उनके हृदय में संसार त्याग की प्रबल भावना थी ! __भगवान् महावीर ने कहा-श्रेणिक ! एक दिन हम पोतनपुर के उद्यान में समौसरे प्रसन्नचन्द्र वंदनार्थ आया और उपदेश श्रवणानन्तर अपने बाल पुत्र को राजगद्दी पर स्थापित कर स्वयं हमारे पास दीक्षित हो गया । और अब उग्र तपश्चर्या द्वारा अपनी आत्मा को तपसंयम से भावित करता है। जब भगवान ने इतना कहा तो गगनांगण में देव-दुदुभि सुनाई दी और देवताओं का आगमन हुआ। श्रेणिक द्वारा इसका कारण पूछने पर भगवानने फरमाया कि प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। श्रेणिक राजा ने साश्चर्य राजर्षि की प्रशंसा करते हुए पुनः पुनः वन्दन किया। अन्त में कविवर समयसुन्दर वल्कलचीरी मुनिराज के गुण गाते हुए मोक्ष सुख की कामना करते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) चंपक सेठ कविवर समयसुन्दर जालोर मण्डण पार्श्वनाथ और स्वर्णगिरि के भूषण महावीर भगवान को नमस्कार कर अपने माता पिता व दीक्षा-विद्या गुरु को नमनपूर्वक दान धर्म की विशेषता बताने के लिए चम्पकसेठ की चौपाई निर्माण करते हैं । पूर्व देश में चम्पापुरी नामक समृद्धिशाली नगरी थी जहाँ के ८४ चौहटे, सतमंजिले आवास एवं नगर के इतर वर्णन में कवि ने २३ गाथाओं की ढाल लिखी है। इस नगर में राजा सामन्तक राज्य करता था । इसी चम्पापुरी में वृद्धदत्त नामक एक धनवान व्यापारी रहता था जिसके पास ६६ करोड़ स्वर्णमुद्राएं थीं, पर वह एक पैसा भी खरच न कर कोठे में बन्द कर आठों पहर उसकी रक्षा करता था । सेठ के कौतुकदेवी स्त्री और तिलोत्तमा नामक सुन्दर पुत्री थी । उसके साधुदत्त नामक भाई था, जो सेठ के साथ ही रहता था । वृद्धदत्त सेठ घी, धान्य आदि का व्यापार करने के साथ खेती-बाड़ी, लेन-देन का भी धन्धा करता था पर उसकी शोषक वृत्ति इतनी प्रबल थी कि लोग प्रभात बेला में उसका नाम तक लेना पसन्द नहीं करते । एक दिन स्वर्णमुद्राओं की रक्षा में सोये हुए सेठ को अर्द्धरात्रि के समय एक देव ने आकर चेतावनी दी कि सेठ ! तुम्हारे धन का भोगने वाला उत्पन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) हुआ है। तीन रात तक जब लगातार सेठ को यही संवाद मिला तो वह अपने कष्टोपार्जित द्रव्य को स्वयं अपुत्रिया होने के कारण दूसरे द्वारा भोगने की बात जानकर अत्यन्त चिन्तातुर हुआ। उसने इसके भोगने वाले का पता लगाने के हेतु कुलदेवी की आराधना की और अन्नजल त्याग कर सो गया। सातवें दिन देवी ने प्रत्यक्ष होकर सेठ से पूछा कि तुमने मुझे क्यों आराधन किया। सेठ ने देवी से पूछा कि मेरा धन भोगने वाला कहाँ उत्पन्न हुआ है ? देवी-कम्पिलपुर के त्रिविक्रम वणिक के यहाँ पुष्पवती दासी की कुक्षि में तुम्हारे 'धन का भोक्ता उत्पन्न हुआ है-बतला कर अदृश्य हो गई। दूसरे दिन प्रातःकाल वृद्धदत्त पारणा करने के पश्चात् अपने भ्राता साधुदत्त से एकान्त में इस विषय में विचार विमर्श करने लगा। साधुदत्त ने कहा-देववाणी असत्य नहीं होती, कर्मों के आगे कोई जोर नहीं ! वृद्धदत्त ने कहा-भाग्य करोसे न बैठकर किसी भी उपाय से अपने द्रव्य की रक्षा करनी चाहिए। उद्यम, धैर्य, पराक्रम, बल साहस और बुद्धि के सामने देव भी भय खाते हैं, अतः पुरुषार्थ नहीं छोड़ना चाहिए! साधुदत्त ने कहा-भाग्य के बिना उद्यम का कोई मूल्य नहीं, पपीहा तालाव का पानी पीता है तो गले में से निकल जाता है ! अतः भावी को कोई मिटा नहीं सकता, मैं इस विषय में एक दृष्टान्त सुनाता हूँ ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) भावी न टलसकने पर दृष्टान्त राजा ने उसके चित्रपट देकर रत्नस्थल नगर में रतनसेन नामक राजा अत्यन्त प्रतापी था जिसका पुत्र रत्नदत्त ७२ कलाओं में निपुण और सुन्दर था ।' जब राजकुमार तरुणावस्था को प्राप्त हुआ तो योग्य कन्या की गवेषणा के लिए जन्मपत्री व चारों दिशाओं में सोलह-सोलह व्यक्तियों को भेजा । अतः: सभी लोग योग्य कन्या न पाकर वापस लौट आये, पर जो उत्तर दिशा में गये उन्होंने गंगातटवर्त्ती चन्द्रस्थल के राजा चन्द्रसेन की पुत्री चन्द्रवती को कुमार के सर्वथा योग्य ग्यात कर सम्बन्ध पक्का कर लिया । राजा चन्द्रसेन ने जब उनका लग्न मुहूर्त्त दिखाया तो १६ दिन के बाद ही निकला। मंत्री ने कहा घड़ी भर में योजन भूमि उल्लंघन करने वाले ऊँट को तय्यार कर तुम लोग जाओ, सात दिन जाने और सात दिन आने में लगेंगे, तुरंत वर को ले आवो ताकि विवाह का मुहूर्त्त साथ लिया जाय ! वे पुरुष रत्नस्थल में आये और राजाने तुरन्त कुमार को चन्द्रस्थल के लिए रवाना कर दिया । इधर जो घटना हुई वह बतलाता हूँ । अब समुद्र के बीच चित्रकूट पर्वत पर लंका नामक समृद्धिपूर्ण नगरी का स्वामी त्रिखण्डाधिप रावण राज्य करता था । एक. दिन उसकी सभा में एक नैमित्तिक आया, जिसे रावण ने पूछा कि मेरे जैसे शक्तिशाली का भी कोई घातक होगा ? यदि भविष्य जानते हो तो बतलाओ ! ज्योतिषी ने कहा- अयोध्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) पुत्र होंगे जो बड़े होने तुम्हें कोई भय नहीं है, के राजा दशरथ के यहाँ राम-लक्ष्मण पर तुम्हें मारेंगे ! उनके सिवा दूसरा भावी को कोई मिटा नहीं सकता । इस बात की प्रतीति के. लिए देखो आज से सातवें दिन रत्नस्थल के राजकुमार का विवाह चन्द्रस्थल की राजकुमारी चन्द्रवती से होगा अन्यथा हो जाय तो तुम भी निर्भय हो सकते हो ! रावण ने कहा - इसका क्या ? यह तो अन्यथा करना बिलकुल आसान है ! ज्योतिषी ने कहा - यदि मैं झूठा पड़ा तो पंचांग फ अपनी जनोई तोड़ डालूँगा ! यदि यह सात रावण ने ज्योतिषी की बात मिथ्या करने के लिए राक्षसों को भेजकर बरनोले घूमती हुई राजकुमारी को हरण कर अपने यहाँ मंगा लिया। उसने दांत की पेटी में खान पान की सारी सामग्री सहित राजकुमारी को बन्द कर विद्यादेवी को आदेश दिया कि तुम तिमंगली - मत्स्य का रूप कर अपने मुँह में पेटी रख कर गंगासागर के संगम पर रहो । दिन पूरे होने पर जब मैं तुम्हें याद करूँ तब आ जाना | तिमंगली, रूपी देवी गंगासागर में उद्धमुख करके रहने लगी । कुमारी चन्द्रावती के भय और चिन्ता का कोई पारावार नहीं था। अब रावण ने तक्षक नाग को बुलाकर आदेश दिया कि. रत्नदत्तकुमार जो चन्द्रस्थल के लिए रवाना हुआ है उसे जाकर तुरंत सर्पदंश द्वारा निर्जीव कर दो। वह भयंकर विषधर कुमार को डस कर रावण के पास आया तो रावण ने ज्योतिषी को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) लाकर कहा कि मैंने तुम्हारा कथन अन्यथा कर दिया है । ज्योतिषी ने निर्भयता पूर्वक कहा - ( अभी ७ दिन में क्या होता है देखिये) होनहार नहीं मिट सकती । जब राजकुमार सर्प विष से नीला होकर अचेत हो गया तो बहुत से गारुड़क, वैद्य लोगों को बुलाकर उसे निर्विष करने - का प्रयत्न किया गया पर असफल होने पर बड़े वैद्य की राय से उसे एक मंजूषा में बन्द कर गंगा में प्रवाहित कर दिया गया। गंगा में बहती हुई वह पेटी समुद्र में प्रविष्ट हुई। उस समय तिमंगली ने सोचा उर्द्धमुख कर कुमारी की पेटी को उठाये कष्ट पाते हुए मुझे सात दिन होने आए । अतः अब थोड़ा आराम कर लूँ । उसने पेटी को समुद्रतट पर रख दी और - स्वयं समुद्र में केलि करने के लिए चली गई । राजकुमारी पेष्टी से बाहर निकल कर समुद्र का दृश्य देखने लगी, उसने राजकुमार वाली पेटी को समुद्र की लहरों में बहती देखकर बाहर निकाल ली। राजकुमारी ने पेटी खोलते ही विषाक्त राजकुमार को 'देखकर अमृतपान कराया और अपने हाथ में रही हुई मुहरा की निर्विष मुद्रा के प्रयोग से राजकुमार का सारा जहर उतार दिया। दोनों ने एक दूसरे को पहिचान कर पूरा वृतान्त ज्ञात कर लिया और धूलि की ढिगली करके परस्पर गंधर्व्व विवाह - कर लिया ; राजकुमारी ने समुद्रतट पर रहे हुए बहुत से मोती, माणिक प्रवाल आदि संग्रह कर लिए और दोनों ने गठबंधन प्यूर्वक पेटी में प्रविष्ट होकर वापस उसी प्रकार पेटी बंद कर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) ली। थोड़ी देर में तिमंगली मत्स्य ने आकर पेटी को अपने मुँह में रख लिया। इधर रावण ने ७ दिन की अवधि बीत जाने पर ज्योतिषी के सामने तिमंगली मत्स्य ( देवी ) को बुलाकर जब पेटी को खोला तो उसमें वर-कन्या को विवाहित देखकर उनसे साश्चर्य सारा वृतान्त ज्ञात किया और ज्योतिषी को धन्यवाद देकर विदा किया और वर कन्या को कुशल क्षेम पूर्वक अपने अपने पितृगृह पहुंचा दिया । वृद्धदत्त ने साधुदत्त से उपर्युक्त दृष्टान्त सुनाकर कहा भाई ! तुम भोले हो ! उद्यम के आगे भावी कुछ नहीं, मैं भी तुम्हें एक दृष्टान्त उद्यम पर सुनाता हूँ ! उद्यम से रख में मेख - दृष्टान्त मथुरा नगरी में हरिबल राजा राज्य करता था । उसके. सुबुद्धि नामक मंत्री था । संयोगवश राजा और मंत्री के हरदत्त और मतिसागर नामक पुत्र एक साथ उत्पन्न हुए । मंत्री ने अर्द्ध. रात्रि के समय महल से निकलते हुए एक स्त्री को देखा । मंत्री ने उसका हाथ पकड़ कर पूछा कि तुम कौन हो ! उसने कहा मैं विधाता हूँ और छट्ठी रात्रि का लेख लिख कर आई हूँ ! क्या लिखा है ? पूछने पर उसने कहा - राजकुमार शिकार में एक ही जीव ( पशु-पक्षी ) प्राप्त करेगा और मंत्रिपुत्र अपने मस्तक पर एक ही भारी लावेगा ! मंत्री ने कहा- मुग्वे ! कुल घराने के अयोग्य यह क्या लिखा ? उसने कहा विधि के विधान को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) कौन मेट सकता है ? मंत्री ने कहा-मैं बुद्धिबल से तुम्हारा लेख विघटन कर दूगा और तुम देखती ही रहोगी! .. एक बार मथुरा पर शत्रु सेना का आक्रमण हुआ जिसके साथ युद्ध में वहाँ का राजा हरिबल काम आ गया। मथुरा को लूट कर शत्रुओं ने अपना राज्य जमा लिया। राजकुमार हरिदत्त और मंत्रिपुत्र मतिसागर दोनों नगर से भाग छूटे और भिक्षावृत्ति करते हुए लखमीपुर गांव में पहुंचे। हरिदत्त ने पहले तो एक व्याध के घर काम किया, पीछे अपनी एक स्वतंत्र झोंपड़ी बाँध कर रहने लगा वह शिकार में एक ही जीव प्रतिदिन प्राप्त करता । मतिसागर भी उसी गाँव में इंधन की एक भारी लाकर जैसे तैसे अपना पेट भरता। एक दिन सुबुद्धि मंत्री घूमता फिरता लखमीपुर पहुँचा और उसने अपने पुत्र को इंधन की भारी लाते हुए देखा। उसने कहा बेटा ! यह क्या ? उसने कहा दिन भर धूप सह कर भी एक से दो भारी इंधन नहीं ला सकता! जैसे तैसे दिन निकालता हूँ एवं राजकुमार भी शिकार में एक ही जीव पाकर दिन पूरे करता है ! मंत्री ने मन ही मन सोचा विधाता की बात सच्ची हो रही है पर मुझे उद्यम कर के इनका भाग्य अवश्य ही पलटना है। ___ मंत्री ने मतिसागर से कहा बेटा! जंगल में जाओ पर चंदन की लकड़ी के सिवा दूसरी लकड़ी पर हाथ न डालना ! यदि संध्या पर्य्यन्त चंदन न मिले तो भूखे ही सो जाना ! फिर मंत्री ने राजकुमार से उसका वृतान्त पूछा तो उसने भी कहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) कि मुझे एक से अधिक दूसरा जीव कभी भी शिकार में हाथ नहीं लगता ! मंत्री ने कहा-तुम्हें हाथी मिले तो उसे ही पकड़ना अन्यथा दूसरे जीव पर हाथ न डालना! विधाता ने देखा कि यदि इन दोनों को चंदन और हाथी नहीं प्राप्त कराती हूँ तो मेरा लेख झूठा हो जाता है, अतः वह प्रतिदिन एक भारी चंदन और एक हाथी दोनों को प्राप्त कराने लगी। मंत्री उन दोनों से प्रतिदिन उनकी भारी व शिकार लेकर संग्रह करता गया। कुछ अरसे में हजार हाथी और चंदन के मूल्य से करोड़ों रुपये एकत्र कर लिये। इस प्रकार उसने महर्द्धिक हो जाने पर सेना एकत्र की व मथुरा पर चढ़ाई कर शत्रुओंको मार भगाया और राजकुमार को अपना पैतृक राज्य दिला दिया। जिस प्रकार मंत्री ने उद्यम का आश्रय लेकर विधाता के लेख में मेख मार दी इसी प्रकार मैं भी देखना साधुदत्त भाई ! देववाणी को अन्यथा करूँगा! क्योंकि मेरी लक्ष्मी का भोक्ता कोई और ही व्यक्ति हो जाय, यह मैं सहन नहीं कर सकता ! (मैं पुष्पवती दासी को ही समाप्त कर दूंगा तो उसका पुत्र मेरे धन का स्वामी कैसे होगा ? ) __ अब वृद्धदत्त, अपना कार्य सिद्ध करने के हेतु ऊंठ, गाडी और बैलों पर प्रचुर माल भर के कंपिलानगरी में गया और एक दुकान लेकर व्यापार करने लगा। वह अपनी दुकान में सब तरह की वस्तु रखता और नगद दाम से माल बेचता। उसने अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए त्रिविक्रम सेठ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) और पुष्पवती दासी का पता लगा लिया और सेठ से मित्रता गांठने के लिए आवश्यक वस्तुएं बिना मूल्य उधार देना प्रारम्भ कर दिया। सेठ त्रिविक्रम ने भी उसके भोजनादि का प्रबन्ध अपने यहाँ कर दिया। वृद्धदत्त ने त्रिविक्रम के परिवार को खुले हाथ उपहारादि देकर अपने वश में कर लिया। वृद्धदत्त ने कुछ दिन बाद व्यापार सलटा कर चम्पानगर लौटने की तय्यारी कर त्रिविक्रम से अन्तिम जुहार करते हुए बिदा माँगी। त्रिविक्रम ने कहा-चार महीनों की प्रीति अविचल रहे और जो कुछ ऊंट, बैल. घोड़ा आदि सामग्री चाहिए, निसंकोच ले. जाइये ! सेठ वृद्धदत्त ने कहा-आपकी कृपा से हमारे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है पर आपका इतना ही आग्रह है तो मार्ग में भोजनादि की सुविधा के लिए पुष्पश्री दासी को हमारे साथ भेज दीजिए ! घर पहुँचते ही मैं इसे आपके पास सुरक्षित लौटा दूंगा! त्रिविक्रम ने कहा-यद्यपि इसका विरह असह्य है और इसके बिना घर में भी नहीं सरता, फिर भी आपका कथन तो रखना ही पड़ेगा ! ___ वृद्धदत्त ने वहिली (वाहन) में पुष्पश्री को बिठा कर प्रयाणः किया। जब ये लोग उज्जैन के निकट पहुँचे तो जकात से बचने के बहाने सारे साथ को आगे रवाने कर दिया और स्वयं पुष्पश्री के साथ रहा । उसने एकान्त पाकर पुष्पश्री को वहिली. से नीचे गिरा कर लातों की निर्दय मार से मरणासन्न कर दिया। जब वह अचेत हो गई तो वृद्धदत्त उसे मृतक समझ कर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३३ ) छोड़ भागा और अपने साथ से जा मिला। साथ वालों के पूछने पर कहा कि पुष्पश्री देह-चिन्ता के बहाने कहीं भग गई, मैं ने उसकी बहुत खोज की पर पता नहीं लगा अब दाणी ( जकात के अधिकारी ) लोग अपने को आ घेरेंगे । अतः शीघ्र आगे बढ़ो ! वृद्धदत्त ने कंपिला में त्रिविक्रम के यहाँ कहला दिया कि पुष्पश्री कहीं भग गई, उसकी वाट न देखें! इसके बाद वृद्धदत्त निश्चिन्त होकर चम्पापुरी अपने घर लौट आया। इधर वृद्धदत्त के द्वारा मार्मिक चोट खाई हुई दासी अधिक देर जीवित न रह सकी। उसने मरते मरते सुन्दर और स्वस्थ बालक को प्रसव किया। थोड़ी ही देर में उज्जैन की ओर आती हुई एक वृद्धा ने यह स्वरूप देखा तो उसने समझा किसी दुष्ट ने वैर वश यह चाण्डाल कर्म किया है, यदि चोर मारते तो इसके अंग पर एक भी आभरण नहीं बच पाता ! उसने दयापूर्वक नवजात बालक को ले लिया और आभूषणों की गठड़ी बाँध कर उज्जैन ले आई। उसने राजा के समक्ष आभूषण और उस सुन्दर बालक रखते हुए सारा वृतान्त कह सुनाया। राजा ने इसके लिए धन्यवाद देते हुए वृद्धा को आदेश दिया कि बालक का भरण-पोषण सुचारु रूप से करना ! तदनन्तर राजा ने पुष्पश्री की देह का अंतिम संस्कार भी राजपुरुषों द्वारा करवा दिया। वृद्धा ने बालक को अपने घर ले जाकर जन्मोत्सव मनाया और चम्पक वृक्ष के नीचे प्राप्त होने से उसका नाम भी चम्पक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) कुमार ही रखा। राजा ने कहा-जो भी वस्तु चाहिए, हमारे यहाँ से मंगा लेना, पर बच्चे के भरण-पोषण में न्यूनता न करना। जब चम्पक आठ वर्ष का हुआ तो उसे पाठशाला में भेजा गया, वह अल्पकाल में ही अपने बुद्धिबल से बहत्तर कलाओं में निष्णात हो गया। एक बार दूसरे बच्चों द्वारा उसे बिना बाप का कहने पर चम्पक ने वृद्धा से अपना सारा वृतान्त ज्ञात किया और अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए व्यापार प्रारम्भ कर दिया। थोड़े दिनों में उसने प्रचुर द्रव्योपार्जन कर लिया और वह राजमान्य हो गया। राजा ने उसे नगरसेठ की पदवी दी और व्यापार विस्तार से वह चार करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का स्वामी हो गया। एक वार चम्पकसेठ अपने मित्र की बरात में चम्पानगर के निकटवर्ती किसी गाँव में गया। वहाँ कन्या का पिता वृद्धदत्त का मित्र था। अतः वृद्धदत्त भी विवाह समारोह में सम्मिलित हुआ था। बाराती लोग सब मौज शौक में घूम रहे थे। चम्पक सेठ भी वापी पर जब दतवन कर रहा था तो वृद्धदत्त से साक्षात्कार हो गया। वृद्धदत्त इसके शालीनता और सौन्दर्य पर मुग्ध होकर मन ही मन अपनी पुत्री के योग्य वर ज्ञात कर जात-पाँत पूछने लगा। सरल स्वभावी चम्पक सेठ ने अपनी उत्पत्ति का यथाज्ञात वृतान्त कह सुनाया। उसे सुनकर वृद्धदत्त के हृदय पर साँप लोटने लगे। उसे अपने धन के भोक्ता के बच जाने और देवी-वचन सत्य For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने की प्रतीति होने लगी, फिर भी वह उद्यम पूर्वक दूसरी बार हत्या की घात सोचने लगा। उसने कहा-आप अपने साथ को छोड़कर मेरे साथ रहिए। हमारे यहाँ मजीठ अत्यन्त सस्ती है और उज्जैन में उसके सीधे दुगुने होंगे। अतः द्रव्योपार्जन का एकान्त लाभ उठाने के लिए दूसरों से अज्ञात मजीठ की खरीदी प्रारम्भ कर देनी चाहिए, क्योंकि दूसरे व्यापारी जान लेने पर वे भी खरीद प्रारम्भ कर देंगे और फिर अपने को ही ऊँचे दामों में बेचेंगे! चम्पानगर में मेरा भाई साधुदत्त है, मैं उसके नाम पत्र लिख देता हूँ। इस व्यापार में जो लाभ होगा उसे अपन आधा-आधा बाँट लेंगे। ___ व्यापार में लाभ प्राप्त करने के लोभ से चम्पक ने चम्पानगर जाना स्वीकार कर लिया । वृद्धदत्त ने अपने भाई के नाम से एक पत्र लिख कर चम्पक को दिया, जिसमें लिखा कि इसने भरे बाजार में मुझे बेइज्जत किया है और हमारा परम शत्रु है। अतः बिना कुछ हया दया लाये व आगा पीछे सोचे इसे मारकर कुएँ में डाल देना एवं काम हो जाने पर मेरे पास बधाई देकर आदमी भेज देना! __चम्पक सेठ पत्र लेकर चम्पानगर वृद्धदत्त के घर पहुंचा। उस समय साधुदत्त कहीं तकादा उगाहने के लिए गया हुआ था एवं गृहस्वामिनी कौतिगदे भी घर से बाहर गयी हुई थी। अतः घर में वृद्धदत्त की पुत्री तिलोत्तमा अकेली ही फूलदड़े Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) से खेल रही थी। चम्पक सेठ ने तिलोत्तमा को पत्र दिया। उसने पत्र खोलकर पढ़ा तो उसमें देवकुमार सदृश गुणवान कुमार को बध करने की पितृ-आज्ञा देख कर सन्न रह गई। उसने कुमार चम्पक को स्वागतपूर्वक ठहराया और घोड़े वहिली शाला में बँधवा दिये। तिलोत्तमा पूर्वजन्म के संयोगवश सोचने लगी कि-पिताजी ने यह क्या पापकार्य सोचा ? यदि सौभाग्यवश यह मेरा पति हो जाय तो मैं अपनेको धन्य मान! उसने पिता के अक्षरों में दूसरा पत्र लिखकर तैयार किया और माँ के आने पर उसे सौंप दिया। सन्ध्या समय साधुदत्त भी घर आ गया। सब की उपस्थिति में पत्र पढ़कर देखा तो उसमें लिखा था कि आज सन्ध्या के शुभ लग्न में चम्पक के साथ तिलोत्तमा का ब्याह कर देना। समय कम था, पर साधुदत्त ने थैलियों का मुंह खोल दिया और बड़े धूमधाम से महोत्सवपूर्वक चम्पक सेठ के साथ तिलोत्तमा का पाणिग्रहण करा दिया। चम्पक की मृत्यु के समाचार सुनने के उत्सुक वृद्धदत्त ने जब याचकों के मुख से तिलोत्तमा के साथ उसका पाणिग्रहण होने का संवाद सुना तो वह मन ही मन जल भुन गया। वृद्धदत्त घर आया और जानी-मानी जीमते देखकर शीघ्रतापूर्वक काम तमाम करने के लिये ऊपरी मन से धन्यवाद देने लगा। विवाह कार्य निपटने पर उसने साधुदत्त से कहा--भाई ! तुमने यह क्या अनर्थ कर डाला ? साधुदत्त ने कहा-यह देखिये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) आपका पत्र, इसी के अनुसार मैंने सारा काम किया है, इसमें मेरा कोई दोष नहीं ! सेठ ने सारी करतूत तिलोत्तमा की ज्ञात कर चुप्पी साध ली । चम्पक का ब्याह चंपापुर में हुआ, ज्ञात कर सारे बाराती उज्जैन चले गये और जाकर बूढ़ी माँ से चम्पककुमार के ब्याह की बधाई दी । अब चम्पक सेठ आनन्दपूर्वक चम्पानगरी में रहने लगा । एक बार सीयाले की रात में तिमंजिले महल में अपने पति के साथ सोई हुई तिलोत्तमा किसी कार्य से नीचे उतरी तो दुमंजिले में उसने वृद्धदत्त द्वारा अपनी स्त्री को कहते 'सुना किलिखा तो कुछ और ही था और हमारे कर्म दोष से हो गया कुछ और ही ! इस जंवाई की जात-पाँत का कोई पता नहीं ओर यहाँ रहते ये हमारे घर का स्वामी हो जायगा । अतः पुत्री का मोह त्याग कर जंवाई को विष देकर मार्ग लगा दो ! पति के आग्रह से कौतिगदे ने उपर्युक्त बात स्वीकार कर ली । तिलोत्तमा ने जब यह बात सुनी तो वह विचित्र धर्म संकट में पड़ गई । यदि वह पति से कहती है तो पिता की जान को खतरा और न कहे तो पति के मारे जाने का भय । इधर बाघ और उधर कुआ देखकर उसने पति से कहा- प्रियतम ! शकुन निमित्त के बल से मुझे आप पर दो महीना भारी संकट मालूम देता है अतः आप कृपा कर इस घर में भोजन पानी कुछ भी लें यावत् पान तक न खाएँ । दिन भर मित्रों के यहाँ खान पान कर घूमते रहें एवं रात्रि के समय यहाँ आवें और सुबह न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) होते ही फिर निकल पड़ें! चम्पक ने अपनी स्त्री का यह कथन स्वीकार कर लिया । अब वह दिन भर मित्रों के साथ निश्चित घूमता रहता । वृद्धदत्त ने एक दिन फिर अपनी स्त्री से कहा- तुमने मेरा कथन नहीं किया ? उसमें कहा - मेरा क्या दोष । वह अपने घर खाना पीना तो दूर, दिन भर में आता ही नहीं है ! वृद्धदत्त यह सुनकर दूसरी घात सोचने लगा । उसने विश्वासी सुभटों को बुलाकर कहा- तुम लोग मौका पाकर चम्पक सेठ को मार डालो ! काम हो जाने पर प्रत्येक को सौ-सौ स्वर्ण मुद्राओं से पुरष्कृत करूँगा । सुभट लोग जब घात में रहने लगे तो चंपक सेठ ने अपने साथ शस्त्रबद्ध अंगरक्षक रखना प्रारम्भ कर दिया । छः मास बीत जाने पर भी सेठ के सुभटों को कोई अवसर न मिला । एक दिन रात्रि के समय राही रूप धारण कर खेलने वाले रावलियों का खेल हो रहा था तो चम्पक भी वहाँ बैठ गया । चम्पक के अगरक्षक रात्रि में घर के निकट निर्भय ज्ञात कर अपने घर चले गये । खेल समाप्त होने पर चम्पक अकेला घर आया, उसकी आँखें घुल रही थी । अतः प्रतोली में बिछे हुए तापड़ पर सो गया, उसने सोचा रात के समय कोलाहल कर क्या किंवाड़ खुलाना है ! उसे सोते ही नींद आ गई । वृद्धदत्त के सुभटों ते उसे सोते हुए देखा और मारने को प्रस्तुत हुए पर चंपक के भाग्य बल से उन्होंने फिर सोचा कि बहुत दिनों की पुरानी आज्ञा है, सेठ का जंवाई ही है अतः सेठ को फिर से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) पूछ लेना चाहिए ! सुभटों ने वृद्धदत्त से पूछा तो उसने कहासत्वर उसका काम तमाम कर डालो! इधर खटमलों के उपद्रव से जग कर चंपक सेठ, द्वार खुला देखकर वहाँ से उठ अपने महल में जाकर प्रिया के पास सो गया। सुभटों ने जब चंपक को न देखा तो समझा शरीर चिन्ता के लिए गया होगा, अभी आ जायगा ! वे लोग इतस्ततः छिप गए और तय कर लिया कि सब लोग उसके आने पर एकाएक आकर टूट पड़ेंगे ! इधर वृद्धदत्त के मन में तालावेली लगी हुई थी ही, वह देखने के लिए आया तो वहाँ किसी को न देखकर स्वयं उस स्थान पर सो गया। थोड़ी देर में सुभटों ने सोये हुए वृद्धदत्त को चंपक के भरोसे एक साथ मिलकर वार कर मार डालो और कुएँ में फेंक दिया एवं प्रातःकाल इनाम पाने की आशा में हर्षित होकर वे अपने घर चले गये। प्रातःकाल जब वृद्धदत्त की लाश को कुएँ में तैरते देखा तो उन्हें बड़ा भारी पश्चात्ताप हुआ। साधुदत्त ने जब भाई की मृत्यु सुनी तो वह भी छाती फट कर मर गया। बारह दिन होने पर भाई और पुत्र के अभाव में सब लोगों ने वृद्धदत्त सेठ का उत्तराधिकारी चम्पक सेठ को बना दिया, जिससे वह ६६ कोटि स्वर्णमुद्राओं का स्वामी हो गया। चम्पक सेठ ने ६६ कोटि स्वर्णमुद्राएँ हस्तगत करके उज्जैन से वृद्धा माता को भी १४ कोटि स्वर्णमुद्राओं के साथ चम्पापुरी बुला लिया। उसने अपने बुद्धि बल और पूर्व पुण्य से इतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) व्यापार विस्तार किया कि उसके ६६ कोटि मुद्राएँ निधान में १६ कोटि व्यापार में एवं ६ कोटि व्याज सूद में लगती थी। उसके १००० वाहन, १००० गाडे, १००० सतमंजिले घर, १००० दुकानें, १००० भण्डशालाएँ, ५०० हाथी, ५०० अंगरक्षक, ५००० घोड़े, ५००० सुभट, ५०० ऊँट, १०००० पोठिये, १ लाख बलद, १०० गोकुल (प्रति १०००० गायें), १०००० व्यापारी थे। उसके घर में लाख रुपया प्रतिदिन का खरच था। १० लाख दान-पुण्य में खरच होते। वह प्रति दिन देवपूजा, सामायक, प्रतिक्रमण, स्वधर्मीवात्सल्य किया करता। उसने १००० जिनालय एवं लाखों जिन बिबादि का निर्माण करवाया। पूर्व जन्म वृतान्त___एक बार चम्पापुरी के उद्यान में केवली भगवान पधारे। चंपक ने उनके चरणों में उपस्थित होकर अत्यन्त विनय-भक्ति से उपदेश श्रवण किया। अन्त में उसने पूछा-भगवन् ! मैंने पूर्व जन्म में ऐसे क्या पुण्य किये थे, जिससे इस जन्म में अगणित लक्ष्मी मिली ? वृद्धदत्त ६६ कोटि मुद्रा पाकर भी भोग न सका, मेरा अज्ञात कुल होने पर भी वृद्धा ने अत्यन्त प्रेम से पालन किया, मुझ निरपराध को मारने के लिए वृद्धदत्त ने क्यों बारम्बार प्रयास किये ? केवली भगवान ने कहा इन सारी बातों का कारण पूर्व जन्म में किये हुए अपने शुभाशुभ कर्मों का विपाक है, उसे ध्यान पूर्वक सुनो! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमेलिका नगरी के वन में तापसों का आश्रम था, जिसमें भवदत्त और भवभूति नामक तापस कन्द-मूल खाकर पंचाग्नि साधना करते थे। इनमें भवदत्त कुटिल बुद्धि और भवभूति सरल स्वभावी था। दोनों मर के यक्ष हुए, फिर भवदत्त तो अन्यायपुर पाटण में वंचनामति सेठ हुआ और भवभूति पाडलीपुर में महासेन नामक क्षत्रिय हुआ। वह बड़ा पुण्यात्मा था, एक बार वह तीर्थयात्रा के लिए निकला तो आवश्यक व 'सारभूत द्रव्य अपने साथ ले लिया और फिर अन्यायपुर पाटण में उसने वंचनामति सेठ के यहाँ एक गाँठ अनामत रखी, जिसमें पाँच बहुमूल्य रत्न भी थे। महासेन तो सेठ पर विश्वास करके तीर्थयात्रा में चला गया। इधर सेठ ने गाँठ खोलकर देखी और पाँच रत्न पाकर वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने उनमें से एक रत्न लेकर एक लाख में किसी महर्द्धिक के यहाँ गिरवे रख दिया और स्वयं उन रुपयों से ऊँची हवेली बनाकर रहने लगा। अवशिष्ट चार रत्नों को उसने गुप्त रूप से छिपा कर रख लिया ! जब महासेन तीर्थयात्रा से लौटा तो उसने वंचनामति सेठ से अपनी धरोहर वापिस माँगी। सेठ ने कहा-तुम कौन हो ? मैं तुम्हें पहचानता भी नहीं एवं न मैं किसी की धरोहर अपने यहाँ रखता हूँ ! महासेन यह सुनते ही खिन्न होकर सोचने लगा कि ये वणिक भी कैसा चौहटे का चोर है, प्रत्यक्ष दी हुई वस्तु को डकार जाने में नहीं हिचकिचाता, यों क्रय-विक्रय में लूटना तो वणिकों की वृत्ति ही हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) गई है। अब क्या उपाय करूं ? अन्त में न्याय की शरण लेने के विचार से राजसभा में गया और वहाँ के राजा, न्यायपद्धति आदि की आवश्यक जानकारी प्राप्त की। इस अन्यायपुर पाटण का राजा निर्विचार, तलारक्षक सर्वलूटाक और मुंहता सर्वङ्गिल था। यहाँ का राजगुरु अज्ञानराशि और राजवैद्य जन्तुकेतु था। नगरसेठ वही वंचनामति और पुरोहित का नाम सिलापात था । वहाँ की कपटकोशा वेश्या अपने दांव-पेच में बड़ी निष्णात है। यह सब खेल जान कर उसने सोचा मैं अपने रत्न किस युक्ति से प्राप्त करूँ ? इतने ही में एक वृद्धा ने रोते कलपते हुए आकर राजा के पास पुकार की कि-महाराज ! मेरा न्याय कीजिये, मैं अत्यन्त दुखिनी ही गई ! राजा ने कहा मैं न्याय करूँगा, तुम अपना दुख कहो! वृद्धा ने कहा-मैं आपके नगर में रहती हूँ, किसी से लड़ाई-झगड़ा न कर शान्ति से रहती हूँ। राजाने कहाडोकरी कैसी सुशील है ! इसकी अवश्य न्याय सहायता की जायगी! वृद्धा ने कहा-मैं चोर की माँ हूँ, मेरा पुत्र प्रसिद्ध चोर था, आज वह देवदत्त के घर चोरी करने गया, जब वह खात डालने के लिए दीवाल के नीचे बैठा तो जर्जर दीवाल गिर पड़ी और मेरे पुत्र की मृत्यु हो गई। मेरे एक ही पुत्र था, अब मेरा कौन आधार ? राजा ने कहा तुम निर्दोष हो, अपने घर जाओ, देवदत्त को मैं दण्ड दूंगा! राजा ने देवदत्त को बुलाकर कहा-तुमने जर्जर दीवाल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों बनाई ? जिससे चोर दब कर मर गया, अब इस डोकरी का कौन सहारा ? देवदत्त ने कहा राजन् ! मेरा क्या दोष मैंने तो सूत्रधार को पूरी मजूरी दी, कमजोर भीत का जिम्मे-- वार वह है ! राजा ने सूत्रधार को बुलाकर पूछा तो उसने कहा' मैं तो अच्छी तरह दीवाल बना रहा था पर देवदत्त की तरुण पुत्री सोलह शृंगार सज कर आ खड़ी हुई तो मेरी चंचल दृष्टि उस पर पड़ गई और दीवाल की इंटे शिथिल बन्ध वाली हो गई। देवदत्त की पुत्री को पूछने पर उसने कहा-मैं नग्न परिव्राजक को देख कर लज्जावश उधर चली गई। राजा ने परिव्राजक से बुलाकर पूछा कि तुम क्यों इस मार्ग में आए ? उसने कहा-आपके जंवाई ने घोड़ा दौड़ाया तो मैं क्या करूं ? राजा ने जंवाई से पूछा कि तुमने घोड़ा क्यों दौड़ाया। जंवाई ने देखा कि सब ने अपने माथे से आपत्ति उतार दी तो मुझे भी किसी युक्ति का आश्रय लेना चाहिए ! उसने कहा कि मैं तो कर्म-विधाता की प्रेरणा से आया मेरा क्या दोष ? राजा ने मंत्री से कहा मंत्री ! विधात्रा को शीघ्र बुलाओ ! मैं अन्याय नहीं सहन कर सकता! प्रधान ने कहा-आपके तेज प्रताप से डर कर काँपती हुई वह कही भग गई है, मैंने सब जगह शोध के लिए पुरुष भेजे पर मिली नहीं, अब तो दूसरे दिन खबर लगेगी ! राजा ने कहा-कोई बात नहीं आज देर भी हो गई, कल पर बात, कोई जल्दी थोड़े ही है ! महासेन ने देखा इस राजा के न्याय के भरोसे तो मेरे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) 'पांच रत्न गये ही समझना चाहिए। उसने कुछ सोच कर कपट• कोशा वेश्या का आश्रय लिया और उसे अपनी दुख गाथा कह · सुनाई । वेश्या ने उसपर दया लाकर के कहा-तुम निश्चित रहो, मैं तुम्हारे रत्न निकलवा दूंगी ! वह अपने घर में गई और ‘उत्तम वस्त्र, मणि माणिक आभरण, कस्तूरी, कर्पूरादि बहुमूल्य वस्तुएं एकत्र कर सबको पेटी में भर, ऊँट पर चढ़ कर वंचना•मति सेठ के घर गई । तीन चार सखियों के साथ सेठ के पास ‘जाकर उसने हाँफते हुए कहा-सेठ जी ! मेरी बहिन वसंतपुर में मरणासन्न पड़ी है और मुझे शीघ्र बुलाया है, अतः मैं उससे 'मिलने जाती हूँ, आप मेरी माल-मता धरोहर रूप में रखिये, क्योंकि आप ही सर्वथा मेरे विश्वास भाजन हैं। यदि मेरी बहिन मर गई तो मैं भी अवश्य उसके साथ जल मरूंगी, यदि आपको मेरी मृत्यु के समाचार मिल जाय तो आप सारा धन (पुण्य कार्यों में ) खरच डालना! वंचनामति सेठ ने सोचा यह मर जायगी तो अच्छा हो जायगा, करोड़ों की जवाहरात मैं सहज में ही हजम कर सकंगा ! इतने ही में पूर्व संकेतानुसार महासेन आकर उपस्थित हो गया और धरोहर में रखे अपने 'पाँच रत्न माँगने लगा। सेठ ने वेश्या का माल हजम करने के लोभ में आकर अपनी प्रतीति जमाने के लिए महासेन के पांच 'रत्न लौटा देना ही उचित समझा और तुरत चार रत्न निकाल के दे दिये। पाँचवाँ रत्न भी जो धनावह सेठ के यहाँ रखा हुआ था, पुत्र के द्वारा बदले में अपनी सम्पति को गिरवे रख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) कर छुड़ा मँगाया। महासेन को अब अपने पाँचों रत्न मिल. गए। इतने ही में पूर्व संकेतानुसार कपटकोशा को बधाई मिली कि आपकी बहिन स्वस्थ हो गई है उसने कहलाया है कि आप यहाँ आने का कष्ट न करें। मैं स्वयं मिलने के लिए आ जाऊँगी ! वेश्या प्रसन्न होकर नाचने लगी। महासेन भी रत्न प्राप्ति के हर्ष में नाचने लगा, तो वंचनामति भी उनके नाच में सहयोगी हो गया। लोगों ने जब इसका कारण पूछा तो वेश्या ने बहिन के जीने का, महासेन ने रत्न प्राप्ति का कारण बतलाया। वंचनामति ने कहा-मैं अपने जीवन में आज ही कपटकोशा से ठगा गया हूँ, जिसने मेरे महल को अडाने रखा कर महासेन के पाँच रत्न वापस दिला दिए । इसने खूब किया,. यह सोचकर नाच रहा हूँ। इसके बाद वंचनामति ने विरक्ति पाकर तापस का व्रत स्वीकार कर लिया। कपटकोशा को सब लोग धन्यवाद देने लगे। महासेन अपने नगर में आकर सुख-. पूर्वक रहने लगा। ___ एक बार उसके देश में महान दुष्काल पड़ा, जिसका वर्णन कविवर ने दूसरे खण्ड की छठी ढाल में विस्तार से किया है और सं० १६८७ के भयंकर दुष्काल से उसका तुलना की है। . महासेन ने इस दुष्काल के समय पाँचों रत्न बेचकर धान्य का प्रचुर संग्रह किया और सार्वजनिक दानशाला खोलकर दीन-दुखियों का बड़ा उपकार किया। जो लोग संकोच व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवश उसके वहाँ मांगने नहीं आते, उन्हें वह गुप्त रूप से सहायता पहुंचाता। उसने रोगियों के लिए चिकित्सालय खोल दिये। एक दिन एक वृद्धा को, जिसके क्षुधा के मारे अजीर्ण, शोथ आदि की भयंकर व्याधि हो गई थी, महासेन ने अपने घर लाकर सेवा सुश्रुषा कर स्वस्थ किया। महासेन की स्त्री गुणसुन्दरी ने भी दीन अनाथों की बड़ी सेवा सुश्रुषा की। इस बारहवर्षी दुष्काल के समय आश्रित लोगों को महासेन के यहाँ बड़ी शान्ति मिली और उसने सुकाल होने पर सत्कारपूर्वक उन्हें अपने घर भेज दिये। केवली भगवान ने कहा-महासेन के भव में तुमने जो अनुकम्पा दान किया उसके प्रभाव से तुम इस भव में समृद्धिशाली चंपक सेठ हुए ! गुणसुन्दरी का जीव तिलोत्तमा हुई। दुष्काल के समय तुमने जिस वृद्धा की सेवा सुश्रुषा की वह उज्जैन में उत्पन्न हुई और इस भव में उसने तुम्हें पालपोष कर बड़ा किया। वंचनामति का जीव वृद्धदत्त हुआ, तुम्हारे उसने पांच रत्न लिए थे तो इस भव में उसके ६६ करोड़ के तुम स्वामी हुए। तुमने गत भव में कुल मद किया। अतः इस भव में दासी पुत्र हुए, तुमने वंचनामति को पूर्व भव में अपभ्राजित किया। अतः उसने तीन बार तुम्हें मारने का प्रयत्न किया । पूर्व भव का वृतान्त सुनकर चंपक सेठ का ह्रदय वैराग्य वासित हो गया। उसने तिलोत्तमा के साथ बड़े ठाठ से संयम धर्म स्वीकार किया। शुद्ध संयम पाल कर वह देवलोक में देव हुआ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) अन्त में चंपक वहाँ से च्यवकर मनुष्य भव पाकर महाविदेह क्षेत्र में दीक्षा लेकर मोक्षगामी होगा । सं० १६६५ में अपने प्रिय शिष्य के आग्रह से कविवर समयसुन्दर ने जालोर में अनुकम्पा दान पर इस दृष्टान्तआख्यान की रचना की । (४) धनदत्त श्रेष्ठी चौपई सार शान्तिनाथ भगवान् को नमस्कार कर कविवर समय सुन्दर ने व्यवहार शुद्धि के विषय में धनदत्त श्रेष्ठी की चउपई प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम श्रावक व्रतोपयोगी २१ गुणों को बतलाया है १ वाणिज्य व्यवसाय में न न्यून दे, न अधिक ले, अच्छी वस्तु को बुरी न कहे, बुरी को अच्छी न कहे, जिस समय देने का वायदा किया हो उसी समय दे, मिध्या भाषण न करे, यह प्रथम व्यवहार शुद्धि गुण है । २ पंचेन्द्रिय परिपूर्ण ३ शान्त प्रकृति, ४ लोकप्रिय, ५ वंचनारहित निष्कपट, ६ अक्रूर, पापभीरू, ७ अमायी, ८ उपकारी, ६ कुकर्म विरत, १० दयालु, ११ मध्यस्थवृत्ति, १२ शांत- दांत गुणी, १३ गुणरागी, १४ शोभन पक्ष, १५ दीर्घदर्शी, १६ विशेषज्ञ, १७ वृद्ध व बुद्धिमान पुरुषानुगामी, १८ माता-पिता गुरु के प्रति विनयशील, १६ कृतज्ञ, २० पर हितकारी, २१ लब्ध लक्ष । इन २१ गुणों में व्यवहारशुद्धि सर्व प्रधान है, इसके बिना सारे गुण व्यर्थ हैं। धोती Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) बिना सिर पर पगड़ी, घड़े बिना इंढाणी, नीव विहीन इमारत की भांति व्यर्थ हैं। गांव ही नहीं तो सीमा क्या ? ठंढ नहीं तो हिम कहां ? उसी प्रकार व्यवहार शुद्धि के बिना मनुष्य की शोभा नहीं । अग्नि के बिना धुंआ कहाँ ? स्त्री ही नहीं तो बेटा कहाँ ? धर्म बिना सुख नहीं, द्रव्य बिना हाट नहीं, गुरुः बिना बाट नहीं, उसी प्रकार व्यवहार शुद्धि बिना सारे गुण, बिना अंक के शून्य हैं। साधु के लिए शुद्ध आहार और श्रावक के लिए शुद्ध व्यवहार ये प्रधान गुण हैं। अयोध्या नगरी में उग्रसेन राजा और उसके पद्मावती पटरानी थी। उसके सुबुद्धि नामक मन्त्री था। इसी नगर में धनदेव व्यवहारी का पुत्र धनदत्त निवास करता था, जिसके पापोदय से माता-पिता का देहान्त हो गया। जब वह आठ वर्ष का हुआ तो शास्त्राभ्यास में लग गया और पिता का कमाया हुआ द्रव्य खाकर काल निर्गमन करने लगा। एक बार धर्मघोषसूरि के पधारने पर धनदत्त ने उनका वैराग्यपूर्ण व्याख्यान सुना तो उपदेश से प्रभावित होकर कुछ नियम लेने का विचार किया। उसने अपने को संयम मार्ग में असमर्थ बताते हुए मुनिराज के समक्ष व्यवहार शुद्धि का नियम स्वीकार किया। घर आने पर उसकी स्त्री ने व्यवहार-शुद्धि नियम की बड़ी प्रशंसा की। . धनदत्त ने दुकान खोली और सचाई के साथ अपना नियम पालन करता हुआ व्यापार करने लगा। लोग सत्यता के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) आदी नहीं होने से धनदत्त का व्यापार ठण्ढा पड़ गया और घर में धन का तोड़ा आ गया । उसने स्त्री से विदेश जाने की अनुमति माँगी तो उसने कहा- आप विदेश में भी अपने नियम का पालन करते रहें, मैं घर में बैठी अपना शील व्रत पालन करूँगी ! धनदत्त सथवाड़े के साथ रवाना हो गया । आगे चलकर एक गाँव में धनदत्त ने लोगों से पूछा कि यहाँ कोई व्यवहार शुद्धि नियम का पालन करने वाला हो तो बताओ, मैं उसके यहाँ नौकरी करना चाहता हूँ ! किसी ने धर्मात्मा सेठ का नाम बताया तो वह उसके वहाँ जाकर गुमास्ता रह गया । उस सेठ के घर गायें, भैंसे बहुत थी, जो जंगल में चरने जाती और पराये खेतों में प्रविष्ट होकर हरेभरे धान को उखाड़ कर खा जातीं । कृषक लोगों ने सेठ के सामने शिकायत की तो उसने कहा- ग्वालिये को मना कर देंगे ! सेठ ने उन्हें तो आश्वासन दे दिया, पर उसने ग्वालिये को कहा नहीं, क्योंकि गायों के मुफ्त का धान - घास चरके आने से उसके यहाँ दही, दूध, घी का ठाठ रहता था। धनदत्त ने सेठ के इस अशुद्ध व्यवहार को अनुभव कर उनकी नौकरी छोड़ दी और दूसरे गाँव चला गया। वहाँ उसने एक श्राविका के यहाँ नौकरी कर ली और उसका व्यापार देखने लगा । वह श्राविका निस्सन्तान होने पर भी लोभिणी थी, रात में वह बैठी - बैठी सूत कातती तो अपने घरका दीपक भी न जलाती और पड़ौसी के महल के प्रकाश का उपयोग करती । धनदत्त ने उसे अनु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित बताया तो सेठानी ने कहा-तुम दूध में भी जन्तु देखते हो! अपना क्या गया, इस कते सूत के पैसों से घर में सब्जी का खर्च निकल जाता है ! धनदत्त अपना हिसाब लेकर साथियों से जा मिला । साथी लोग व्यापार करते, पर धनदत्त का हाथ खाली था। माल-पत्र बेचकर साथी लोग स्वनगर जाने को तैयार हुए तो मित्र ने धनदत्त से कहा-देश चलो ! धनदत्त ने कहा-मैंने कुछ भी द्रव्योपार्जन तो किया नहीं। अतः अभी मैं नहीं चल सकंगा! मित्र ने कहा-यदि तुम न चल सको तो कोई वस्तु भी हमारे साथ भेजो; क्योंकि घर पर स्त्री बाट जोह रही है ! धनदत्त ने कहा मेरे पास पैसा नहीं, क्या भेजूं ? मित्र ने कहा-यहाँ बीजौरे बहुत ही उत्तम जाति के स्वादिष्ट और खूब सस्ते हैं और नहीं तो ये ही भेजो! धनदत्त ने मित्र की राय मानकर एक टोकरी में बहुत से बिजौरे भरकर मित्र के साथ भेज दिये। साथ वाले लोग प्रवहण में बैठकर रवाना हुए और किसी नगर के किनारे जाकर ठहरे। संयोगवश उस समय उस नगर का राजकुमार दाह ज्वर से पीड़ित हो गया। वैद्यों के सारे इलाज बेकार हुए तो राजवैद्य ने कहा-परदेशी बिजौरा यदि मिल सके तो इस रोग की वही अन्तिम चिकित्सा है, जिससे राजकुमार बच सकता है ! राजा ने सर्वत्र ढिंढोरा पिटवाया कि कहीं किसी के पास परदेशी बिजौरा हो तो दे ! उसे राजा मनोवांछित देगा। नगर में कहीं भी बिजौरा न मिला तो इस खयाल से कि-कोई परद्वीप से बिजौरे लाया होगा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यापारियों का साथ जहाँ ठहरा हुआ था, उद्घोषणा की। तब धनदत्त के मित्र ने तुरन्त पटह स्पर्श किया और बिजौरा के करण्डिये को लेकर राजा के सन्मुख भेंट किया। बिजौरे की चिकित्सा से राजकुमार स्वस्थ हो गया। राजा ने प्रसन्न होकर उस करण्डिये को मणिमाणिक और सोने से परिपूर्ण कर दिया और ससम्मान साथ वालों की जकात भी माफ कर दी ! सब लोग वहाँ से रवाने होकर क्रमशः अयोध्या पहुंचे। धनदत्त की स्त्री ने देखा, साथ वाले सब लोग आ गए, पर मेरा पति नहीं आया, वह घर के द्वार पर अश्रुपूर्ण नेत्रों से खड़ी बाट देख रही थी। मित्र ने शीघ्रतावश आकर वह रत्नों. का भरा करण्डिया उसे दे दिया और उसका पति सकुशल है ! कहकर अपने घर की राह ली। धनदत्त की स्त्री ने घर में जाकर करण्डिये को खोला तो उसमें सोना, मणि, रत्न भरा था, वह देखते ही दुखी होकर सोचने लगी-मेरे पति ने अवश्य ही अपना नियम तोड़ा है अन्यथा न्यायपूर्वक इतना द्रव्य कहाँ से प्राप्त होता ? यह धन विष सदृश है, मेरे लिए धूलि है। ' थोड़ी देर बाद मित्र आया और उसने भौजाई को चिन्तित देखा तो कहा-धनदत्त सकुशल है, तुम चिन्ता क्यों करती हो ? जब उसने अपने दुख का कारण बताया तो मित्र ने द्रव्य प्राप्ति का सारा वृतान्त सुना दिया। धनदत्त की स्त्री प्रसन्न होकर धर्म पर और भी दृढ़ श्रद्धा वाली हो गई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनदत्त की स्त्री ने उस धन में से राजा को भेंट द्वारा प्रसन्न कर भूमि खण्ड प्राप्त किया और उस पर सुन्दर महल, बाटिका, स्नानागार आदि बनवाये । वह सत्रागार (दानशाला) खोलकर उन्मुक्त दान देने लगी, साधु साध्वी व स्वधर्मी लोगों की भक्ति करती हुई निर्मलशील पालन करती थी। इधर धनदत्त चिरकाल विदेश में रहकर भी द्रव्योपार्जन न कर सका तो धैर्य धारण कर फटे हाल स्वदेश लौटा। लोगों के मुंह से धनदत्त की स्त्री की हवेली ज्ञातकर अपने घर पहुंचा तो प्रतोली रक्षक ने उसका प्रवेश निषिद्ध किया। धनदत्त ने सशंकित चित्त से प्रवेश करने का हठ किया तो सेठानी की आज्ञा से धनदत्त को सामने धूप में ले जाकर खड़ा किया। सेठानी ने अपने प्रियतम को पहिचाना और आदर सहित घर में बुलाकर सामने करबद्ध खड़ी हो गई। धनदत्त ने मन में स्त्री के शील पर शंका लाकर ऋद्धि समृद्धि का कारण पूछा। सेठानी ने सारा वृतान्त कहा और मित्र की साक्षी से सही वृत्त ज्ञात कर धनदत्त को अपार हर्ष हुआ। सेठानी ने नाई को बुलाकर सँवार कराई और धनदत्त को वस्त्राभरण से सुसज्जित किया। अब वे लोग आनन्दपूर्वक निवास करने लगे। ___ एक वार उस नगरी में साधु मुनिराज पधारे और उद्यान में ठहरे। उनका उपदेश श्रवणकर धनदत्त प्रतिबोध प्राप्त हुआ और पुत्र कलत्रादि को त्याग कर संयम मार्ग में दीक्षित हो. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। वह अप्रमत्त चारित्र पालन कर अनित्य भावना भाते हुए क्रमशः केवलज्ञान प्राप्त कर शिवशर्म को प्राप्त हुआ। ___ सं० १६६४ में आश्विन महीने में अहमदाबाद में कविवर समयसुन्दरजी ने इस व्यवहार शुद्ध विषये धनदत्त श्रेष्ठि चौ० की रचना की। (५) पुण्यसार चौपई सार भरतक्षेत्र में गोपाचल-ग्वालियर अत्यन्त सुन्दर नगर है ! वहाँ धर्मात्मा व सरल स्वभावी पुरन्दर सेठ निवास करता था जिसकी पत्नी पुण्यश्री पतिव्रता और गुणवती थी। सेठ के यहाँ सब कुछ होते हुए भी उसका घर पुत्रविहीन था और यही चिन्ता उसे कचौट रही थी। मित्रों ने सेठ को दूसरा विवाह करने की सलाह दी, पर पत्नी पर अटूट प्रेम होने के कारण वह इसके लिए प्रस्तुत न हुआ तब मित्रों ने इसी स्त्री से संतान हो, इसके लिए मंत्र-यंत्र, यक्ष पूजा, होम आदि उपाय करने का कहा। सेठ ने मिथ्यात्व दूषण से बचने के लिए कुलदेवी का आराधन किया। कुलदेवी ने प्रकट होकर पुत्र होने का वरदान दिया। पुण्यश्री के गर्भ में एक पुण्यवान जीव आकर अवतीर्ण हुआ। पुत्र जन्म होने पर सेठ ने बड़े भारी उत्सव पूर्वक उसका नाम पुण्यसार रखा । पाँच धायों द्वारा प्रतिपालन होकर जब पुण्यसार आठ वर्ष का हुआ तो उसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन के हेतु पाठशाला में भरती किया गया। उसी नगर के धनवान सेठ रत्नसार की पुत्री रत्नवती भी पुण्यसार के साथ साथ पढ़ती और हठपूर्वक होड किया करती। एक दिन पुण्यसार ने उसे एकान्त में कहा-सुन्दरी ! तुम पुरुष की निन्दा मत किया करो, पुरुष की क्या बराबरी ? तुम्हें भी तो एक दिन पुरुष की पत्नी होना पड़ेगा! रत्नवती ने कहा-रे मूर्ख शेखर ! स्त्री बनूंगी किसी पुण्यवान की, तुम्हारी क्या बिसात है ? पुण्यसार ने कहा-भावी किसे दीखती है, अब तो मैं तुम्हारे साथ जबरदस्ती विवाह करूँगा! रत्नवती ने कहानिर्गुण ! तुम रोते ही रहोगे, प्रेम जबरदस्ती नहीं होता ! इस प्रकार दोनों के परस्पर विवाद में बोलचाल बढ़ गई। पुण्यसार घर आया और अन्नपान त्याग कर चुपचाप सो गया। पुरन्दर सेठ ने चिन्ता का कारण पूछा तो उसने स्पष्ट कह दिया-यदि मेरा जीवितव्य चाहते हो तो आप रत्नसार की पुत्री से मेरा विवाह करादें ! सेठ ने कहा-बेटा ! अभी तक तुम बालक हो, विद्याभ्यास में मन लगा कर निपुण बनो, वयस्क होने पर हमें स्वयं तुम्हारा विवाह करने का उल्लास है ! पुण्यसार ने कहा-आप जैसा कहेंगे, करूगा पर रत्नवती से मेरी सगाई कर दीजिये, तब भोजन करूँगा ! सेठ ने उसे समझा बुझा कर भोजन कराया और स्वयं मित्रादि को साथ लेकर रत्नसार सेठ के यहाँ गया। रत्नसार ने स्वागत पूर्वक पुरन्दर सेठ से आगमन का कारण ज्ञात किया और यह कहा कि आप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) राजमान्य और प्रतिष्ठित हैं, मैं अपनी पुत्री आपको सहर्ष देता हूँ ! रत्नवती निकट ही थी उसने पिता की बात सुन कर कहामुझे अभि-प्रवेश कर जाना इष्ट है, पर पुण्यसार के साथ विवाह कदापि नहीं करूँगी ! पुरन्दर सेठ कन्या की बात सुनकर दंग रह गया उसने मन में सोचा इस धीठ बालिका को प्राप्त कर पुण्यसार को क्या सुख मिलेगा ? रत्नसार ने पुरन्दर सेठ से कहा- यह अभी तक बच्ची और अज्ञान है, मैं समझा दूँगा ! आप निश्चित रहें, मैंने अपनी पुत्री आपके पुत्र को दी ! पुरन्दर सेठ अपने मित्रों के साथ घर लौटा और पुण्यसार से कहा- बेटा ! वह छोकरी टेढ़ी मेढ़ी बातें करती है अतः तुम्हारे योग्य नहीं हैं ! पुण्यसार ने कहाहमारे आपस में हठ पूर्वक विवाद हो गया है, पाणिग्रहण के पश्चात् सब ठीक होगा ! उसने अपना भविष्य सानुकूल बनाने के लिए कुलदेवी का आराधन करने का विचार किया और विधिपूर्वक उपवास कर के बैठ गया देवी ने प्रगट होकर पुण्यसार से कहा- तुम्हारा मनोवांछित सिद्ध होगा ! निश्चित होकर विद्याध्ययन करो ! उसने कलाभ्यास तो पूरा किया पर तरुण अवस्था में जुआरियों की संगत में पड़ने से जुओ का व्यसन लग गया । एक दिन रानी का बहुमूल्य हार जो पुरन्दर सेठ के यहाँ धरोहर रूप में रखा था, पुण्यसार जुए में हार गया । राजा जब हार मंगाया तो सेठ ने घर में संभाला और न मिलने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) पर उसने निश्चय किया कि अवश्य ही पुण्यसार ने हार को गायब किया है अन्यथा घर में रखी गुप्त वस्तु कहाँ जाती ? उसने पुण्यसार को बुला कर डाँटा तो उसने सच्ची सच्ची बात बतला दी। सेठ कुपित तो था ही, उसने पुत्र को घर से बाहर निकाल दिया । पुण्यसार नगर से बाहर आया और सन्ध्या हो जाने से रात्रि व्यतीत करने के लिए वटवृक्ष के कोटर में बैठ गया । घर जाने पर सेठ को पुण्यवती ने पूछा- पुत्र कहाँ ? उसने कहा मैंने शिक्षा देने के लिए -अभी का अभी हार लाओ ! कह कर घर से निकाल दिया ! पुण्यवती ने इसके लिए सेठ को बड़ा उपालंभ दिया और पुत्र को खोज कर लाने का कहा । सेठ पुत्र को खोजने के लिए सारे नगर में घूमने लगा । जब बहुत देर तक पति व पुत्र दोनों नहीं लौटे तो पुण्यवती अपनी मूर्खता के लिए पश्चाताप करने लगी । पुण्यसार ने वटवृक्ष पर बात करती हुई दो देवियों को देखा और ध्यान देकर उनकी बातें सुनने लगा । एक ने कहा इस चाँदनी रात में कहीं घूमने चलें ! दूसरी ने कहा- कहीं कौतुक वार्त्ता हो तो देखें, अन्यथा निष्प्रयोजन घूमना व्यर्थ है ! प्रथम ने कहा- वल्लभी नगरी में सुन्दर सेठ के सात पुत्रियां ब्रह्मसुन्दरी, धनसुन्दरी, कामसुन्दरी, मुक्तिसुन्दरी, भागसुन्दरी, सुभागसुन्दरी और गुणसुन्दरी नाम की है । जिनके वर की चिन्ता में सेठ ने गणपति को मनाया और गणपति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देव ने सातवें दिन वर प्राप्त होने का निर्देश किया है। सेठ ने लम्बोदर के आदेशानुसार विवाह मण्डप रच कर विवाह की सारी तय्यारी कर रखी है आज ही लग्न दिवस है, अतः वल्लभी चल कर आज यही कौतुक देखा जाय ! दोनों एक मत होकर वल्लभी जाने को प्रस्तुत हुई और मंत्रोच्चार किया तो वट वृक्ष उड़ ‘कर वल्लभी के उद्यान में आ उतरा। दोनों देवियां नायिका रूप धारण कर सेठ के घर की ओर चली । कुमार भी कोटर में से निकल कर पीछे-पीछे हो गया। जब वे विवाह मंडप में गई और पुण्यसार को देखते ही सेठ ने कहा कि आप लम्बोदर देव द्वारा प्रेषित हमारे जामाता हैं अतः सातों पुत्रियों से पाणिग्रहण कीजिये ! पुण्यसार को वस्त्राभरण से सुसज्जित कर विवाहचौरी में बिठाया गया और सातों कन्याओं से पाणि‘ग्रहण करवा दिया। पुण्यसार विवाह के अनन्तर सातों स्त्रियों के साथ महल में गया और उनके साथ प्रश्नोत्तर, श्लोक रचना आदि में थोड़ा समय बिताया। उसके मन में वट वृक्ष के लौट जाने की “चिन्ता थी। उसकी चेष्टाओं से अनुमान कर गुणसुन्दरी ने 'पूछा-आपको देह चिन्ता के लिए जाना हो तो मेरे साथ नीचे चलिए ! वह तुरत गुणसुन्दरी के साथ नीचे आया और खड़िया से दीवाल पर तुरन्त निम्नोक्त दोहा व श्लोक लिख दिया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किहां गोपाचल किहां वलहि, किहां लंबोदर देव । आव्यो बेटो विहि वसहि, गयो सत्तवि परणेवि ।।१।। गोपाचल पुरा दागां, वल्लभ्यां नियतेर्वशात् परिणीय वधू सप्त, पुनर्तत्र गतोस्म्यहं ॥१॥ गुणसुन्दरी ने लज्जावश उपर्युक्त लेख की ओर ध्यान नहीं दिया। पुण्यसार ने उससे तुम द्वार पर खड़ी रहो, मैं देह चिन्ता निवारण करके आता हूँ ! कह कर जहाँ वट वृक्ष था,. वहाँ जाकर कोटर में बैठ गया। थोड़ी देर में दोनों देवियाँ आई और वट वृक्ष को उड़ाकर अपने स्थान में लाकर पुनः. स्थापित कर दिया। पुरन्दर सेठ रात्रि के समय पुत्र की खोज में घूमता हुआ थक कर वट वृक्ष के नीचे आ बैठा था। जब सूर्योदय होने पर पुण्यसार कोटर में से निकला तो उसे पित्त दर्शन हुए ! पिता. ने भी पुत्र को वस्त्रालंकारों से सुसज्जित प्रसन्न मुद्रा में देखा तो आलिंगन पूर्वक मिल कर अपने घर ले आया । पुण्यश्री को पति और पुत्र के आने पर अपार हर्ष हुआ और रात्रि का सारा वृतान्त ज्ञात किया । परस्पर अपने अपराधों की क्षमायाचना कर पुण्यसार ने वल्लभी से लाये हुए अलंकारों को बेच डाला और रानी का हार छुड़ा कर राजा को भेज दिया और वह व्यसन त्याग कर पिता के साथ दुकान में बैठकर काम काज करने लगा। इधर पति के न लौटने पर गुणसुन्दरी ने अन्य ६ बहिनों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) से जाकर कहा तो वे पति-विरह में रोने कलपने लगी। पिता ने आकर जामाता के भग जाने का सारा वृतान्त ज्ञात किया और नाम ठाम न जान सकने के कारण चिन्तातुर हुआ। गुणसुन्दरी ने नीचे जाकर दीवाल पर लिखे अभिलेख को पढ़ा और पति के गोपाचल निवासी होने का अनुसंधान पा लिया। उसने पिता से पुरुष वेश प्राप्त कर छः मास में पति को प्राप्त करने की प्रतिज्ञा पूर्वक विदा ली। पिता ने ऋद्धि-समृद्धि और नौकर कर्मचारी साथ दे दिये। वह गोपाचल आकर गुणसुन्दर कुमार के नाम से व्यापार करने लगी। थोड़े दिनों में गुणसुन्दर एक सफल व्यापारी के रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध हो गया। एक दिन मार्ग में चलते हुए गुणसुन्दर को देख कर रत्नवती मुग्ध हो गई और पिता से प्रार्थना की कि गुणसुन्दर वर मुझे पसंद है, मेरा उसके साथ पाणिग्रहण करा दें। सेठ रत्नसार ने गुणसुन्दर के पास जाकर रत्नवती से पाणिग्रहण करने की प्रार्थना की। गुणसुन्दर ने मन ही मन इस अयोग्य सम्बन्ध को विचार कर कहा कि-यह बड़ों के अधिकार की बात है, पिता दूर हैं अतः आप किसी अन्य कलावान पुरुष के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दें! रत्नसार ने कहा-मेरी पुत्री तुम्हें चाहती है तो मैं उसे दूसरे को कैसे दूँ ? __रत्नसार के आग्रह से गुणसुन्दर को रत्नवती के साथ पाणिग्रहण करना पड़ा । जब पुण्यसार ने सुना कि रत्नवती का विवाह हो गया तो वह कुलदेवी के समक्ष आत्मघात करने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्रस्तुत हुआ, देवी ने कहा-वत्स तुम वृथा क्यों मरते हो ? रत्नवती तुम्हारी ही स्त्री होगी ! पुण्यसार ने कहा रत्नवती का विवाह परदेशी के साथ हो गया, अतः परस्त्री से मुझे क्या प्रयोजन ! देवी ने उसे धैर्य धारण कर भावी का विधान देखने का आदेश दिया। गुणसुन्दरी की छः मास की प्रतिज्ञा थी, अवधि बीत जाने पर भी जब पति को प्राप्त करने में असमर्थ रही तो उसने अग्नि-प्रवेश करने की तय्यारी की। सारे नगर में चर्चा होने लगी कि गुणसुन्दर सार्थवाह मरने को प्रस्तुत है। दर्शनार्थ लाखों व्यक्ति एकत्र हो गए। राजा ने गुणसुन्दर से पूछा- किसी ने तुम्हारी आज्ञा भंग की या कौनसा दुख उपस्थित हो गया, जिससे तुम अग्नि प्रवेश करते हो ! उसने कहा-इष्ट-वियोग के कारण मैं काष्ठभक्षण कर रहा हूँ ! राजा ने कहा-कोई सुज्ञ पुरुष इसे समझावे ! लोगों ने कहापुण्यसार के साथ इसकी मित्रता है, वही समझदार व्यक्ति है जो इसे मरने से रोक सकता है। राजा ने पुण्यसार को बुलाया। पुण्यसार ने उसके निकट जाकर पूछा कि किस दुख से तुम देह त्याग करने को प्रस्तुत हुए हो ? गुणसुन्दर ने कहाहृदय का दुख किसके आगे कहा जाय ? उसकी कोई सीमा नहीं ! पुण्यसार ने कहा-मैं भी तो कम दुखी नहीं, मेरी प्रियाएं वल्लभी में अपने पीहर में रहती हैं ! अब तुम भी अपना दुख कहो! गुणसुन्दर ने कहा--मेरा प्रिय यहीं गोपाचलपुर में हैं जिसकी शोध में मैं यहाँ आई और प्रतिज्ञा की अवधि पूर्ण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) होने पर अब प्राणान्त करने को प्रस्तुत हूँ ! पुण्यसार ने कहामैं वही हूँ, पहचानो ! गुणसुन्दरी ने कहा -प्रियतम ! आप मुझे तोरण द्वार पर छोड़ आए तो मैंने आपको प्राप्त करने के लिए ही इतना प्रयास किया । अब मेरा उद्देश्य पूर्ण हुआ, मुझे स्त्री वेश दीजिये ! पुण्यसार ने घर से स्त्री की पौशाक मंगा कर दी जिसे धारण कर गुणसुन्दरी ने श्वसुरादि को नमस्कार किया । राजा के पूछने पर पुण्यसार ने सारा व्यतिकर बतलाया तो सुन कर सब लोग चकित हो गए । रत्नसार ने कहा- मेरी पुत्री की अब क्या गति होगी ? राजादि सब लोगों ने कहाउसका पति स्वाभाविक ही पुण्यसार हो गया, इसमें पूछना ही क्या है ? वल्लभी से छओं परिणीताओं को बुला लिया गया । सेठ ने पुण्यसार के लिए आठ महल प्रस्तुत कर दिये, जिसमें रहते हुए वह अपनी कुल मर्यादानुसार काल बिताने लगा । एक वार ज्ञानसागर नामक ज्ञानी गुरु के पधारने पर पुरन्दर सेठ भी पुण्यसार आदि परिवार को लेकर धर्मोपदेश सुनने गया । सद्गुरु की वैराग्यमय वाणी श्रवण कर बहुत लोग प्रतिबोध पाये । सेठ पुरन्दर के पूछने पर उन्होंने पुण्य-सार का पूर्वभव इस प्रकार बतलाया कि नीतिपुर में यह सरल स्वभावी कुलपुत्र था । संसार से विरक्त हो कर सुगुरु सुधर्म के निकट दीक्षित हुआ और संयम धर्म की आराधना करने लगा । वह दंश मच्छर आदि का उपसर्ग होने पर कायगुप्ति का पालन न कर कायोत्सर्ग में वार वार उड़ाता रहता । गुरु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) से शिक्षा प्राप्त कर शुद्ध क्रिया करने में तत्पर हो गया और मर कर सौधर्म देवलोक में देव हुआ, वहां से च्यव कर पुण्यसार हुआ है। पूर्व पुण्य के प्रभाव से इसे देवता का सानिध्य मिला और संपदा प्राप्त हुई। ५ समिति और ३ गुप्ति इन आठों में इसने कायगुप्ति कष्ट से पालन की थी, जिससे सात "स्त्रियाँ तो सहज और आठवीं कष्ट से मिली। - पुरन्दर सेठ पुण्यसार को गृहभार सौंप कर दीक्षित हो गया। पुण्यसार ने भी चिरकाल तक श्रावकधर्म पालन कर अन्त में पुत्रादि से विदा लेकर संयममार्ग स्वीकार किया और अनशन पूर्वक समाधि मरण प्राप्त किया। कविवर समयसुन्दर ने यह चौपई शांतिनाथ चरित्र के अनुसार निर्माण की है। -:०:०: समयसुन्दर रास पञ्चक सूचनिका 'विषय १ प्रियमेलक तीर्थ प्रबन्धे सिंहल सुत चौ० २ वल्कलचीरी चउपई ३ चम्पक सेठ चउपई ४ व्यवहार शुद्ध विषये धनदत्त श्रेष्ठि चरपई ५ पुण्यसार चरित्र चउपई रासों में प्रयुक्त देशी सूची १४६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सद्गुरुभ्योनमः समयसुन्दर रासत्रय प्रियमेलक-तीर्थ-प्रबन्धे सिंहलसुत चौपई सोरठिया दूहा ६ प्रणमं सद्गुरु पाय, समरू सरसति सामिणी । दान धरम दीपाय, कहिसि कथा कौतक भणी ॥१॥ धरमां मांहि प्रधान, देतां रूड़ा दीसियई। दीघउ वरसीदान, अरिहंत दीक्षा अवसरई ॥२॥ उत्तम पात्र तउ एह, साधनइ दीजइ सूझतउ । लहियइ लाछि अछेह, अढलिक दान जउ आपियइ ।।३।। अति मीठा आहार, सखरा देज्यो साधनइ । सुख लहिस्यउ श्रीकार, फल बीजां सरिखा फलइ ॥४॥ प्रथिवी मांहि प्रसिद्ध, सुणियइ दान कथा सदा। प्रियमेलक अप्रसिद्ध, सरस घणुं सम्बन्ध छइ ॥५॥ सुणउ मिलई जउ संख, ए सुणतां जे उघस्यइ। उ माणस अगलिंच, के मुझ वचनि को रस नहीं ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समयसुन्दर रासत्रय ढाल १ राग-रामगिरी चाल-नयरी द्वारामती कृष्ण नरेस, एहनी सिंहलदीप सिंहल राजान, सिंहली राणी जीव समान । सिंहलसिंह कुमर अति सूर, प्रगट्यउ पुण्य तणउ अंकूर ॥१॥ माइ बाप नई मानई घणुं, एतउ लक्षण उत्तम तणुं । दीसई रूपइं देवकुमार, चालई उत्तम कुलि आचार ॥२॥ कुमरइं सीखी बहुतरि कला, व्यसन सात कीया वेगला। पर उपगारी परम कृपाल, रूड़ा बोलइ वचन रसाल ॥३॥ साहसीक पराक्रम सार, परदुख कातर पुण्य प्रकार । विनयवंत अनइं जसवंत, सकल कला गुण मणि सोभंत ॥४॥ एहवई मास वसंत आवियउ, भोगी पुरषां मनि भावियउ। रूड़ी परि फूली वणराइ, महकइ परिमल पुहवि न माइ ॥५॥ सखर घणुं मउऱ्या सहकार, मांजरि लागी महकइ सार । कोयलि बइठी टहुका करइ, साखा ऊपरि मधुरइ सरइ ॥६॥ छयल छबीला नर छेकाल, गायइं वायई बाल गोपाल । चतुर माणस ते हाथे चंग, मेघनाद वाजईमिरदंग ॥७॥ फूटरा गीत गायई फागना, रसिक तेह कहई रागना। ऊडइं लाल गुलाल अबीर, चिहुँ दिसि भीजइ चरणा चीर ॥८॥ नगर मांहि सको नरनारि, आणंद क्रीड़ा करई अपार । ढलती रामगिरी ए ढाल, समयसुन्दर कहइ वचन रसाल ॥६॥ [सर्व गाथा १५] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेलक चौपई ] सोरठीया दूहा ३ क्रीड़ा करण कुमार, इण अवसर पनि आवियउ । पूठिं बहु परिवार, खेलण लागउ खांति सु॥१॥ तिण अवसरि वनि तेण, वन-गज आयउ विलसतउ । जल थल लंध्या जेण, मातउ मयगल मद भरइ ॥२॥ नगर सेठ धन नाम, कन्या तेहनी क्रीड़ती। अकसमात अभिराम, गज सुडादंड मांहि ग्रही ॥३॥ [ सर्व गाथा १८] ढाल (२) पाइल री, अथवा--करइ विलाप मृगावती, कुयरी रोयइ आक्रंद करइ, मुनइ को मुकावइ । आंखे बिहुं आंसू भरइ, मुनइ को मुकावइ ॥१॥ मरू रे मरू मोरी मातजी, मुं० तुरत आवउ मोरा तातजी॥२॥ हा हा हाथी हुँ अपहरी, मुं० धीरिज हुं न सकु धरी मु० ॥३॥ केथि गई कुल देवता मु०, सकल कुटंब पाय सेवता मु०॥४॥ करउ रे कृपा अबला तणी मु, चतुर जायउ कोई चांद्रणी ॥५॥ आक्रंद कुमर सुण्या इसा मु०, कुण विलाप देखु किसा ॥६॥ ततखिण कुमर गयउ तिहां मु० जुवती रोती थी जिहां ॥७॥ कष्ट देखी कुमरी तणउ मु०, प्रगट थयउ करुणा पणउ मु० ॥८॥ कुमर विचार इसउ करइ मु०, उत्तम उपगार आदरइ मु०॥६॥ पर उपगार कीधा पखी मु, दस मास मात कीधी दुखी ॥१०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] [समयसुन्दर रासत्रय यतो गाथा त्रयं :किं ताणं जम्मेणवि, जणणीए पसव दुक्ख जणएण। पर उवयार मुणो विहु, न जाण हिययंमि विष्फुरई ॥१॥ दो पुरिसे धरउ धरा, अहवा दोहिं पि धारिया धरिणी। उवयारे जस्स मई, उवयारं जो नवि म्हुसई ॥२॥ लच्छी सहाव चला, तओ वि चवलं च जीवियं होई । भावो तउ वि चवलो, उवयार विलंबणा कीस ॥३॥ सूर वीर अति साहसी मु०, उपगार मति मनि उल्लसी ॥११॥ कुमर कला काई केलवी मु०, भली रे हकीकति भेलवी ॥१२॥ कुमर छोडावी कुयरी मु०, कुं० सुजस सोभाग सिरी वरी॥१३॥ वात नगर मांहे विस्तरी मु० कु, सिगलइ कीरति संचरी ॥१४॥ धन धन कुमर धीरिज धस्यउ मु० कु, कुण उपगार मोटउ कस्यउ मुं० कु० ॥१॥ वांटइ सेठ बधामणी मु०, भूप आयउ देखण भणी मु० ॥१६॥ खलक लोक देखइ खड़ा मु०, बोलई कुमर विरुद वड़ा मु०॥१७॥ कुमरी राग जाणी करी मु०, धन सेठइ आगइधरी मु०॥१८॥ परणावी पांचे मिली मु, राजा सेठ पूगी रली मु०॥१६॥ धन-धन नारि ए धनवती मु, पुरुष रतन पाम्यउ पती मु॥२०॥ महुल मंदिर रुड़े मालिए मु, आणंद करइ गउख आलिएमु०॥२१॥ काम भोग अधिकार ना मु०, सुख भोगवइ संसार ना मु०।२२॥ एह ढाल उपगार नी मु, समयसुन्दर कहइ सार नी मु०।२३। [सर्वगाथा ४४ ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेलक चौपई ] सोरठिया दूहा ४ सिंहलसुत सोभाग, रूपई दीसई रूयड़उ । रमणी आणई राग, केड़ि न मुकई कामिनी ॥१॥ जिण जिण गलिए जाय, तिण गलीए तरुणी फिरइ। काज काम न कराय, चिटपट लागी चित्त मई ॥२॥ पंच मिली पोकार, अवनीपति आगई करी। के तुकुमर निवारि, अथवा अम्हनई सीख दे ॥३॥ महाजन मन संतोष, राजा रूड़ी परि कीयउ । दाख्यउ दुसमण दोष, कुमर नइ राख्यउ क्रीड़तउ ॥४॥ [सर्वगाथा ४८ ] ढाल ( ३) वालुरे सवायउं वयर हुं माहरु जो, एहनी । अमरप कुमर नई आवीयउ जी, कीयउ मुझ सुपिता कूड़। अवहील्यां जे आधा पड़ई जी, धिग ते जनम नई धूड़ि ॥१॥ करम परीक्षा करण कुमर चल्यउ जी, धणवती चली धण साथि । कंत विहूणी किसी कामिनी जी, अस्त्री नइ प्रियु आथि ॥ २ ॥ देश प्रदेसे अचरिज देखस्यु जी, भाग्य नउ लहस्युभेद । साजण दूजण समझस्यु जी, इम मनि धरी रे उमेद ॥३॥ क० . यतः दोसइ विविहं चरियं, जाणिज्जइ सयण दुज्जण विसेसो। अप्पाणं च कलिज्जइ, हिंडिज्जइ तेण पुहवीए ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] [समयसुन्दर रासत्रय आधी राति ऊठियउ जी, सुंदर लीधी साथि । सिंहलसुत महा साहसी जी, हथियार तरवारि हाथि ॥ ४ ॥ तुरत गयउ दरिया नई तटइ जी, समुद्रे चढ्यउ साहसीक । प्रवहण बइठउ पर दीपां भणी जी, नारि नई लेई रे निजीक ॥५॥ आगलि जातां दरियउ ऊछल्यउ जी, तिम वलि लाग्यउ तोफान । प्रवहण भाग्यउ कोलाहल पड़यउ जी, अतिदुख पड़यउ असमान।६। पुण्य संयोगई पाम्यउ पाटियउ जी, धनवती लीधउ आधार । नारि सहती दुख नीसरी जी, पाम्यउ समुद्र नउ पार ॥॥ क० अबला चाली तिहांथी एकली जी, वसती जाउं किण वेगि । कंत विहूणी रूपवंत कामिनी जी, उपजई कोड़ि उदेगि ॥८॥ क० नगर निजीक नारी गई जी, पेख्यउ , एक प्रासाद । दंड कलस ध्वज दीपता जी, नवला संख निनाद ॥६॥ क० धनवती पूछी काइ धरमिणी जी, कहि बाई कुण ए गाम । कुण तीरथ एह केहनउ जी, ए महिमा अभिराम ॥ १०॥ क० गाम कुसमपुर गुणनिलउ जी, इंद्रपुरी अवतार । प्रियमेलक तीरथ परगड़उ जी, सहु जाणइ संसार ॥ ११ ॥ वेगि मिलइ प्रियु वीछड्यउ जी, नित तप करइ जे नारि । इहाँ बइठी अणबोलती जी, परता पूरइ अपार ॥ १२ ।। क० धनवती मौन वरत धरी जी, जाइ बइठी जोग ध्यान । नाह मिल्यां विण बोलूँ नहीं जी, ए हठ लीयउ असमान ॥१३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेलक चौपई ] मन गमती ढाल मारुणी जी, दुखियां जगावइ दुक्ख । समयसुन्दर कहइ सुणतां थकां जी, सुखियां संपजइ सुक्ख ॥१४॥ [सर्वगाथा ६३ ] दूहा सोरठिया ३ कुमरइ पणि इक कोय, लाधउ लांबउ लाकड़उ । तरतउ तरतउ तोय, पारई पहुँतउ पाधरउ ॥१॥ जहवइ आगई जाय, नगर रतनपुर निरखीयउ। रत्नप्रभ तिहाँ राय, राणी रतनासुदरी ॥२॥ रतनवती बहु रूप, राजा नई बेटी रतन । सुदर सकल सरूप, भर जोवन आवी भली ॥३॥ [सर्व गाथा ६६] ढाल (४) राग-आसाउरी, चाल-सहजई छेहड़उ रे दरजणि स० वालि रे भर जोवन माती, तिण अवसर वाजइ तिहां रे, ढंढेरा नउ ढोल । चउरासी चहुटे भमइ, बोलइ वलि एहवा बोल रे ॥ १ ॥ राजा नी कुयरी, मरइ रे साप खाधी सुदरी। को जीवाड़इ रे, कुमरी को जीवाड़इ । आंकणी। गारुडी नाग मंत्रा गुण्या रे, मरद्या मोरी गद्द । मणि पणि डंक ऊपरि मूकी, गुण न थयउ ते गया रद रे ॥२॥रा० हिव वैद्ये हाथ काटक्या रे, उपजइ नहिं को उपाय। मुरछागत कुमरी मरइ, जीवित हाथां मांहि जाय रे ॥३॥ रा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] [समयसुन्दर रासत्रय कुमर महा अति कौतकी रे, आणी उपगार बुद्धि । पड़ह छब्यउ निज पाणि सु, सापुरषां साची सिद्धि रे ॥४॥रा० कुमर आण्यउ कुमरी कन्हइ रे, निर्मल आण्यउ नीर। उहली मुद्रडि आपणी, सहु छांध्यउ कुमरी शरीर रे ॥ ५॥रा० पाणी पायउ प्रेम सु रे, ऊठि बइठी थई आप। कुमरइ उपगार ए कियउ, बहु हरख्या माइ नई बाप रे ॥६॥रा० रूपई दीठउ रूयड़उ रे, गुण दीठउ उपगार। उत्तम कुलि तिण अटकल्यउ रे, प्रगट्यउ पुण्य प्रकार रे ॥७॥रा० रत्नप्रभ गुण रंजियउ रे, कीधउ कुमरी वीवाह । दीधउ कुमर नई दायजउ, अधिकउ कुमरी उच्छाह रे ।।८।। रा० राति पड़ी रवि आथम्यउ रे, जाग्यउ मदन जुवान । रंगमहुल पहुता रली रे, वारू जाणे इंद्र विमान ॥६।रा० वर पल्लंग विछाइयउ रे, पाथस्या बहु पटकूल । अगर उखेव्या अति घणा, महकई परिमल अनुकूल ॥१०॥ रा० दीवा कीधा चिहुं दिसई रे, रत्नवती बहु रंग। कुमर पलंग छोड़ी करी, सुतउ धरती तजि संग रे ॥११॥ रा० चतुर नारी मनि चीतवइ रे, करम फूटउ मुझ कोय । सेज छोड़ी धरती सूयइ, रमणी जीवितई नइ रोय ।।१२।। रा० यतः घरि घोड़उ नइ पालउ जाइ, घरि धीणउ नई लूखउ खाइ । घरि पलंग नइ धरती सोयइ, तिण री बइरि जीवतइ नइ रोवइ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेलक चौपई ] [ & पुछ्युं कुमरी प्रेम सु रे, भेद कहउ भरतार | ए वयराग तुम्हे आदस्यउ, किम राग तणइ अधिकार रे । १३० कुमरई मन मांहि अटकल्यउ रे, स्त्रीनइ न कहीयइ साच । वली विसेस वात सउकिनी, वदइ पंडित एहवी वाच रे । १४० कुमर कहइ वात केलवी रे, सुणि सुंदरि मुझ संच । मा बाप थी मई वीड्यइ, राख्यउ अभिग्रह रंच रे || १५ || रा० सूस्युं धरती सर्वदा रे, पालीसि सील प्रताप । सूस लियउ म सुंदरी, मिलस्यइ नहि जां माइ बाप रे ||१६|| कहइ कुमरी सुण कंत जी रे, धन्य तुम्हें धस्य नेह | भगति मा बाप तणी भली, उत्तम पुत्र लक्षण एह रे || १७ ||रा० भेद जाण्यउ सहु भूपती रे, चिन्तातुर थयउ चित्त । कुमर नई पूछ किहां वसउ, कुलवंश कहउ सुपवित्त रे । १८० कुमर कहउ कुल आपणउ रे, वंश अनइ गाम वास । समयसुंदर कहइ सहु सुखी रही रत्नवती नीरास रे || १६ ||रा० [ सर्व गाथा ८६ ] सोरठिया दूहा ४ रत्नप्रभ हिव राय, कुमरी संडण करइ | राखी रती न जाय, सुख लहिस्यइ गइ सासरइ ||१|| मणि माणिक बहु माल, मोती जवहर मूंगीया । रतन अमूलिक लाल, चीर पटंबर चरणिया ||२|| सहु संप्रेडण साज, कुमरी नई राजा कीयउ । जतने घणे जीहाज, बइसाख्या बेऊ जणा ||३|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] [समयसुन्दर रासत्रय Anand राजा पुरोहित रुद्र, संप्रेडण साथइ दियउ। खोष्टउ मन में क्षुद्र, सिंहलद्वीप साम्हा चाल्या ॥४॥ [सर्व गा०६०] ढाल (५) अलबेल्यारी प्रवहण तिहाथी पूरियउ रे लाल, ___ सहु सुकीधी सीख ॥ हरिणाखी रे। आसीस दीधी एहवी रे लाल, विलसउ कोड़ि वरीस ॥हरि०१॥ तई मेरउ मन मोहियउ रे लाल, मानि मोरी अरदास ॥ हरि० प्रारथियां पहिड़इ नहीं रे लाल, उत्तम पूरई आस हरि० २॥ रत्नवती रूप रंजियउ रे लाल, प्रोहित आण्यउ पाप ।हरि० नांखु कुमर नइ नीर मंइ रे लाल, एहनइ भोगवइ आपहिरि०३।। सिंहलसिंह मारु सही रे लाल, हुइ कुमरी मुझ हाथि । हरि० जनम जीवित सफलउ करु रे०, सुख भोगवं इण साथि ।।ह०४॥ प्रवहण वहतां पापियइ रे लाल, लंपट लाधउ लाग । हरि० दरिया मांहि नांखी दीयउ रे०, ऊंड उ जेथि अथाग हरि०५॥ रुद्र पुरोहित रोवतउ रे लाल, करइ रे आकंद पोकार । हरि० हा हा दैव किसुहुयउ रे लाल, किम जल बूड़उ कुमार ह०६॥ एह अखत्र इणइ कीयउ रे लाल, किसु न करइ कामंध । हरि० हुँ केथी थाउं हिवइ ते लाल, धणि पाखइ सहु धंध ॥हरि० ७॥ प्रोहित प्रारथना करइ रे लाल, भोगवि मुझसु भोग । हरि० हुं किंकर तोरउ हुस्युरे लाल, सुदरि म करि तुं सोग ।।१०८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेलक चौपई ] - [११ चतुर नारी इम चिंतवइ रे लाल, कहउ हिव हुं कर केम । ह० सील मोरउ ए खंडस्यइ रे लाल, आपदा पड़ी मुझ एम ॥ह०६॥ है है वन मोरउ हीयउ रे लाल, पाथर थीय प्रचंड । हरि० वाल्हेसर थी वीछड्यां रे लाल, खिण न थयउ सतखंड ।।ह०१०॥ रे रे दैव तुका रूठउ रे लाल, कुण अपराध मई कीध । ह० किहां पीहर किहां सासरउ रे लाल, दुख मांहे दुख दीध ।।ह०११॥ विरह विलाप करु किसारे लाल, रोयां न लाभइ राज।ह. कोई वचना, कहुं केलवी रेलाल, ए पांच टाल्यु आज ।ह०१२।। प्रोहित हुं तुझ वसि पड़ी रे लाल, सुख भोगवि ज्यु सुहात ।ह० पणि बारहीयउ प्रियु तणउ रे०, कीधां पछी काइ बात ह० १३।। जोरइं प्रीत जुड़ई नहीं रे लाल, पड़खि मुनइ पंचराति । हरि० रत्नवती सील राखीयउ रे लाल, प्रणमीजइ परभाति ॥ह० १४॥ आगई दरियउ ऊछल्यउ रे लाल, भागी बेड़ी भड़ाक । हरि० कोलाहल लोके कीयउ रे लाल, हा हा पड़ी बुबहाक ।।ह० १५॥ लाधउ कुमरी लाकड़उ रे लाल, तरती गई जल तीर ह० । प्रियमेलक पणि पामीयउ रे लाल, दुःख करती दिलगीर ह०॥१६॥ प्रियमेलक भेद पूछियउ रे लाल, पहुंती धनवती पासि ह । नाह विना बोलुनहीं रे लाल, ए यक्ष पूरस्यइ आस ह० ॥१०॥ प्रोहित ते पणि पापीयउ रे लाल, जीवितउ नीसरयउ जाणि ह० । नगर कुसमपुर नउ धणी रे लाल, मुहतउ थयउ तसु माणि ॥१८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] [ समयसुन्दर रासत्रय वे नारी बइठी रहई रे लाल, जोतां प्रियु दिन जात ह० । समयसुन्दर कहइ सांभलउ रे लाल, वलि कहुं त्रीजी बात ह०||१६|| [ सर्व गाथा १०६ ] सोरठिया दूहा ६ पड़त पाणी मांहि, किणही कुमर उपाड़ियउ । पूरब पुण्य पसाहि, आण्यउ तापस आश्रम ||१|| आनंद तापस अंग, दीठां लक्षण देहना | रूपवती मनि रंग, पुत्री परणावी पिता ॥२॥ कंथा दीधी काइ, कर मूंकावण कुमर नई | सउटका सुखदाइ, खिरी पड़इ खंखेरतां ॥३॥ सखर खटोली साइ, आपी आकासगामिनी । जहां भाव तहां जाइ, मन जिहां मानइ आपणउ ||४|| इस खटोली बेड, आकास मारगि ऊडीया । धनवती ध्यान धरेउ, जाउं धनवती छइ जिहां ||१५|| नगरी कुसम निजीक, खिण मइ गई खटोलड़ी । नर नारी निरभीक, आवी बेऊ तिण अवसरि तरसी थई रे, ढाल (६) राग - वयराड़ी, जलालिया नी ऊतस्या ||६|| कुली रे काया तावड़ आकरउ रे, Jain Educationa International [ सर्व गाथा ११५ ] रूपवती करइ अरदास; जीवन मोराजी । पापिणी लागी मुनई प्यास; जी० ॥१॥ For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेलक चौपई ] [१३ पाणी रे पायउ हुं तरसी थई रे, खिण इक मइ न खमाय । जी० । कंठ सूकइ काया तपइ रे, जीभइ बोल्यु न जाय । जी० ॥२॥ कथा खाट कांता तजी रे, जल लेवा नइ जाय । जी०। कुमर आगइ दीठउ कूयउ रे, थोडुसुनीचउ जल नई थाय॥३॥ भुजंग बोल्यउभाषा मनुष्य नीरे, काढि मुनइ करि उपगारजी। लांबउ मुक्यउ आघउ लूगड़उ रे, काट्यउ साप कुमार । जी०॥४॥ झाट मारी सांप झूबियउ रे, कूबड़ कीधउ कुरूप । जी० । कुमर कहइ कांसु कीयउ रे, अधम करइ ए सरूप । जी० ॥५॥ साप कहइ गुण जाणे सही रे, आगइं देखिस आप। जी० । संकट कष्ट पड्यां सही रे, सानिध करिस्यइ तु नइ साप ॥६॥ अचरिज कुमर नई ऊपनउ रे, पाणी ले आयउ नारी पासि जी०। पी पाणी सीतल प्रिया रे, वनिता रहीय विमासि जी० ॥७॥ कुण पुरुष ए कूबड़उ रे, पर पुरुषां न रहुं पासि जी० । उफराठी ऊभी रही रे, वामणउ करइ रे वेषास जी० ॥८॥ नीर पीधां विण नीसरी रे, कंथ गयउ मुझ केथि जी। वनि वनि जोयउ वालहउ रे, अबला न दीठउ एथि जी० ॥६॥ भूली रे भभंती गई भामिनी रे, तोरथ प्रियमेल तेथि जी०। त्रीजी रे बइठी नारी सिहां रे, जुवती बइठी छइ जेथि जी० ॥१०॥ त्रिण्हे नारी तपस्या करई रे, बोलई नहीं एक बोल जी०। समयसुन्दर कहइ हुं साख युं रे, एहनउ सील अमोल जी० ॥११।। [ सर्व गाथा १२६] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] ।। समयसुन्दर रासत्रय दूहा ६ कंथा खाट मुकी किहां, कांता रहित कुमार। नगर कुमर ते निरखता, निरखी त्रिण्हे नारि ।। १ ॥ केइक दिन रहतां थकां, विस्तरी सगलइ वात । कुमरी त्रिण तपस्या करई, परमारथ न प्रीलात ॥२॥ बोल एक बोलइ नहीं, दिव्य रूप कृश देह । अन्न पान को आणि घई, तउ ते खायइ तेह ॥ ३ ॥ राजा मनि आवी रली, साचउ एहनउ सत्त । जिम तिम बोली जोइजई, चिटपट लागी चित्त ।। ४ ॥ राजा पडह फेरावियउ, सांभलिज्यो सहु कोउ । पुत्री द्युतसु पुरुष मई, जुवति बोलावइ जोउ ॥५॥ पड़ह छब्यउ वामण पुरुषि, पुहतउ राजा पासि । ऊठि प्रभाते आवज्यो, तुरत बोलाविस तास ॥ ६ ॥ [सर्वगाथा १३२] ढाल (७) मई वइरागी संग्राउ, एहनो ऊठि प्रभाति आवीयउ, राजा रूड़ी रीतो रे। सेठ सेनापति सूत्रवी, मंत्री महाजन मीतो रे ॥१॥ कुमरी बोलावइ कूबड़उ, लोक मिल्या लख कोड़ो रे। अचरिज लोक नई ऊपजई, जुगति कहइ हीया जोड़ो रे ॥२॥ कु० कोरा पाना काढिया, वलि कहइ एहवी वातो रे। अक्षर ए देखई नहीं, ते जाणीजइ त्रिजातो रे ॥३॥ कुछ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेलक चौपई ] भूपति प्रमुख सहु को भणई, अक्षर सखरा एहो रे । तिरजात कुण थायइ तिहां, किरइ कारिज केहो रे || ४ || कु० वांचइ पोथी वांमणउ, सांभलिज्यो सहु कोयो रे, सिंहलसुत निज नारिसु, चढ्यउ दरियह चित्त लायो रे ॥५॥ आगइ दरियs आवतां, प्रवहण भागउ प्रवायो रे । आज कथा कही एतली, वलि विहाणइ कहिवायो रे || ६ || कु० हिव कहि आगई कि हुयउ, बोली धनवती बालो रे । कहिवा लागउ कूबड़उ, भामिनी बोली भूपालो रे ||७|| कु० वलि परभाति आवीया, रस लीधा राय राणो रे । कोरी पोथी कूबड़उ, वांची करइ वखाणो रे ||८|| कु० काष्ठ आधारि कुमर गयउ, नयर रतनपुर नामो रे । रत्नवती सुता रायनी, उणि परणी अभिरामो रे || || कु० रत्नवती नइ ले चल्यउ, आवतां समुद्र नइ आधो रे । प्रोहित कुमर नइ पापियई, नाख्यो नीर अगाधो रे || १०|| कु० पोथी बांधी पंडितई, एतलउ संबंध आजो रे । काल्हि कहिसि इहां आवज्यो, केहनइ छइ काम काजो रे || ११|| कु० रत्नवती न सकी रही, ततखिण बोली तामो रे । कहि आगलि कांसु थय, पंडित करूय प्रणामो रे ||१२|| कु० बीजी पण बोली अइ, सहु लोकां नी साखो रे । त्रीइ दिन आया तिहां, लोक मिली नइ लाखो रे ||१३|| कु० वांचइ आगइ वामणउ, अदभुत राग उदारो रे । पाणी मई पड़त थक, किणही उपाड्यउ कुमारो रे || १४ || कु० Jain Educationa International [ १५ For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] [समयसुन्दर रासत्रय तापस परणावी तिहाँ, आपणी पुत्री एको रे। रत्नवती रूपइ भली, वारू विनय विवेको रे ।।१।। कु० खिणमइ बइसि खटोलड़ी, आया आश्रम एथो रे। कुमर गयउ कूया भणी, आणिवा नीर अनेथो रे ॥१६॥ कु० साप झंब्यउ तेहनइ सही, ए त्रिहुं ना अवदातो रे । इम कहिनइ ऊभउ राउ, रूपवती न रहातो रे ॥१७|| कुछ त्रीजी पणि बोली तिहां, तिम हिज ते ततकालो रे । कुसमवती मांगइ कूबड़उ, वाचा अविचल पालो रे ।।१८।। कुछ मानी बात महीपति, आण्यउ निज आवासो रे। चउरी बांधी चिहुं दिसइ, हरिणाखी करइ हासो रे ॥१६॥ कु० गीत कोई गायइ नहीं, अंगि नहीं उछरंगो रे । समयसुदर कहइ सहु कहइ, सरिज्यो कां ए संगो रे ॥२०॥ कु०. [सर्व गाथा १५२ ] दूहा ३ . कुमरी मनि कौतुक थयउ, चिटपट लागी चित्ति । कहिस्यइं इण विन को नहीं, प्रियु आगली प्रवृत्ति ॥१॥ चउरी मांहि चतुर गई, अवसर दीठउ एह । सेवा करी संतोषस्यां, नयण जणावइ नेह ॥ २॥ . सोहलउ गायइ सुंदरी, तिण्हे मिली एक तान । कहइ कदाचि खुसी थकउ, प्रीतम बात प्रधान ।। ३ ॥ [सर्वगाथा १५५ ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेलक चौपई ] [१७ ढाल (८) सोहला री, दुलह किसण दुलहि राणो राधिका जी, एहनी कुमर कुमर सोभागी लाडण कूबड़उ जी, परणई पुण्य प्रमाण । कुसम कुसमवती राजा नी कुयरी जी, रूपई रंभ समाण ॥१॥ दुलह कुमर कुमरी दुलहणी जी, चंद रोहिणि चिर जेम। अविचल अविचल जोड़ी होइज्यो एहनी जी, प्रतिदिन वाधतइ प्रेम ॥२॥ दु० चतुर चतुर कुमर तोरी चातुरी जी, रीझविया राय राण । अम्हनइ अम्हनइ बोलावी अणबोलती जी, पणि न कह्यउ जीव प्राण ॥ ३॥ दु० कुबज कुबज कुमर अपछर कुयरी जी, कारिम आरिम कीध । वरकन्या वरकन्या चउथउ मंगल वरतीयउ जी, दखिणा याचक दीध ॥ ४ ॥ दु० हरख हरख नहीं को हाथ मुंकावणीजी, सालउ कहाइ ल्यइ साप। कुमर कुमर कहइ साप आवउ कूपनउ जी, आयउ साप तेहिज आप ॥ ५॥ दु० कुमर कुमरनइं झंव्यउ साप तिहां किणइ जी, ___ मुरछित थयउ खिण मांहि । मरण मरण साहस तिहां मांडियउ जी, सुंदरी छुरी रही साहि ॥ ६॥ दु० कुमर कुमर मुयउ वात न को कहइजी, अम्हे पणि मरिस्य आज। अम्हनइ अम्हनइ सरण हिव एहनउ जी, कुण जीव्या नउ काज।७। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] [समयसुन्दर रासत्रय तुरत तुरत प्रगट थयउ देवता जी, सुंदर कीधउ सरूप । कुबज कुबज हुँतउ ते देवकुमर थयउ जी, मनोहर मूलगइ रूप ।।८।। हरषित हरषित लोक सकों हुयउ जी, राय राणी उछरंग। भलउ भलउ लोक सको भणईजी, आणंद कुसमवती अंग ।।६।। उलख्यउ उलख्यउ प्रीतम एतउ आपणउ जी, भागि मिल्यउ भरतार । अपछर अपछर मिली च्यारे एकठी जी, कंत मेल्यउ करतार॥१०॥ महोछब महोछब मोटउ राजा मांडियउ जी, वीवाह नउ विस्तार । धवल धवल मंगल धुनि गावती जी, वरनइ वखाणइ वार-वार ॥ ११ ।। दु० धन धन धन धन कुसमवती धुया जी, भलउ पाम्यउ भरतार । भगति भगति जुगति भोजन अति भला जी, दीजई दय दयकार ।। १२ । दु० सुंदरी सुंदरीच्यारेरही सुख भोगवइ जी, सिंहलसिंह प्रियु साथि । समय समयसुंदर कहइ सुकृतथकी जी, हुइ सुख सिगलाहाथि ।१३। [सर्वगाथा १६८ ] दूहा ४ कुमरइ पूछथर कुण तु, किम कीधउ उपगार । देव वदइ हुँ देवता, नामइ नागकुमार ।। १ ।। मई तुझ आश्रम मुंकीयउ, पड़तउ पाणी मांहि । कीधउ रूप मई कूवड़उ, चित माहे हित चाहि ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेलक चौपई] [१६ पुण्य घणउ तुझ पाछिलउ, सबलउ तुझ सनेह । सानिधकारी हुँ थयउ, इहाँ कणि कारण एह ॥३॥ कुमर कहइ सगपण किस्यउ, मुझ तुझ माहोमांहि । नाग कहइ सांभलि निपुण, आणी अंगि उछाह ॥४॥ [सर्वगाथा १७२] ढाल (९) पूरव भव तुम्हें सांभलउ, एहनी धनपुर नगर धरम तिलउ, सेठ धनंजय सारो रे । धनवती नारि धरम निलउ, आभ्रण शील उदारो रे ।। १ ।। एहवा मुनिवर आविया, नाम थी हुयइ निस्तारो रे। दरसण जेहनउ निरखतां, पामीजइ भव पारो रे ॥२॥ ए० सेठ दातार सिरोमणि, साधु भगति आचारो रे। ऊन्हालइ लू आकरी, तावड़उ तपइ अति तारो रे ॥ ३ ॥ एक तिण अवसरि आया तिहां, सूधा साध निग्रंथो रे। गाम नगर गुरु विहरता, पालइ मुगति नउ पंथो रे ॥४॥ ए० सतावीस गुण सोहता, जीव तणी करइंजयणा रे। किम ही कूड़ बोलइ नहीं, लव अदत्त न लयणा रे ।। ५॥ ए० मैथुन थी विरमा मुनि, नहीं परिग्रह नहीं माया रे। रात्रइ क्यु राखइ नहीं, न हणइ छज्जीव निकाया रे ।। ६ ।। ए० इंद्री वसि करइ आपणी, लोभ तउ नहीं लागारो रे। क्षमावंत मुनिवर खरा, भावना गुण भण्डारो रे ॥ ७ ॥ ए० पड़िकमणउ पडिलेहणा, किरिया ना खप कारो रे। संयम योग धरई सदा, चरण करण सुविचारो रे ॥ ८॥ ए० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] [समयसुन्दर रासत्रय मन वचनइ काया मुणी, सुदर योग समग्गो रे । सीतादिक पीड़ा सहइ, अनइ मरण उवसग्गो रे ॥ १ ॥ ए० एहवा गुण अणगार ना, वलि ते विद्या पूरा रे । प्रश्न पडतर परवड़ा, सबल तपस्या सूरा रे ॥१०॥ ए० उन्हालइ आतापना, सीयालइ सहइ सीतो रे । वरषा इंद्री वसि करइ, चारितीया सुध चीतो रे ॥११॥ एक संवेगी सूधा यती, मोटा साध महतो रे। महानुभाव मुनीसरू, विनयवंत जसवंतो रे ॥१२॥ एक क्रोध कषाय नहीं किहां, कठिन क्रियानुष्ठानो रे। सुमति गुपति गुण सोहता, ध्यान धरम सावधानो रे ॥१३॥ एक कुखी संबल कुल तिला, निरमम निरहंकारो रे । गोचरि करइ गवेषणा, अति सूझतउ ल्यइ आहारो रे ॥१४॥ ए० मुनिवर मासखमण तणइ, पारणइ तेथि पधात्या रे। दरसण धनदेव देखतां, निज आतम निस्तास्या रे ॥१५॥ ए० साम्हउ आयउ साधु नइ, परमाणंद मनि पावइ रे । मिश्री दूध मीठा घणु, वांदी नइ विहरावइ रे ॥१६॥ ए० ते धनदेव सिंहा थकी, पुण्य तणई परभावइ रे। हुयउ नागकुमार हुं, देवता मोटइ दावइ रे ॥१५॥ ए० धनदत्त भावभगति धरी, आणंद अंग न मावइ रे। सेलड़ीरस अति सूझतउ, विधि सेती विहरावइ रे ॥१८।। एक भाव खंड्यउ पडिलाभतां, तिण वेला तिण्ह वारो रे। तूंते धनदत्त ऊपनउ, सुख लाधां अति सारो रे ॥१६॥ ए० For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेलक चौपई ] . [२१ भाव खंडाणउ ते भणी, वियोग पड्यउ ति त्रिण वेला रे। वलि रहिनइ विहरावीयउ, महिला मिली तिण मेला रे ॥२०॥ कीधउ रूप कुरूप मई, वीर ते एणि विचारइ रे । अधम पुरोहित ओलखी, मत तुझनई ते मारइ रे ॥२१॥ ए० सुर वाणी सुणतां थकां, ईहा पोह मनि आण्यउ रे । पूरब भव पणि आपणउ, जातीसमरण जाण्यउ रे ।।२२।। एक प्रोहित ऊपरि कोपीयउ, कुण अखत्र कमायउ रे । मारण राजा मांडियउ, कुमर कृपाल मुकायउ रे ।।२३।। एक सिंहलसुत सुख भोवगई, देव गयउ वात दाखी रे। दानइ दउलति पामीयइ, समय सुन्दर छइ साखी रे ॥२४॥ ए० [सर्व गाथा १६६] दूहा ६ मात पिता मिलवा भणी, उत्कंठा धरइ एह । पांख कारी पहुंचु तिहां, साचउ पुत्र सनेह ॥१॥ अठसठि तीरथ छइ इहां, धुरि गंगा परधान। अधिकी मातो एहवी, मात-पिता बहु मान ।।२।। धर्माचारिज-धर्मगुरु, मा-बाप सेठ महंत । उसिंकल ए त्रिहुं तणा, हा किम माणस हुंत ॥३॥ जाव जीव जउ जुगति सु, सेवा कीजइ सार । माता नी राति माह नी, ऊरण नहीं अपार ॥४॥ माता कूखि धर्यउ मुनइ, दस मासां सीम दुक्ख । पाली नइ पोढउ कीयउ, सरज्यउ नही मा सुक्ख ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] [समयसुन्दर रासत्रय मा बाप गरढा माहरा, मई मुक्या मतिहीण । तुरत जाउ हिव हुं तिहां, लागि रहुं पगि लीण ।।६।। [सर्व गाथा २०२ ] ढाल (१०) तिमरी पासइ वडलं गाम, एहनी ढाल, वाहण नी, सिंहलसिंह मांगी हिव सीख, वर जीवे तुकोड़ि वरीष । आसीस लेइ नइ उड्यउ आकास, बइसि खटोलड़ि बहुत उलास ॥१॥ चिहुँ दिसि बइठी कुमरी च्यार, कुमर बइठउ विचमई सुखकार। गई रे खटोलड़ि आपणइ गाम, कुमर तणा फल्या वंछित काम।।२॥ माता पिता नइ जाइ मिलियउ, दुक्ख वियोग तणउ दुर टलियउ। हीयंडउ मात पिता नउ हरख्यउ, नयणे आपणउ नंदण निरख्यउ॥३॥ च्यार बहू अति चतुर सुनाम, प्रेम सुसासू नइ करइ प्रणाम । सासू बहू नई द्यइं आसीस, जस पुत्रवती हुइज्यो सुजगीस ॥४॥ आपणउ राजकुमर नई आप्यउ, थिर राजा आपणइं पाटि थाप्यउ। राजा योग मारग लियउ रंग, अद्भुत मुगति मारग नउ भंग॥५॥ रूड़ी परि सिंहलसुत राज, करइ अनोपम धरम ना काज । पंडित गुरु पासइ प्रतिबुद्ध, श्रावक ना व्रत पालइ सुद्ध ।।६।। खिण खिण राजा कंथा खंखरइ, झाझी द्रव्य नी कोड़ि झांझरइ । पृथवी ऊरण पूरण कीधी, दानइ द्रव्य तणी कोडि दीधी ॥७॥ सत्कार मंडाया सार, दुखियां नइ ऊधरइ दातार । आपणइ देसि पलाइ. अमारि, आंप रहइ उत्तम आचारि ॥८॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेलक चौपई ] [ २३ वावरइ दस खेत्रे निज वित्त, चतुर विचक्षण चोखइं चित्त । जिनप्रासाद मंडाया जेण, ताजा उत्तंग तोरण तेण ॥६॥ मंडप पूतलि जग मण मोहई, सुन्दर दंड कलस धज सोहइ । रण रण रणकइ घंट रसाल, करइ राजा पूजा त्रिणकाल ||१०|| भगवंत ना बहु बिंब भरावइ, कुलदीपक परतीठ करावइ । लाभ भणी वलि न्यान लिखावइ, सूत्र सिद्धांत ना अरथ सिखावइ ||११|| साधु अनइ साधवी नइ सुद्ध, आहार पाणी द्यइ अविरुद्ध । साहमी साहमणि ऊगतइ सूरि, परघल भोजन द्यइ भरपूरि ||१२|| जीरण देहरा ऊधरइ जाण, पूरब पुण्य तणइ परिमाण । पौषधशाल करावइ पवित्र, चिहुंदिसि चंद्रोदय सुविचित्र || १३ || साधारण द्रव्य मूकइ सार, ए दस खेत्र तणउ अधिकार । पड़िकमणउ सामाइक पोषउ, आठ करम रोग मेटण ओसउ || १४॥ सदगुरु पासि सुइ सुवखाण, आगम अरथ तणउ अति जाण । पर उपगार करइ परगट्ट, विनय विवेक वारु कुलवट्ट ॥ १५ ॥ बहु दिन श्रावक ना व्रतबार, निरमल पाल्या निरतीचार । अंत समइ अणसण पणि कीधउ, मन सुधि मिच्छामि दुक्कड़ दीघउ ॥ १६ ॥ मरण समाधि करी सौधर्म, सुर पदवी पामी शुभ कर्म । भोगवि देव सम्बन्धी भोग, सुन्दर अपछर सुख संयोग ||१७|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] | समयसुन्दर रासत्रय देवलोक थी चषि महाविदेह, उत्तम अवतार लहिस्यइ एह । साधु समीप सुणी धमसार, भाव सुं लेस्यइ संयम भार ||१८|| चारित्र पाली निरतीचार, पामस्यइ केवलन्यान प्रकार | आठ करम नउ करिस्यइ अंत, मुगति तणा फल ल हिस्यइ महंत १६ दान तणा फल परतखि देखउ, पुण्य पडूर सिंहलसुत पेखउ । साधु नइ सेलड़ि रस विहरायड, पदमिनी प्यार सहित सुख पायउ ||२०|| इम जाणी आणी उल्लास, साधु नइ दान देज्यो सुविलास । अविचल लहिस्यउ सुख अपार, कहइ समय सुंदर अधिकार ||२१|| [ सर्व गाथा २२३ ] ढाल (११) मदन मइ' वासउ माहव मांडियउ रे, एहनी राग धन्या सिरी दान सुपात्रइ श्रावक दीजियह रे, दानइ दउलति होइ । दीघांरा देवल चड रे, साच कहइ सहु कोइ ॥ १॥ दा० संवत सोल बहुत्तरि समइ रे, मेड़ता नगर मकारि । प्रियमेलक तीरथ चउपइ रे, कीधी दान अधिकार ||२|| दा० कचरउ भाबक कौतकी रे, जेसलमेरी जाण । चतुर जोड़ावी जिणए चउपई रे, मूल आग्रह मुलताण ||३|| दा० इण चउपइ ए विशेष छइ, सगवट सगली ठाम । बीजी चउपइ बहु देखज्यो रे, नहिं सगवट नुं नाम || ४ || दा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियमेलक चौपई] [२५ श्री खरतर गच्छ सोहता रे, श्रीजिनचंदसूरीस । शिष्य सकलचंद शुभ दिसा रे, समयसुंदर तसु सीस ॥५॥ दा० जयवंता गुरु राजिया रे, श्री जिनसिंह सूरिराय । समयसुंदर तसु सानिधि करी रे, इम पभणइ उवझाय ॥६॥ दा० भणतां गुणतां भाव सुं रे, सांभलतां सुविनोद । सययसुन्दर कहइ संपजइ रे, पुण्य अधिक परमोद ॥७॥ दा० सर्व गाथा २३० इतिश्री दानाधिकारे प्रियमेलक तीर्थ प्रबन्धे सिंहलसुत चउपई समाप्ता दाल १? ग्रथा ग्र० ३०५ लिखिता च मेदिनीतटे चोपडोपाश्रये छ। ॥श्री। संवत् १६७२ वर्षे कातीवदि छठि दिने । साधवी चांपा लिखितं ॥श्री।। [अभय जैन ग्रन्थालय प्रति नं० ४३१८ बं० ८९] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर समयसुन्दरोपाध्याय कृत श्री वल्कलचीरी चउपई दहा प्रणमुपारसनाथ नइ, प्रणमु सहगुरु पाय । समरू' माता सरसती, सहु करज्यो सुपसाय ॥१॥ वलकलचीरी केवली, मोटउ साध महंत । चूंप करी कहुं चउपई, सांभलज्यो सहु संत ॥२॥ गुण गिरुआ ना गावता, वलि साधना विशेष । भव मांहे भमियइ नहीं, लहियइ सुख अलेख ॥३॥ मइ संयम लीधउ किमइ, पणि न पलइ करु केम । पाप घणा पोतइ सही, अटकल कीजइ एम ॥४॥ तउ पणि भव तरिवा भणी, करिवउ कोइ उपाय । वलकलचीरी वरणवू, जिम मुझ पातक जाय ॥५॥ ढाल (१) चउपई नी, राग----रामगिरी जंबूदीप आपे छां जिहां, भरतक्षेत्र भलं ते तिहां । मगध देश अति रलियामणउ, सर्व देश मइ सोहामणउ ॥१॥ राजगृह नगरी ऋद्धि भरी, चउद चउमासा महावीर करी। सालिभद्र नइ धन्नउ साह, इण नगरी पाम्यउ उच्छाह ॥२॥ १-सरसति सामिणी २ साधां तणा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्कलचीरी चौपई] [२७ इण नगरी थयउ नंद मणियार, तिण पोसउ कीधउ तिणवार । तरसे मरइ' राति तिणइ, जल बावड़ी करावी जिणइ ॥३॥ ददुर नाम थयउ ते देव, श्रीबधमान नी करतउ सेव । सोनहिआ साढी कोडि बार, कइवन्नइ खाधी इक वार ॥४॥ जंबू सामि थयउ जिण ठामि, आठ अंतेउरि तजि अभिराम । कनक तणी निन्नाणूं कोडि, संयम लीधउ सहु रिधि छोडि ॥५॥ इहां गणधर गया मुगति इग्यार, गौतम प्रमुख बड़ा अणगार । मुगति गया मेतारिज जती, सहिनाणे एहवे सोभती ॥६॥ राज करइ तिहां श्रेणिक राय, क्षायिकसमक्ति रउ कहिवाय । मंत्री जेहनइ अभयकुमार, च्यारि बुद्धि धरइ सुविचार ॥७॥ न्याय तपास करइ नितमेव, सारइ श्री महावीर नी सेव । दीवाण केहनइ न करइ दुखी, राजा राज प्रजा सहु सुखी ॥८॥ इण अवसरि श्री अरिहंतदेव, सुर नर किन्नर सारइ सेव । गुणसिलइ चैत्य गुणे करि भख्या, श्री बधमान सामी समोसस्या।।। गणधर इग्यारह अणगार, चउद सहस साथि सुविचार । साधवी सहस छत्तीस सुजाण, प्रातीहारज अष्ट प्रमाण ॥१०॥ मांड्यउ समवसरण मंडाण, भगवंत बइठा जाणे भाण । इन्द्र तिहां चउसठि आवीया, प्रभु देखी आणंद पामीया ॥११॥ वलकलचीरी नी चउपई, पहली ढाल ए पूरी थई। समयसुदर कहइ सुणिज्यो सहू, बोलिस बात हुँ आगइ बहू ॥१२॥ [ सर्वगाथा १७] (१ मरतइ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] [ समयसुन्दर रासत्रय दूहा वनपालक वद्धामणी, दीधी आणी दोड़ि। वन मइं पधास्या वीर जिण, बोलइ बेकर जोड़ि ॥१॥ हीयडइ श्रेणिक हरखीयउ, मेघ आगम जिम मोर । वसंत आगम जिम वनसपती, चाहइ चंद चकोर ॥२॥ मन वंछित वद्धामणी, दीधउ तेहनइ मान' । स्नान मज्जन श्रेणिक करी, पहिरइ वस्त्र प्रधान ॥ ३ ॥ हरख घणइ हाथी चड्यउ, सखर धस्यउ छत्र सीस । चिहुं पासे चामर ढुलइ, आपइ भट्ट आसीस ।। ४ ॥ हय गय रथ पायक हुआ, सहु राजा नइ साथि ।। विधि सुचाल्यउ वांदिवा, अपणी ले सहु आथि ।।५।। [सर्वगाथा २२ ढाल (२) हुंवारीलाल, नी मारग मइ मुनिवर मिल्या हुँ वारी लाल, रह्यउ काउसगि रिषिराय रे । हुं. एक पगइ ऊभउ रह्यउ हुँ०, पग ऊपरि धरी पाय रे । हुं ॥१॥ हुं बलिहारी जाउं साधनी हुं०, ए मोटउ अणगार रे । हुं० आप तरइ अउर तारवइ हुँ, नाम थकी निस्तार रे । हुं॥२॥ सूरिज साहमी नजरि धरी हुँ०, बे ऊँची धरी बांह रे । हुं० सीत तावड़ परीसा सहइ हुँ०, मोह नहीं मन माह रे । हुँ० ॥३॥ १ दान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्कलचीरी चौपई ] [२६ ध्यान हीयइ सूधां धरइ हु०, निरमल निरहंकार रे । हुँ० दुख आपइ निज देहनइ हुँ०, ए सहु जाणइ असार रे । हुं० ॥४॥ समुख दुमुख श्रेणिक तणा हुँ०, दूत आया तिहां दोय रे । हुँ समुख प्रशंसा इम करइ हुँ०, कलि तुझ समउ नहिं कोय रे ।हुं० ॥५॥ राज छोड़ी वन मइ रह्यउ हुं०, द्यइ देही नइ दुक्ख रे । हुं० जनम जीवित सफलउ करइ हुँ०, त्रोडइ करम नु तिक्ख रे । हुं।६।। धन माता जिण उर धस्यउ हुँ०, धन्न पिता धन वंश रे । हुँ । एहवउ रतन जिहाँ ऊपनउ हुँ०, सुरनर करइ परसंस रे । हुँ० ॥७॥ दरसण तोरउ देखता हुं०, प्रणमंता तोरा पाय रे । हुँ० आज निहाल अम्हे हुआ हुं०, पाप गया ते पुलाई रे । हुं ॥८॥ तू जंगम तीरथ मिल्यउ हुँ०, सुरतरु वृक्ष समाण रे । हुं० । मन वांछित फल्या माहरा हुँ०, पेख्यउ पुण्य प्रमाण रे । हुं ॥६॥ बीजी ढाल इम बोलतां हुं०, सुकृत संच्यउ हुयइ जेह रे । हुँ० बोधि हुज्यो बीजे भवे हुं०, समयसुंदर कहइ एह रे । हुँ० ॥१०॥ [सर्वगाथा ३२] दूहा ११ दुमुख दूत मुनि देखिनइ, असमंजस कहइ एम । पाखंडी फिट पापीया, कहि व्रत लीधउ केम ॥१॥ गृहि ब्रत गाढउ दोहिलउ, निरवाह्यउ नवि जाय । कायर फिट तई सुं कीयउ, सहू पूठिइ सीदाय ॥२।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] बालक थाप्य वइरी वहिला बइयर थारी बापड़ी, पडिस्यइ बंदि नंदन मारी नांखिस्यइ, दल मुंहडे पुत्र मुआं पछी पापीया, तू जाइसि पितर पिंड लहिस्rs नहीं, रोस्यइ बइठा पुत्र विण गति किम पामियइ, कीधुं तई स्युं मुख जोइयइ नहिं मूल तुझ, नवि लीजइ तुझ दुष्ट वचन दुरमुख कही, आगइ चाल्यउ रौद्र ध्यान ते रिषि चड्या, साल्यउ पुत्र रौद्र ध्यान माहे राउ, चूकउ चितवइ मन सुं संग्राम मांडीयउ, जुद्ध करीजइ हथियार लीधा हाथमइ, घा मारइ अति वयरी सुं विढतां थकां सबलो उठ्यो [ समयसुन्दर रासत्रय बापड़, नान्हउ घणू निपट्ट | वीटिस्यइ, नगरी घणू १. आण्यउ चित्त उच्छाह, Jain Educationa International निकट्ट ||३|| प्रगट्ट | दहaट्ट ||४|| For Personal and Private Use Only निस्तान । रान ॥ ५॥ काम | नाम ||६|| एह । सनेह ||७|| खडग सुं वइरी खंडिया, आण्यउ एहवो ध्यान । एहवइ श्रेणिक आवियर, साधनइ द्यइ सनमान ||१०|| एम । जेम ॥८॥ तुरत हाथी थी ऊतरी, प्रणम्यां मुनि ना पाय । वीर जाइ नइ वांदिया, चरणे' चित्त लगाय ||११|| [ सर्व गाथा ४३ ] घोर । सोर ||६|| Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्कलचीरी चौपई ] [३१ ढाल ( ३ ) राग-गउड़ी जाति जकड़ी नी, 'श्रो सहगुरु सुपसाउलइ' एह नउकार नी श्रेणिक देसना सांभली, प्रसन करइ प्रभु पासो जी, मारग मई मुनि वांदियउ, उग्र तप करइ उपवासो जी। उग्र तप करइ उपवास अहनिस, राजरिषि गरुअड़ निलउ, ते मरइ हिवड़ा तउ मुनीसर,' केथि जायइ कहउ भलउ । श्री वीर बोल्या सुणि हो श्रेणिक, तई वांद्या तेहवइ रली, जइ मरइ तउ सातमी जायइ, श्रेणिक देसणा सांभली ॥१॥ श्रेणिक मनि सांसउ पड्यउ, कहइ सामी ते केमो जी, ए उग्र तपसी एहवउ, उपजइ सातमी केमो जी। ऊपजइ सातमी केम प्रभुनइ, वलि, क्षणांतरि पूछियउ, मुनि मरइ हिवणां तो सर्वारथ-सिद्धि जातउ जाणिउ । भगवंत एह संदेह भाज्यउ, चारतियउ कोपइ चड्यउ, जब दुमुख कुवचन कह्या जातइ, श्रेणिक मनि सांसइ पड्यउ॥२॥ मन सु संग्राम मांडियउ, तीर नांख्या अति ताणो जी, खडक भांजी खंडो खंड कीयउ, रण भांज्या राय राणो जी। रण भांजिया राय राण वयरी, टोप वाहण कर वाहियउ, सिर लोच देखी राय चिंतवइ, व्रत लेइ मइ विराहियउ । हा हा हिवइ हुं केम छूटिसि, मई अन्याय मोटउ कियउ, अति घणउ पच्छाताप मंड्यउ, मन सुसंग्राम मंडियउ ॥३॥ २ किंहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समयसुन्दर रासत्रय वइरागइ मन वालियउ, कुण पिता कुण पुत्रो जी, कुटुंब सहू को कारिमउ, सहु स्वारथ नउ सूत्रो जी। सहु स्वारथ नउ सूत्र दीज्यइ, मइ हिंसा कीधी महा, भारी क्रमइ मइ पिंड भास्यउ, हुँ नरगइ जाइस ह हा !! आवस्यइ आडउ नहीं कोई, हीया मांहि निहालियउ, मुनि एम पच्छाताप मांड्यउ, वइरागइ मन वालियउ ॥४॥ ध्यान भलउ हीयड़इ धस्यउ, लोच थी प्रतिबोध लाधउजी, पाप आलोया आपणा, सूध थयउ वलि साधो जी। सूधउ थयउ वलि साध ततखिण, करम बहुल खपाविया, जिम पड्यउ तिम वलि चड्यउ ऊंचउ, ऊत्तम परणाम आवीया । भावना बार अनित्य भावी, अति विसुद्ध आतम कर्यउ, मूलगी परि मुनि रह्य उ काउसगि, ध्यान भलउ हीयडइ धर्यउ।५ पूछिउ श्रेणिक प्रभु प्रति, रिषि बालक नइ राजो जी, दे नइ कां दीख्या ग्रही, कुण पड्यउ ए काजो जी। कुण पड्यउ ए काज प्रभु कहइ, सुणि पोतननगरी तणउ, सोमचंद राजा प्रिया धारिणी, तेज प्रताप तपइ घणउ । प्रेमइ करइ प्रिउ तणउ माथउ, जोवती लीला गतइ, एक पली दीठउ कान ऊपरि, पूछिउ श्रेणिक प्रभु प्रतइ ॥६॥ देव देखउ दूत आवियउ, कहइ राजा ने केथो जी, । नयणे दूत दीसइ नहीं, ए नावइ किम एथो जी। ए नावइ किम एथि, राणी, कहइ राजन सांभलउ, पली रूप पुरुष ए दूत जमनउ, झबकि मन प्रियु झलफलउ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्कलचीरी चौपई ] [ ३३ पोली पुरुष मांहि पडह फेरड, सुंदरि इम संतोषीयउ, कहिस्य नहीं को पली आव्यउ, देव देखउ दूत आवीयउ ||७|| नृप कहइ तू समझी नहीं, लागी नहि पलि लाजो जी, पणि पूरवजे माहरड़, परिहरयड पलि विण राजो जी । परिहउ पलि विण राज आपणउ, वइरागइ व्रत आदर्य, हूं मूढ माया मांहि खूतो, राग द्वेष करी भयउ । हुं लेउ दीक्षा हिवइ पणि मुक्त, पुत्र अति नान्हो सही, पुत्र नई बइठी पालिजे तु नृप कहइ तूं समझी नहीं ||८|| धीरज धरि कहै धारिणी, हुं होइसि तुम्ह साध्यो जी, कामिनी कंथ साथि कही, ए भोगवो सुत आध्यो जी । ए भोगवो सुत आथि अपणी, लाड कोड सुं लघु वया, परसन्नचंद नइ राजि थापी, राय राणी तापस थया । आविया तापस आश्रमइ ते, वारू कीध विचारिणी, करि कुटी ओटज रह्या कानन, धीरिज धरि कहइ धारिणी || आणइ राणी इंधणी, वनफल फूल विशालो जी, कोमल विमल तरणे करी, सेज साजइ सुकमालो जी । सेज सजइ सुकमाल राणी, इंगुदी तेलइ करी, उटला ऊपरि करइ दीवउ, भगति प्रिउनी मनि धरी । ओटला लिंपइ आणि गोबर, गाइ छइ तिहां वन तणी, वन व्रीहि आणइ आप तापस, आणइ राणी इंधणी ॥१०॥ तपस्या करइ तापस तणी, निरमम नइ निरमायो जी, सूधुं सील पालइ सदा, ध्यान निरंजन ध्यायो जी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] [ समयसुन्दर रासत्रय ध्यान निरंजन ध्याय धरमी, उत्कृष्टी रहणी रहइ, आकरी आतापना करी नइ दिन प्रतइ देही दहइ । ए ढाल त्रीजी समयसुन्दर, जाति जकड़ी नी भणी, सोमचंद रिपि धारिणी सेती, तपस्या करइ तापस तणी || ११|| [ सर्व गा० ५४ ] दूहा ५ रहतां आश्रमइ, सोमचंद इण परि सुविचार, निरख्यउ ग्रभ नारीतणउ, पूछ्यउ कुंण प्रकार ॥ १ ॥ कुल कलंक दीसइ किसउ, कहइ राणी सुणि कंत । गृहस्थ थकां नउ ए गरम, मत बीहे मनि मंत्र ॥ २ दीक्षा लेतां दाखवुं, तो व्रत परइ अंतराय । सूधुं माहरु सील छइ, सोनइ साबि न मासे तापसी, सुत जायउ 11 थाय ॥ ३ ॥ पूरे सुकमाल | माता ततकाल ॥ ४ ॥ मंदेवाड़ पड़ी मुई, ते पड़ी वलकल चीर सुं बीटियो, जात मात्र अंगजात । वलकलचीरी एहव, नाम दियउ निज तात ॥ ५ ॥ [ सर्व गा० ५६ ] ढाल ( ४ ) राग काफी धन्यासिरी मिश्र, जाइ रे जीउरा निकसकइ एहनी ढाल, दुनीचंद ना गीत नी ढाल वलकलचीरी वालह, मोटउ करइ धावि मायो रे । ते पण धावि तुरत मुंई, सामिण विण न सुहायो रे ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्कलचीरी चौपई ] [३५ महिषी दूध पीयउ मुणी, धरती अखड़ी - धानो रे।। वनफल खवरावइ वली, वली सीखावइ विधानो रे ॥२॥ राति दिवस रमतो रहइ, मृगलां नान्हां माहो रे । वन ब्रीहि खाये वली, आणे अंगि उच्चाहो रे ॥३॥ पग चांपइ ते पिता तणा, सेवा करइ सुविचारो रे। नाम न जाणइ नारि नु, व्रतधारी ब्रह्मचारो रे ॥ ४ ॥ अस्त्री नइ ओलखइ नहीं, बहु तापस सुं बंधाणो रे। भद्रक जीव भोलउ घणं, जोगनउ थयउ ते जुवाणो रे ॥५॥ प्रसनचंद पूठिइ थकी, सांभली सगली वातो रे। धारिणी माता उरि धस्यउ, वनि थउ पुत्र विख्यातो रे ॥ ६ ॥ मुझ बांधव ते मुनिवरु, मुझनइ जउ मिलइ केमो रे। उतकंठा धरी एहवी, प्रगट्यउ बांधव प्रेमो रे॥७॥ चतुर चीतारा तेडीया, हुकम कीयउ राय एहो रे। वनि जाउ वहिला तुम्हें, तेथि पिता मुझ तेहो रे ॥८॥ वलकलचीरी वनि रहइ, रूडु तेहन रूपो रे । चतुर आणउ तुम्हें चीतरी, भाखइ इणि परि भूपो रे ॥ ६ ॥ चतुर चीतारा चालिया, प्रभु आदेश प्रमाणो रे। पहुता वन मांहे पाधरा, जिहां सोमचंद सुजाणो रे ॥१०॥ ते वलकलचीरी तणउ, चीतस्यउ रूप चित्रामो रे। रूप दिखाड्यउ राय नइ, अति अदभुत अभिरामो रे ॥११॥ आणंद राय नइ ऊपनउ, अहो अति सुंदर रूपो रे। बहु अणुहारउ बापनउ, समर तणो ए सरूपो रे ।।१२।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समयसुन्दर रासत्रय राजा रूप आलिंगीयउ, मुझ बांधव मिल्य उ एहो रे । माथो चुंब्यउ महिपती, रलियायत थयो रायो रे ॥१३।। चउथी ढाल ए चित वस्यउ, वलकलचीरी वृतंतो रे। समयसुदर कहइ नप थयउ, उच्छक मिलण अत्यंतो रे ॥१४॥ सर्व गाथा ७३] चित माहे राय चिंतवइ, मुझ पिता वन मांहि । व्रत पालउ अति वृद्ध ते, आणी अधिक उछाह ।। १ ।। पणि दुक्कर तप किम तपइ, मुझ बांधव सुकमाल । वनचर नी परि वनि भमइ. वय जोवन विकराल ॥२॥ राज रिद्धि हुँ भोगवू, लीलासु लपटाइ । अविवेकी हुँ एकलउ, कुण आचार कहाय ।। ३ ।। बांधव बांह कहीजियइ, साचउ बांधव साथ । मा जाया भाई मिलइ, एहिज मोटी आथि ॥ ४ ॥ ए बांधव इहां हुइ, माहरा राज मझारि । बे बांधव सुख भोगवां, तउ सफलउ अवतार ॥५॥ बोलावी वेश्या बहू, हुकम कीयउ राय एह । वेस करउ मुनिवर तणो, तापस सरिखउ तेह ॥ ६ ॥ तिण आश्रमि जाओ तुम्हे, वलकलचीरी वीर। आणउ एथि, उतावलो, हुकम तणो ए हीर ॥ ७ ॥ कला अपणी सहु केलवउ, वचन सराग विकार। दे आलिंगन दाखवउ, कन्द्रप कोडि प्रकार ॥ ८ ॥ [सर्व गाथा ८१] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्कलचीरी चौपई ] ढाल (५) राग - ढोलणी दहिया नइ महिया रे बांभाण वीरला रे रायजादी रे, एहनी । वेश्या नी टोली रे मिली विलसती रूप रूड़ी रे हां रे वारू चतुर सउसठि कला जाण । कंचन वरण तनु कामिनी रू० हां रे० बोलति अमृत वाणि ||१|| रंगीली रे वंगीली रे हां रे वा० जोवन लहरे जाइ | आंकणी । गजगति चालइ गोरी मलपंती, रू० हांरे० विभ्रम लील विलास । लोचन अणियाला लोभी लागणा, रू० हांरे० पुरुष बंधण मृग पास ||२|| ललना चाली रे बील फल ले, रू० हांरे वेस तापस नउ वणाय । पुहती नइ तापस आश्रमि पाधरी, रू० हारे० दरसन अपणो दिखाय ||३|| जोगना पासइ रे जई ऊभी रही रे, रू० हांरे० अतिथि आया मुझ केइ । अभ्यादर करी ऊठीयउ रू० हांरे० दूर थी आदर देइ ||४|| पूछ उ ने पधार्या तुम्हे किहां थकी, रू० हांरे० कुंण कहउ तुम्हे बात । अम्हे तउ पोतन आश्रमि रहुं, रू० हांरे० तापस तेहनी कहात |५| अम्हे नइ प्रांणा थारइ आवीया, रू० हांरे० करीसि भगति [ ३७ वलकलचीरी वनफल आणीया, रू० हांरे० बील दिया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only कुण आज । बहुसाज || ६ || Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] [समयसुन्दर रासत्रय कहइ तापस नीरस ए किसां, रू० हारे० फल खायइ तुं फोकट्ट। इम कही नइ फल आपणां, रू० हारे० प्रवर ते बील प्रगट्ट ॥७॥ सखर सवाद फल नउ चाखीयउ, हारे० हाथ लगाड्यउहीयाबारि। कहइ रिषि तुम्हारइ हीयइ किसुं, रू० हारे० ए फल तणइ ___अणुहारि ॥८॥ आम्हारइ आश्रमि फल एहवा, रू० हारे० सखर घणउ सुसवाद। अंगफरस तापस अति भलउ, रू०हारे० प्रामीयइ पुण्यप्रसाद ।। अंगनइ संयाल आश्रम अम्हतणउ रूहारे०जउ हुंसि फलनी होई। तउ तुम्हे आवउ आश्रमि अम्ह तणइ रू० हारे० सखर आश्रमि छइ सोइ ॥१०॥ मीठां नइ लागां फल मन गम्या रू० हारे० अंग फरस श्रीकार; जीभनउ विषय रे जीपतां दोहिलउ रू० हारे० कुण जीपइ काम विकार ॥११॥ मुझ ले जावउ पोतन आश्रमइ रू० हारे० काउ संकेत नउ थान । संच करी नइ नारि ले नीसरी रू० हारे०१ जीवन फल परिधान ॥१२॥ रूख उपरि राख्या टुकीया रू० हारे० करइ मत कोइ केड़ि। वतायउ सोमचंद पूठि आवतउ रू० हारे० वनिता नासी गई वेडि ॥१३॥ वलकलचीरी वनि एकलउ रू० हारे० तापस न देखइ तेह' । भयभ्रांत थक उ वनमई भमइ रू० हारे० पूठउ गयउ बाप प्रेम ।१४। ... १ ताजा वलकल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्कलचीरी चौपई ] [३६ इणि अवसरि एक रथी मिल्यउ रू० हारे०कीयउ अम्याद प्रकार। काउ तुम्हे केथि पधारस्यउ रू० हारे० कहइ ते पोतन अधिकार ॥१॥ तुम्हे कहउतउ हूं साथि तुम्हारड़इ रू० हारे० आवं पोतन आश्रमि। कां तुं नावइ इम कहइ रथी रू० हारे० मोह्यउ वचन नरंमि।।१६।। तात तात कहइ तेहनी नारिनइ रूव्हारे० वहिली वांसइथकउ जाय। कामिनी कहइ रे निज कंतनइ रू० हारे० ए मुझ अचरिज थाय ॥१७॥ रिषिपुत्र रलियांमणउ रू० हारे कहउए भोलउ केम। कंत कहइ सुणि कामिनी रू० हारे० एह मुगध रिषि एम ॥१८॥ इण अस्त्री का दीठी नहीं रू० हारे० सहु तापस संसार । भद्रक जीव भोलउ घणु रू० हारे० निरति नहीं नर नारि ॥१६।। वलकलचीरी पूछयउ वली रू० हारे० वहलीया वहता देखि । मृगलां मोटां नइ का मारउ तुम्हे रू० हारे० वाहउ केण विसेषि ॥२०॥ हसि नइ कहइ रथी एहवं रू० हारे० सुणि भद्रक सुविचार । काम कीधां इण एहवा रू० हारे० अम्ह दोस ए न लिगार ॥२१॥ रिषिपुत्र नइ रथी लाडुआ रू० हारे० खावा नइ दीया खास । मोदक लागा मीठा घणु रू० हारे० उपनउ अधिक उलास ॥२२॥ रिषिपुत्र कहइ रथी एहवा रू० हारे० मोदक एहवइ मानि । तापस पणि दीधा हुँता रू० हारे० पोतन ना परधान ॥२३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] । समयसुन्दर रासत्रय अधिक उछक थयउ मोदके रू० हारे० पोतन पहुंचु किवार । वन-फल थी विरतउ थयउ रू० हारे० अरस तिहां आहार ॥२४॥ रथी नइ आगलि जातां राह मई रू० हारे युद्ध लागउ अति जोर। प्रहार दीधउ रथी पिशुन नइ रू० हारे कोप करी नइ कठोर ॥२५॥ रथी नइ प्रहारइचोर रंजियउ रू० हारे० मंक्यउ निज अभिमान । माल लेज्यो इहां छइ माहरउ रू.० हारे० तुम्हनइ थय उ तुष्टमान २६ माल सकट मांहि थी लीयउ रू०, हारे० त्रिहुं जणे मिलीनइ तेह । चोर मुंयउ रथी चालियउ रू०, हारे साथ सहु सुसनेह ॥२७॥ पहुतउ रथी पोतनपुरइ रू०, हारे० रथी काउ सुणि रिषिराय । मित्र अम्हारउ तुमारग तणउ रू, हारे वांट उ अपणउ विहचाय २८ आश्रम पोतनइ ए तुं जा इहाँ रू०, हारे तुं जाणइ जो तेथि। दीधा' रे विना को देस्यइ नहीं रू०, हारे अन्न प्राणी वामएथि २८ इम कहि नइ रथी आपणइ ८.०, हारे गेह गयउ सुप्रसन्न । पांचमी ढाल पूरी थई रू०, हारे० समयसुंदर सुवचन्न ॥३०॥ सर्वगाथा १११ ] दूहा १२ ते वलकलचीरी तिहां, मुनि पोतनपुर मांहि । नरनारी निरखइ घणा, रमता बालक राह ।। १॥ मोटा मन्दिर मालिया, अति ऊंचा आवास । हाथी घोड़ा हींसता, वलि दीधा सुविलास ।। २ ॥ .. १-दाम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्कलचीरी चौपई ] [४१ सुखिया तापस ए सहु, मृग मोटा उदमाद । तात-तात कहि तेहिनइ, अभ्याद हो अभ्याद ॥ ३ ॥ नगर लोक कहि कुण नर, एहवउ ए अजाण । लागा हसिवा लोक ते, भमतां आथम्यउ भाण ।। ४ ।। आपइ को नहिं आसरउ, रहिवा रिषि नइ ठाम । वहतो वेश्या घरि गय उ, ए उटज अभिराम ॥ ५॥ द्रव्य घणउ देई करी, रह्यउ मुनीसर रंग। वेश्या आवी विलसती, उत्तम दीठा अंग ।। ६ ।। तुरत नापित तेडावि नइ, नख लिवराख्या नारि । सूपड़ा सरिखा जे हुता, अंगनउ मल उतारि ।। ७ ।। जष्टाजूट उखेलि नइ, उहलउ कांकसि आणि । . सुगंध तेल संचारियउ, परम सुकोमल पाणि ।। ८ ।। अंग सुंआला अंग सु, वेश्या करि विगन्यान । 'फुट परगट फरस्या सहु, धरि रह्यउ रिषि ध्रमध्यान ।। ६ ।। हां हां हुं हु रिषि करइ, कहइ स्यु करउ मुझ एम । अतिथि आयां अम्ह एहवी, प्रतिपति कीजइ प्रेम ।। १० ।। इण उटले रहिवा करइ, तउ तू मकरे ताणि । करिवा देज्ये जिम करां, वेश्या बोली वाणि ।। ११ ।। ए रहिवा द्यइ ओटलइ, न कह्यउ तिण नाकार | रिषि निश्चल बइसी राउ, वसि कीधउ तिणवार ।। १२ ।। [ सर्वगाथा १२३] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] [ समयसुन्दर रासत्रय ढाल (६) जाति-परियारी कनकमाला इम चिंतवइ, ए ढाल A सखर सुगंध पाणी करी, सहु वेश्या करायउ स्नान रे । वारु वस्त्र पहिरावया, पीला खवराव्या पान रे ॥ १ ॥ वलकलचीरी वर, परणइ वेश्या नी पणि ते प्रीछ नहीं, कारिमी मिली केहs सीस वणाय सेहर, कानि दोय कुंडल लोल रे । ही हार पहिराय, दीपती दीसइ आँगुली गोल रे || ३|| व० बंध्या व बांहे बहरखा, मोती तणी कंठे माल रे । हाथे हथसांकली, भड तिलक कीयउ वलि भाल रे || ४ || व चोवा चंपेल लगावीया, फटडा पहिराया फूल रे । काfरम आरिम कीया, काइक कीधर अनुकूल रे || ५ || व० वाजित्र सखर वजाड़िया, गोरी वलि गाया गीत कहउ इण परि केहनउ, चूकइ नहीं चंचल चित्त रे || ६ || व० गीत गायइ ते इम गिणइ, रिषिजी रूड़उ भणइ वेद रे । आश्रम पोतन इस्याउ, भोलउ जाणइ नहिं भेद रे ॥७॥ ० एक कन्या आणी तिहाँ, रूपवंत घणु रंग रेलि रे । रिषि नइ परणावी, विलसंती मोहण वेलि रे || ८|| व० सुणहर मांहि सूयारिया, सुख सेज तलाई साज रे । रिषि राति विमासइ, ए अतिथि भगति थइ आज रे || रे I १ कामिनी २ नाथ Jain Educationa International पुत्रि रे । सूत्रि रे ||२|| १० For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्कलचीरी चौपई ] [ ४३ छट्ठी ढाल छोटी भणी, वलकलचीरी वेसि रे । समयसुंदर सच कहइ, कुण करम सुं जोर करेसि रे ||१०|| ० [ सर्वगाथा १३३ ] दूहा ते वलकलचीरी तिहां, रहइ वेश्या घरि रंग । तापस रूप वेश्या तिसइ सहु आवी नृप संगि || १ || करजोड़ी सघली कहइ, वलकलचीरी वात । संकेत सीम आव्यहुतउ, तितरइ आयउ तात ||२|| ताम अम्हे नासी गई, बीहती अबला बाल । मन जाण्युं मुनि बालि नइ, करइ भसम ततकाल ॥३॥ लोभायउ बड़ लाडुए, बील फले बहु वार | पाछउ रिषि जास्यइ नहीं, नरवर ते निरधार || ४ || [ सवगाथा १३७ ] ढाल (७) राग - कनड़उ, ठमकि ठमकि पाय पावरी वजाइ, गजगति, बांह लखावर रंग भीनी ग्वालणि आवड, एहनी । वात सुणी राजा विलखाण, भूप करइ दुख भारी । मुझ बांधव कोई मिलायइ || बांधव माहरउ बिहुंथी चूक, वात कीधी अविचारी ||१|| मुद्र मनवंछित मांग ते आपु, सघलइ वात सुणावर मु० || आंकणी तात की तेहनइ मई टाल्यऊ, इहां पणि तेह नआयउ । मु हा ! बांधव कम करतो होस्यइ, मुझ न मिल्यउ मा जायज ॥ २॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] [ समयसुन्दर रासत्रय भाई मिलइ इवड़ भाग किहां थी, वलकलचीरी वीर । मु० आंखे दड़ दड़ आंसू नांख, दुख करइ दिलगीर मु० ||३|| नाटक गीत विनोद निषेध्या, जीवण थयउ विष जेम | मु० निस सूतां पण नीद्र न आवइ, कहउ हिव कीजइ केम मु० || ४ || राजसभा दिलगीर थई सहु, दिलगीर थयउ दीवाण । मु० जिम राजा तिम प्रजा थई जिहां, सहु नइ दुक्ख समाण मु० | ५|| इ अवसर नर राय अनोपम, सबद सुण्या निज कानि । मु० सोहागिण सोहलानी ढालइ, गायइ गीत नइ गानि । मु० ||६|| धप मप धप मप धुधुमिधोंधों, मादलाना धोंकार । मु० नरपति बोल्यउ नरति करउ रे, मूरिख कउण गमार मु० ॥७॥ हुँ दुखियउ चिंतातुर एहवु, ए करइ महुच्छव एम। मु० जोवा काजि मुक्या आपण जण, कहउ ए वाजित्र केम मु० ॥८॥ तिवार पहिली वेश्या तिहां आवी, बोलइ बेकर जोड़ि । मु० सुणि राजन विरतांत कहुँ सहु, खरउ कहतां नवि वौड़ि मु० ॥ ॥ इक दिन एक निमित्ती आयउ, अम्ह मंदिर अतिजाण । मु० तुं कन्या तेहने परणावे, दीसइ रिषि दूकाण मु० ॥ १०॥ अणतेड्यउ तेहवइ एक आयउ, मुझ मंदिर मुनि आज । मु० मई माहरी कन्या परणावी, स्वामित करि सहु साज मु० ||११|| वाजित्र तिण कारण मुझ वाजइ, प्रगट्यउ आणंद पूर । मु० गीत गाय वीवाह ना गोरी, सहु घर मांहि सनूर, मु० ||१२|| नाथ तुम्हारी वात न जाणी, देश धणी दिलगीर | मु० ए अपराध खमउ अलवेसर, गिरुआ सजि गंभीर मु० || १३ | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्कलचीरी चौपई ] [ ४५ साच कही संतोष्यउ राजा, वेश्या वचन विलास | मु० महीपति अपणा माणस मुक्या, आवउ देखि आवास मु० ॥ १४ ॥ जइ देखी आवीनइ जंप, ए चित्राम आकार | मु० तुरत राजा तेहनइ तेडाव्यउ, आप हजूर अपार मु० ||१५|| आंखे देखी तुरत उलखीय, माहरउ ए मा जायउ । मु० सहोदर नइ साई दे मिलीय, परम आनंद सुख पायो || मु०१३ सातमी ढाल थई सुखदाई, भूपति नइ मिल्यउ भाई । मु० समयसुन्दर कहइ सहु मिलिइ सहुनइ, प्रगट हुवइ जउ पुण्याई १७ [ सर्व गाथा १५४ ] दूहा १० सखर हाथी सिणगार करि, बांधव नइ बइसारि । आण्य मंदिर आपणइ, नवल संघाति नारि ॥ १ ॥ उच्छब महुच्छव अतिघणा, कीधा राजा कोडि । बांधव बिहुंनी अति भली, जण जंपइ ए जोड़ि ॥ २ ॥ सह विवहार सीखाविया, जीमण तणी जुगन्ति । बोलण (चालण) वहु हला, अद्भुत हीया उगत्ति ॥ ३ ॥ बलि राजा परणावीयउ, कन्या बहु सुख काजि । भोग भली परि भोगवइ, सहु सामग्री साजि ॥ ४ ॥ तिरजंच ते पणि सीखव्या, सीखइ सहु विवहार । कहिं माणस तु किसुं, वलि जिहां विवेक विचार ||५|| भोग करम विण भोगव्या, कहउ कुण छूटइ कोइ । नंदिषेण निरख्यउ तुम्हे, आद्रकुमार ए जोइ ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] करम सुं जोरो को नहीं, जीव करम वसि जाणि । जीव बात जाणइ घणी, पणि करम करे ते प्रमाण || ७ || चोर तण कंचण प्रमुख, नयणे रथी निहाल | पोतनपुर माहे प्रगट, बेचइ हाट विचाल ।। ८ ।। धणी ते धन ओलख्यउ, काउ जइ नइ कोटवाल । बांध्य पाछे बांधियां, ते रथी नइ वलकलचीरी आवियर, उलख्यउ ए मुहत देई मुकावियङ, चितवी उपगार ततकाल ॥ ६ ॥ मुझ मित्त । चित्त ॥ १० ॥ [ समयसुन्दर रासत्रय [ सर्व गा० १६४ ] ढाल ( ८ ) - नगर सुदरण अति भलउ-ए चाल, सोमचंद एहवइ समइ, आश्रम रह्यउ एम । विरह विलाप करइ घणा, पुत्र ऊपरि प्रेम ॥ १ ॥ हाहा हुं हिव किम कम, सुत नी नही सार | गढा नइ मुकी गय, कहउ कुंण आधार ||२|| हा० | आंकणी । किन्नरी के विद्याधरी, नागरी के नारि । Jain Educationa International अथवा अपह ्यउ अपछरा, देखी दीदार ॥ ३ ॥ हा० भमतउ के भूल पड्यउ, महा अटवी मांहि । निरति तर काइ पडइ नही, कहउ जोऊं क्यांहि ॥ ४ ॥ हा० वनफल आणतउ वालहा, वन नी वलि व्रीहि । पग तूं माहरा चांपत, रूड़ा राति नइ दीहि ॥ ५ ॥ हा० साधरो सखर वछावत, पाणि पातउ आणि । बाप नइ बइठउ राखत, वारू बोलतउ वाणि ॥ ६ ॥ हा० For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्कलची चौपई ] राति दिवस रोता थकां भूली गई भूख । विरतांत | आंखे रिषि आंधउ थयो, दोहिलउ पुत्र दूख ॥ ७ ॥ हा० रिषिनइ इम रहतां थकां वेश्या सांभल्यउ सघले तापसे, ते जिम सोमचंद्र सुख पामियऊ, पोतनपुर पुत्र | थयउ विरतंत ॥ ८ ॥ हा भाई घरि सुख भोगवइ, सुत वात ससूत्र ॥ ६ ॥ हा० सहु तापस सोमचंद नइ, वन फल यइ विसेषि । प्रति दिन प्रति चरजा करइ, दुखियां नइ देखि ||१०|| हा० आठमी ढाल एहवी, पड्यउ पुत्र नउ दुक्ख । कहइ समयसुंदर भ्रम करउ, सुतनउ हुयइ सुक्ख ||११|| हा० दूहा वरस बारइ इम वहि गया, आयउ भोग नउ अंत । वलकलचीरी वास घरि निशि सूतउ निश्चिंत ॥ १ ॥ आधी रात गई इसइ, चतुर चीतारी वात । अधम इहां हुं आवीयउ, तिहां मई मुक्यउ तात || २ || जात मात्र जननी मुंइ, मुई वली वा माइ । मुझ नइ बाप मोटर कियड, पिता घणउ दुख पाइ || ३ || कुण वनव्रीहि कुंण फल, कुण पाणी कुण पत्र । हा हा कुण आणतो हुरयइ, तात भणी कहउ तत्र ॥ ४ ॥ हुं अधम आव्यउ इहां, तात रहाउ मुझ तेथि । कहउ केही परि कीजीयइ, अधरम मइ कीयउ एथि ॥ ५ ॥ Jain Educationa International [ ४७ For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसुन्दर रासत्रय पिता उछेरइ पुत्र नइ, जीवथी अधिकउ जाणि । पुत्र पछइ बूढापणइ, वेठि करइ निरवाणि ॥ ६ ॥ पणि हुं मोटउ पापीयउ, जनक नइ न हुअउ नेह । परलोक पामिसि तु तिहां, अफल कीयउ भव एह ॥ ७॥ किम ही हिव सेवा करू, मुझ तउ जनम प्रमाण । वलकलचीरी विरमतउ, चितवइ चतुर सुजाण ॥ ८ ॥ [सर्वगाथा १८३ ] ढाल (९) राग-बंगालउ, इम सुणो दूत वचन्न कोपियउ राजा मन्न (ए मृगावतीनी दसमी ढाल) वलकलचीरी इम वेगि, आवियउ चित उदवेग । वीनती सुणि मुझ वीर, हु हुवउ अति दिलगीर ॥ १ ॥ मुझ मन ऊमाह्यउ तेथि, श्री तात आश्रम जेथि। भणइ प्रसनचंद हे भाइ, सगपण सरीखं थाइ ॥ २ ॥ उछक घणु हु आप, भेटुं भली परि बाप । बांधव मिली करी बेउ, परिवार पूरउ लेउ ॥ ३॥ आश्रमइ आव्या जाम, उतख्या अश्व थी ताम । वलकलचीरी कहइ बात, सुणि प्रसनचंद्र सुजात ॥ ४ ॥ आश्रम दीठं अभिराम, ऊतस्या अश्व थी ताम । सर देखि साथी मेलि, करतउ हु हंस जु केलि ॥ ५ ।। ए देखि तरु अति चंग, रमतउ ऊपरि चडि रंग। फूटड़ा फल नइ फूल, एहना आणि अमूलि ॥ ६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्कलचीरी चौपई] [४६ भाई ए भइ सि न देखि, वलकलचीरी नइ हुवेषि । दोहे नइ आणतउ दूध, पीता पिता अम्हे सूध ।। ७ ।। मिरगला ए रमणीक, नित चरइ निपटि निजीक । रमतउ हु इण सुं रंगि, बाल तणी परि बहु भंगि ॥ ८ ॥ भाई भणी बहु भांति, ओलखावतउ एकांति । पहुता बे बाप नइ पासि, भाई भलइ उलासि ॥६॥ प्रणमइ तुम्हारा पाय, अंगज प्रसनचंद आय । भणइ एम लहुड़उ भाइ, सहु तात नइ समझाइ ॥१०॥ सोमचंद साम्हउ जोइ, हीया मांहि हरषित होइ । वांसइ दीधउ वलि हाथ, संतोषीयउ बहु साथ ।।११।। . पभणइ प्रसनचंद राय, वलकलचीरी कहवाय । ते नमइ तात ना पाय, साम्हउ जोयउ सुख थाय ।।१२।। वलकलचीरी मिल्यउ वेगि, अलगउ टल्यउ उदेग। चुंबियउ माथउ चांपि, थिर पूठि हाथ सु थापि ।।१३।। . बेटा बिहु नइ संगि, रिषि पामीयउ मन रंगि । आंसू हरखना आंखि, झरतां गई सहु झांखि ॥१४॥ अंध पडल आंखि ना दूर, परा गया आणंद पूर । पेखिया पुत्र रतन्न, महा उलस्या तन मन्न ॥१५॥ सुख पूछीउ सोमचंद, पुत्र कहइ परमाणंद । तात जी तुम्ह पसाय, आणंद अंगि न माय ॥१६॥ . मई भणी नवमी ढाल, जनक नउ गयउ जंजाल । भली 'समयसुन्दर' भाख, 'सूत्र रिषिमंडल' द्यइ साख ॥१७॥ [सर्व गाथा २००] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] [ समयसुन्दर रासत्रय दूहा १८ बलकलचीरी वहि गयउ, उटलइ बइठउ आवि । तापस ना उपग्रहण तिहां, पेख्या तिण प्रस्तावि ||१|| पात्र केसरिया पुंजिकरी, आणी अधिक उच्छाहि । पातरा हुं पड़िलेहतो, पड्यउ इहापोह मांहि ||२|| जातीसमरण जाणीयउ, पूरबभव परबंध | सुर नर ना भव सांभस्या, साधु हुंतउ ते संबंध ||३|| भावना मन मांहि भावतो, वेगि चड्यउ वयराग । ध्यान सकल सूधउ धर्थउ, तुरत कीयउ सहु त्याग ||४|| लोकालोक प्रकाशत, निरमल केवल न्यान । लहु वलकलचीरी थयउ, निश्चल जाणि निधान ||५|| दीघउ सासणदेवता, वेगड साधुन वेस । प्रत्येकबुद्ध थयउ प्रगट, दयइ भ्रम नउ उपदेस || ६ || पिता बन्धु प्रतिबोध कर, पिता मुकि अम्ह पासि । विचर्यउ आप अनेथि वलि, करतउ करम नउ नासि ||७|| प्रसनचन्द पुहतउ घरे, परि मनि परम वयराग । किण वेलायइ हुं करू, राज रमणि रउ त्याग ||८|| अन्य दिवस वलि अवसरइ, पोतनपुर उद्यान । श्रेणिक ! अम्हे समोसऱ्या, बदइ एम ब्रधमांन ॥ ॥ प्रसनचंद पृथिवीपती, वलि वांदवा निमित्त । आव्यउ घणुं उतावलउ, चोखइ निरमल चित्त ||१०|| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल्कलचीरी चौपई] दीधी त्रिण्ह प्रदक्षणा, प्रणमि अम्हारा पाय । श्रवणे देशना सांभली, आणंद अंगि न माय ॥११॥ कर जोड़ी राजा कहइ, ए संसार असार । तुम्ह पासे लेइसि तुरत, सामी संजम भार ।।१२।। पुत्र नइ पाटइ थापियउ, बेटउ ते अति बाल । अम्ह पासे व्रत आदरी, तप मांड्यउ ततकाल ।।१३।। श्रेणिक आगइ जिण समइ, वात कहइ श्रीवीर । वागी दुदुभि तेहवइ, गयणंगणि गंभीर ॥१४॥ दीठा आवता देवता, पवन नइ आसन्न । वांदी नइ वलि वीरनइ, श्रेणिक करइ प्रसन्न ॥१५॥ देव तणी ए दुदुभी, वागी किहां ऋधमान । प्रसनचंद रिषि पामीयउ, कहइ प्रभु केवलज्ञान ॥१६॥ अचरिज श्रेणिक ऊपनउ, ऐ ऐ अध्यवसाय । खिण नरक खिण मुगति द्यइ, करणी किसू पुसाय ॥१७॥ प्रसनचंद मुगति गयउ, वलि श्रीवलकलचीरि। वार वार करू वंदना, तुरत लहुं भवतीरि ॥१८॥ [सर्व गाथा २१८ ] ढाल (२०) राग-धन्यासी, तीर्थंकर रे चउवामइ मइ संस्तव्या रे श्रीवलकल रे चीरी साधु वांदियइ रे।। हारे गुण गावतां अभिराम, अति आणंदियइ रे ॥१॥ श्री० तापस ना उपग्रहण तिहां, पडिलेहता, हारे निरमल केवल न्यान। अति भलुं ऊपनं, शिवरमणी रे, संगम नुं सुख संपर्नु रे ॥२॥ श्री० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ [ समयसुन्दर रासत्रया हुँ मांगं रे मुगतितणी पदवीहिवइ रे, हांरे श्रीवलकलचीरी पासि । भगति वचन भणु रे, मांगइ सहु रे, मसकति नुं फल आपणु रे ।३। दूसमकालइ संजम पालतां दोहिलउ रे, हांरे किम तरियइ संसार | भेट भलउ लह्यउ रे, गुणगातां रे, साधतणा मन गहगाउ रे || ४ || जेसलमेर रे, जिनप्रासाद घणा इहां रे, हांरे सोम वसु सिणगार । ( सोल इक्यासी) वरस वखाणीइ रे, खरतर गच्छ रे विरुद खरउ जगि जाणियइ रे || ५ || श्री० जिनचंद्रसूरि रे, जुगप्रधान जगि परगड़ा रे, हांरे तासु प्रथम शिष्य ह । सकलचंद सुखकरु रे, समयसुंदर रे तास, सीस, सोभाधरू रे । ६ रीहड़ कुल रे, जिहां जिनचंदसूरि ऊपनारे, हांरे तिण कुलि जसु अवतार । मुलताण मई वसई रे, साह क्रमचंद रे, जेसलमेरी शुभ जसइ रे || पद सगवट रे वलकलचीरी चउपइ रे, हांरे क्रमचंद आग्रह कीध । आणंद अति घणइ रे, सुख पामइ, समयसुन्दर कहइ जे सुणइ रे ||८|| श्री० [ सर्व गाथा २२६ ] ॥ इति श्री वलकलचीरी री चउपई ॥ १ - गुलाब कुमारी लाइब्रेरी स्थित स्वहस्तलिखित प्रतिसे २ संवत् १७३७ वर्षे ··· सुदि १२ तिथौ । पं० श्री गुणविमल जी गणि शिष्य पं० कनकनिधान गणि शिष्य पं० श्री खीमसी पं० देवराज पठनार्थम् ॥ श्री नापासरे मध्ये लिखतं ॥ श्रीरस्तु ॥ शुभं भवतु ॥ [ अभय जैन ग्रन्थालय प्रति नं० ४३३५ ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समय सुन्दरोपाध्याय कृत चम्पक सेठ चौपाई दूहा प्रतक्ष | समक्ष ॥ १ ॥ जालोर मांहे जागतौ, पारसनाथ प्रहऊठी नै प्रणमतां, सानिध करे गढ ऊपर गरुड़ निलौ, सोवनगिरि सिणगार । महावीर प्रणमं मुदा, दउलति नौ दातार ॥ २ ॥ मात पिता पण मन धरी, दीधौ जिण अवतार । नाम लेई नै गुरु नमु, दीक्षा न्यांन दातार ॥ ३ ॥ कर जोड़ी प्रणमी करी, कहिस घणुं श्रीकार । चंपक सेठिनी चौपई, अनुकंपा अधिकार ॥ ४ ॥ पांच दान परगट कह्या, सहु जाणै संसार । अभयदान दीजै इहां, सुपात्रदान इहाँ सार ॥ ५ ॥ चारित्र चोखो पालिये, दीजे साधु ने दान | ए बहु दान थकी अधिक, मुगति वधू मान ॥ ६ ॥ अनुकंपा किरिया इहां, दोहिलां दुखीयां दुरभक्ष मांहे दीजिये, मन घर आदर मान ॥ ७ ॥ उचितदान जे आपिये, पासी मन से प्रीति । यथायोग गायै जिके, गुरु नै देवनागीत ॥ ८ ॥ . दान | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] [ समयसुन्दर रासत्रय तूं कुलदीपक तूं करण, दिन प्रति दान दिवाइ । कीरति सुणि कांइ दीजिय, कीरतिदान कहाइ ॥ ६ ॥ अनुकंपादिक दान जे, त्रिहुँ तणौ फल एह । संसार ना सुख पामी, लहिये लाछि अछेह ||१०|| ढाल १ - पोपट चाल्यौ रे परणवा, ए देशी चिहुँ दिसि चावी चंपापुरी, पूरव देश प्रसिद्ध । बड़ा बड़ा वसे विवहारिआ, सगला रिद्धि समृद्ध ॥१॥ चौरासी चौहटा जिहां, मनोहर नगर मकार । सगा मां बाप बिना सहू, सखरा लाभ श्रीकार ||२|| चि० सुरहीयां ना हाट सामठा, चोवा मांड्या चंपेल । कपूर कस्तूरी ना हाट कुंपला, मह महता मोगरेल || ३ || चि० गांधी मांड्या रे गोफुला, तवखीर तज्ज तमाल । कोथली माल || ४ || चि० हाटां विचाल । सोपारी फाल ||५|| चि० ओषध वेषध अतिघणा, कूल्हड़ी तंबोली पणि तिहां घणा, बैठा बोलै बीड़ा ल्यौ पानना, सखरी सखर कंदोई कीया सुखड़ा, दीठां पणि गलै दाढ, खाये लाडू नै खाजला, दांते दाढे दे वाढ ||६|| चि० सोनार घाट घड़े सदा, कुंडल बोडी कणदोर । Watch समय नै वाला, पणि ते चौहटा ना चौर ||७|| चि० मणिहार मांड्या रे मुंगीया, प्रोया मोती प्रवाल । कूंकू सिंदुर कुंपला, भलो दीसै तिण भाल ॥८॥ चि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] [५५ दरिआई मांडी दोसीए, बुलबुल चश्मा बहुमूल । ऊंचा खासा अधोतरी, पांभडी ने पटकूल ॥६॥ चि० नाणावटि निरखे धणा, नाणा नाना प्रकार। रालसेरा नईया नै रूपीया, छकड़ पीरोजी सार ॥१०॥ चि० जुड़ि करि बैठा रे जवहरी, कड़ मांहि कोथली बांधि । मणि माणक नै मोती तणा. साटौ मेली ल्यै सांध ॥११॥ चि० फाड़िए मांड्या रे फूटरा, गोहुँ चोखा नां गंज । मूग उड़द मउठ बाजरी, पगि पगि ज्वार ना पुज ॥१२॥ चि० घी ना गंज मांड्या घणा, कूड़ा भरि भरि कोड़ि । ओछो ये ते अभागीया, मुगध नै त्राकड़ि मोड़ि ॥१३॥ चि० गुल नै खांड ना गाडला, ऊतर आवी वखार । वेचे साटै रे वाणीया, वारू लाभ व्यापारि ॥१४॥ चि० मोची मांड्या रे मोजड़ा, जना अधमोजा जोड़ि। मुहगा पणि मोटीआर ल्य, मचकता चालै अंग मोड़ि ॥१॥चि० घांची मोची ना घर घणा, सूजी खाती सूआर । दांतारा पन्नीगरा, ताई छींपा तूनार ॥१६॥ चि० चौरासी इम चौहष्टा, मैं कह्या केईक नाम। जे जोईयै ते लाभैं जिहां, पिण दीधां थकां दाम ॥१७॥ चि० महल मन्दिर ऊंचा मालीया, वलि सातभूमी आवास । हीडोला खाट हींचती, ललनां लील विलास ॥१८॥ चि० व्यापारी व्यवहारीया, लील करै लख कोड़ि। बईयर पुत्रवंती बहू, खिण मात्र नहीं कोई खोड़ि ॥१६॥ चि० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६.] [समयसुन्दर रासत्रय पुण्य करी परिघल सहू, उत्तम चाल आचार। पालै प्रीति कीधा पछी, नगर तगां नरनारि ॥२०॥ चि० ताजौ तेथि त्रिपोलियौ, सखर घणुं हाट सेरि । गढ मढ देउल दीपता, फटरी वाड़ी चौ फेरि ।।२१।। चि० वेरा कूआ नै वावड़ी, नदीय तलाव नीवांण । परघल पाणी सहु को पीये, मीठो अमृत समाण ॥२२॥ चि० नगरी चंपा सारखी, नहीं का बीजी किण देस। 'समयसुदर' कहै सांभलो, वर्णवी मैं लवलेश ॥२३॥ चि० [सर्वगाथा ३३ ] राज कर तिहां राजीयौ, सामंतक सूरवीर । राजा राज प्रजा सुखी, सबल हटक ने हीर ।। १ ।। वृद्धदत्त विवहारीयौ, वसै तिहां धनवंत । सोनईया छिन्नूं कोड़ि छ, पणि खुड़दौ न खरचंति ॥२॥ सोनईया सगला सदा, आघा ओरडै घालि । आठ पहुर आडौ रहै, परनै राखै पालि ।। ३ ।। देहरासर जिम देवता, पूजीजे परभाति । वृद्धदत्त विवहारीयो, धन पूछे दिन राति ।। ४ ।। कौतिकदेवी कामिनी, पिण नहीं पुत्र संतान । पुत्री एक त्रिलुत्तमा, रूप रंभ समान ।। ५॥ साधदत्त नामै सधर, भेला रहै बे भाय । दान पुण्य देवा तणी, बात विगत नहीं काय ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई] वृद्धदत्त विवहारीयौ, लोभी लाभ निमित्त । कण घी नौ संग्रह कर, वली वधै किम वित्त ।। ७ ।। करसण खेत्र करै घणा, वाहै पोठी ऊंट । लेता देतां लोभीयौ, ल्यै सहुना धन लूटि । ८ ॥ आरंभ लागै अति घणा, ते करै विणज व्यापार। परलोक थी ते पापीयौ, कांपै नहींय किवार ।। ६ ।। कणी न करावै केहनै, आकरो ऊतर देइ । दरसण को देखै नहीं, निरणां नाम न लेइ ।। १० ।। एक मांगतां पाव ये१, देखौ कृपण दातार । किमाड़ २ भोगल ३ उत्तर तुरत ४, गलहत्थौ मलबा रि५।११। दस दृष्टांते दोहिलौ, मनुष्य तणौ अवतार । ... पापी पाप स्यु पिंड भरै, हा हा नांख्यौ हारि ।। १२ ।। ढाल (२) चरण करण धर मुनिवर, ए जाति । सेठ सोनईयां नै पासै सूअं, इक दिन आधी रातो जी। एक आवी ने कहै काइ देवता, सेठ सांभलि इक वातो जी ॥१॥ ए धन नौ भोगता एक ऊपनौ, त्रिहि राति कह्यौ तेमोजी। वृद्धदत्त ते चिंतातुर थयौ, ए कुण छै कहै एमो जी ॥ २ ॥ ए. मैं दुख देखी नै मेलीयो, मत को ल्यै मुझ मालो जी। अजी सीम देखौ हुँ अपुत्रीयौ, हा कुण होस्य हवालौ जी ।। ए० बहु परि खबरि करी नै बांधीय, पाणी पहिली पालो जी। आराधुकुलदेवी आपणी, केनही कहै ते टालो जी ॥ ४॥ ए० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] [समयसुन्दर रासत्रय एक दिन कुलदेवी आगलं, साथरौ घाली सूतो जी। अन्न पाणी लेइसि नहीं अन्यथा, दरसण ये अदभूतो जी एक सातमै दिन देवी परतिख थई, तैं आराधी केमो जी। कहि माता ए कवण वचन थयौ, कहै देवी ते तेमो जी ॥६॥ ए. कहि माता ते कुण किहां ऊपनौ, कुलदेवी कहै एमो जी। कांपिलपुर नौ त्रिविक्रम वाणीयौ, परिवार ऊपरि प्रेमो जी ॥७॥ पुष्पवती दासी छै तेहने, तेहनी कूखि उपन्नो जी। अदृश थई कुलदेवी इम कही, विलखौ थयो सेठ मन्नो जी ॥८॥ परभाते ऊठी कीयौ पारणौ, आवी बैठो एकांतो जी। साधदत्त भाई नै तेडीयौ, विगत कह्यौ विरतंतो जी ।। ६॥ ए० साधदत्त कहै भाई सांभलौ, म करौ मन विषवादो जी। कहो झूठौ किम बोले देवता, करम स्यु केहो वादो जी ।१०। एक वृद्धदत्त कहै विलखौ थकौ, सांभलि तू साधदत्तो जी। आपणा प्राण जातां पण आगमी, वेगि राखीजै वित्तो जी ॥११॥ भवितव्यता ऊपर बैसी रहै, परिहर पुरुषाकारो जी।। लछमी छोड़े तेहनै लाजती, जिम वृद्ध कंत कुमारो जी ।१२। ए० उद्यम धैर्य पराक्रम आगमी, बल साहस नै बुद्धो जी। ए छह देखी नै डरई देवता, संपजै कारिज सिद्धो जी ॥१३||एक साधदत्त कहै तुम्हे सांभलौ, सगला मिले सुरेसो जी। तौ पिण भवतव्यता भाजै नहीं, कूड़ा काय किलेसो जी।१४।ए० दैव उलंघी जे काम कीजीये, ते काम किमहि न थायो जी। बब्बीहो सर नौ पाणी पीय, पिण गलै नीसरि जायौ जी ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] [ ५६ वृद्धदत्त कहै उद्यम कीजीये, मानै नहीं साधदत्तो जी । समयसुन्दर कहै बिहुँ बांधव तणौ, झगड़ौ लागौ नित्तो जी | १६ | [ सर्व गाथा ६१ ढाल ( ३ ) राजा जौ मिले, एहनी, साधत्त है सुहौ भाय, कीजै इहां कोड़ि उपाय || १ || भावनां मिटै, एक घड़ी पिण ना घटे । भा० हुहारी बात ते सहु होइ, कूडौ दुख म करस्यौ कोइ ॥ २॥ भा० एक सांभलि तू इहां दृष्टांत, भाई मत थाजे भय भ्रांत | ३| भा० रतनस्थल छै एहवौ नाम, नगर एक थिर रिद्ध नो ठाम ||४||भा० रतनसेन राजा करै राज, भय कर सह वैरी गया भाज | ५|भा० रतनदत्त छै तेहनो पुत्र, कला बहुत्तर करि सुविचित्र ॥ ६ ॥ भा० राजकुमार अति रूपनिधान, जान प्रवीण थयो पुरुष युवान ||७|| कुमर सरीखी कुमरी अनूप, परणावु इक करीय सरूप |८| भा० चिहुँ दिसि मूक्या चतुर सुजाण, सोलह सोलह पुरुष प्रमाण || जनमपत्री दीधी तीयां साथि, कुमर रूप पट दीधौ हाथि ||१०|| चिहुँ दिशि फिरी आव्या तेह, गया सगला आप आपण गेह ॥ ११ इसी कहै कन्या न मिलै केथि, जोई अम्हे सगलै जेथि तेथि |१२| उत्तर दिसि पणि जे गया सोल, ते पाछा वल्या सगलै ढंढोल १३ गंगातट इक नगरी दीठ, चंद्रस्थल नामै परतीठ ॥ १४ ॥ भा० चंद्रसेन राजा नो नाम, चंद्रवती कन्या अभिराम ।। १५ ।। भा० चौसठ कला सुंदर रूप पात्र, ए आगे अपछर कुण मात्र ॥ १६ ॥ मा बाप नौ जेहवो हुतौ मन्न, ते तेहवा मिल्या रूडा रतन्न |१७| Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] [समयसुन्दर रासत्रय कुअरी कुमर मिली नाम राश, पट दीठां लह्यो रूप प्रकाश ॥१८॥ वारू दिन मेल्यो वीवाह, लीधौ लगन सोलां दिन मांहि ॥१६॥ वर वेगलो दिन थोड़ो विचाल, जीव पड्यौ सहुनो जंजाल ॥२०॥ मुंहतो कहै तूंमे मांडो पलाण, घडिया जोयण ऊंट बंधाण ॥२१॥ सात दिवस जातां ना तेथि, सात दिवस आववा ना एथि ।२२। सात दिवस पहुँता तिण ठांम, जिहां वर राजा छै अभिराम ।२३ म करौ ढील कहै भूपाल, पागड़ा पग दीधौ ततकाल ।२४। भा० तिण अवसर तिहां थयौ विरतंत, समयसंदर कहैते सुणोतंत ॥२५॥ [सर्वगाथा ८६ ] दूहा समुद्र मांहे छै सांभलौ, पर्वत एक प्रचंड । तेहनो नाम चित्रकूट छ, तेहवौ नहि निहुँ खंड ॥१॥ ते ऊपर लंकापुरी, थिर राक्षस नो ठाम । सखरो गढ सोना तणो, भला भुरज अभिराम ||२|| गढ मढ मंदिर मालीया, ऊंचा घणू आवास । रिद्धि समृद्धि भरी पुरी, स्वर्गपुरी संकास ।।३।। दीस दारियौ चिहुं दिस, तेहिज खाई तेथि । अगम अगोचर आवतां, जावंतां पणि जेथि ।। ४ ।। ढाल (४)-मारग में आंबौ मिल्यौ, ए देशी, राज करै तिहां राजीयौ, राणौ रावण दूठौ रे । इन्द्रजित मेघनाद एहवा, पुत्र पूरै जसु पूठौ रे ॥१।। रा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई] [६१ ऊंघ छमासी एहनी, कुभकरण कहिवायो रे। विभीषण थी सहु को बीहै, बांधव सबल सहायो रे ।।२।। रा० अढार कोड़ि अक्षौहिणी, साथे चढे सनूर रे । त्रिण्ह खंड नो ते धणी, पृथिवी मांहि पडूर रे ॥३॥रा० बत्रीस सहस अंतेउरी, पामी पुण्य संयोगो रे, । अपछर सेती इन्द्र जिम, भोगवै सगला भोगो रे ॥४॥रा० जसु घर विह कोदव दल, जम राणौ वहै नीरो रे। पवन बुहारै आंगणे, सबल हटक नै हीरो रे ॥५॥ रा० नव ग्रह सेवा नित कर, खड़ातड़ा जसु खाटो रे। इन्द्र तिके डरता रहै, नांख्या रिपु निरधाटो रे ॥६॥ रा० अष्टापद ऊपरि इणै, वाई सखरी वीणो रे। नाची नार मंदोदरी, भगवंत सु लयलीणो रे॥॥ रा० कहुं वात हुँ केतली, रावण तणीय प्रसिद्धो रे। पदवी प्रतिवासुदेवनी, भोगवै भली समृद्धो रे ॥८॥ रा० राणौ रावण एकदा, बैठो सभा मझारो रे। चामर छत्र धरावती, कोइ न लोपै कारो रे ॥६॥ रा० मनमइं जाणइ मुझ समउ, को नही इण संसारो रे। अजर अमर सहि हुँ अछु, आणइ ए अहंकारो रे ॥१॥ रा० एहव एक निमत्तीयौ, आयौ सभा मझारो रे। ऊभो आसिरवाद दे, दरसणीक दीदारो रे ॥११॥रा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] [समयसुन्दर रासत्रय ताजौ हाथे टीपणौ, जन्नोई जपमालो रे। पासै योतिष पुस्तिका, 'समयसुन्दर कहि रसालो रे ॥१२॥ रा० [सर्व गाथा १०२] ढाल (५) १ नगर सुदरसण अति भलौ, २ ते मुझ मिच्छामि दुक्कडं। पूछयौ रावण पंडीया, कहि का आगली बात । कलियुग में को छ इस्यौ, मुझनै घालै घात ॥१॥ हुणहारी वात ते हुवै, निश्चै निस्संदेह। कोड़ि उपाय कीधां थकां, थायै निःफल तेह ॥२॥ हु० योतिष जोइ जोसी कहै, अयोध्या ठाम । दशरथ ना बेटा हुस्यै, राम लखमण नाम ॥३॥ हु० मोटा थया तुनै मारस्यै, मति तूं करै रीस। माहरौ वचन मिटै नहीं, ए विसवा वीस ॥४॥ हु० परतखि छै ए पारखे, ते तं करि जोय । तेह नहीं थायै तो तुनै, डर भय नहीं कोइ ॥५॥ हु० कुमरी कुमर तणो हुस्यै, सातमै दिन संग। ते विघटायै तो तुने, राति दिन रली रंग ॥६॥ हु० कहै रावण वात ए किसी, आंखि नै फुरकार। जे मनि चिंतवु ते करू, हुए तूं हुसीयार ॥७॥ हु० जोसी कहै जो झूठौ पडु, तो त्रोडु जिनोई। फाड़ी नांखु टीपणो, करू तिलक न कोई ॥८॥ हु० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६३ चम्पक सेठ चौपई ] सात दिवस राखौ सही, रोकै ए लेइ। विघटाड़ी वात धुं सजा, कूडौ न कहै कदेइ ।।९।। हु. राणौ रावण रंढि चढ्यौ, करै दाय उपाय । समयसुन्दर कहै वात ते, आघी पाछी न थाय ||१०|| हु० [सर्व गाथा ११२ ] ढाल (६) मधुकरनो रावण राक्षस मुकीया, कन्या आणौ उपाड़ सुगुणां । वरनौलै भमती थकी, जोती वरनी आड, सुगुणां ।।१।। हुणहारी वात ते हुवै, कां करो उद्यम फोक सु० । पणि रावण पछतावस्ये, हासौ करस्य लोक सु० ॥२।। हु० विद्यादेवी तेडि नै, कहै रावण सुणि एम सु०। तिमंगली नु रूप करे, राखे कुशले खेम सु० ॥३।। हु० . दांत तणी पेटी करी, घाली कुमरी मांहि सु० । भक्ष पाणी माहे भऱ्या, आंपणे हाथे साहि सु० ॥४॥ हु० तिमंगली मुहड़े मांहे, मंजूषा ते घालि सु० । गंगासागर संगमें, मुकी नै कह्यो चालि सु०॥॥ हु० सात दिवस पूरै थए, हुँ तेर्छ जदि तुझ सु० । तदि आवे तु उतावली, ए आज्ञा छै मुझ सु० ॥६।। हु. ते तिमंगली तिहां रही, ऊंचौ करनै मुख सु० । चन्द्रावती कन्या तिहां, डरती कर अति दुख सु०॥७॥ हु० तक्षक नाग तेडावीयौ, व्यंतर देव विशेष सु० । कहै रावण कर काम तूं, एकण मेषोनमेष सु० ॥८॥ हु. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] [समयसुन्दर रासन पागडै पग दीधो तिण, तेहनै जई तूं झूबि सु०। जतने पिण जीवस्यै नहीं, डंक्यौ जे महा डुबि सु०६ हु० । ते तिमही कर आवीयौ, तेड्यो ज्योतिषी तेह सु०। कहि रे ते हिव किम हुस्य, इहां हिव संगम एह सु० ॥१०॥gi बांभण बोल्यो बीहै नहीं, हुस्यै ते तिमहीज सु० । बोलै लोक कां बापड़ा, खोड़ी चाढ खीज सु० ॥११॥ हु० . साप झूब्यौ सहु हलफल्या, कीधा कोड़ि उपाय सु०। गारुड़ी नाग मंत्र गुण्या, पिण गुण कोई न थाय सु० ॥१२॥ हुन कुमर अचेत थई पड्यो, नीली थई तसु देह सु० । कीधे जतन किसु हुव, जीवै नहीं एह सु० ॥१३॥ हु० वैद्य वड़ो कहै एह नै, घालौ मंजूषा मांहि । सु० नदी मांहि नांखौ तुम्हे, छेहलौ छै प्रतिकार । सु० ॥१४॥ हु० गंगा में बहती गई, पैंसे समुद्र मझार । सु० तिण समै मत्स तिमंगली, कीधो एह विचार । सु० ॥१५॥ हु० ऊंची गावड़ इम रह्यां, देखु छु हुँ दुख । सु० दांत पेई दरिआ तटै, मूकी पामै सुख । सु० ॥१६।। हु० मंजूषा मूकी तटै, करै जल मांहि केलि । सु० नारि पेई थी नीसरी, देखी दरिया वेलि । सु०॥१९॥ हु० वहती पेई आवती, देखी कुमरी तेह । सु० पाणी माहे पैसी करी, आधी लीधी एह । सु० ॥१८॥ हु० पेई उघाड़ी पेखीयो, एक पुरुष प्रधान । सु० विष विकार वाध्यो घणो, पायो अमृत पान । सु०॥१६॥ हु० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] महुरा नी हुँती मुद्रड़ी, हाथ थकी ऊतार । सु० पाणी ओहली पाइयो, आंख बि छांटी अपार । सु ।।२०।। हु० विष उतर गयौ वेगलो, प्रगट्यौ मूलगौ रूप । सु० नयणे नयण मिली गया, पणि न लहै कोई सरूप । सु० ॥२१॥ बिहुँ नै सांसो ऊपनौ, ए कन्या तौ एह । सु० मुझ वीवाह मिल्यौ हुतौ, ए तौ वर पणि एह । सु० ॥२२।। हु०. लाज तजी पूछी लियौ, आप आपणो भेद । सु० . करम सुजोर कीजै किसौ, खिग नाणीजै खेद । सु० ॥२३॥ हु. धूड़ि तणी ढिगली करी, ते गंधर्व विवाह । सु० प्रेम सुपरण्या बे जणा, अंगे अधिक उछाह । सु० ॥२४॥ हु० सातमो दिवस हुतौ तिकौ, टलै न भावी टांक । सु० सरजी वात ते सारिखी, कुण राजा कुण रांक । सु० ॥२५॥ हु०दरिआ तटि दीठा घणा, मोती लाल प्रवाल । सु० लीधा नारी लोभणी, मेल्ह्या मंजूष विचाल । सु० ॥२६॥ हु०. बैठा पेई में बे जणा, छेहड़ा बेऊ बांध । सु० पेई पणि पाछी जड़ी, सहु पाटिया नै सांध । सु० ॥२७।। हु०मत्स आवी पेई ले गयौ, रह्यौ ते दरिया विचाल । सु० मुहड़ा मांहि पेई धरी, मत को लागे जंजाल । सु० ॥२८।। हु० सभा बैस सातम दिने, बांभण नै बोलाय । सु० - मत्स तिमंगली तेडीयौ, आय ऊभौ तिहां थाय । सु० ॥२६ ।। हुक अविसासी आप हाथ सु', पेइ आणी पास | सु० ऊखेली आणंद सु, न हुवै हुणहार नास । सु० ॥३०॥ हु० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] [समयसुन्दर रासय परण्यां पांत्या बे जणा, नीसस्या ते नर नार । सु० अचरिज लोक नै ऊपनो, कुण थयौ एह प्रकार । सु० ॥३१॥ हु. ठाम बिमणा थया ठाव का, बांभण लही स्याबास । सु० राणे रावण पूछीयौ, वर कन्या नै पास, । सु० ॥३२॥ हु. कुण भेद थयौ कहो तुम्हे, जिम थयौ तिण कह्यो तेम।सु० पिता पास पहुता कीया; ले बेउ कुशले खेम । सु० ॥३३॥ हु० बात कही वृद्धदत्त नै, साधुदत्त सहु एम । सु० समयसुंदर कहै इम कह्यां, जिम तिम ते कह्यो तेम ।सु०॥३४॥ हुआ [ सर्वगाथा १४६ वृद्धदत्त बोल्यो वली, भड़क्यो भूत भराड़। भाई तू भूलौ घणु, ए दृष्टान्त दिखाड़ि ॥१॥ काछड़ काठौ बांधि नै, उद्यम कीजै आप। दैव विधाता पिण डरै, काया छूट कांप ॥२॥ जे सिरज्यो ते थाईस्यै, बैस रहै बल छोड़ि। अधम तिके नर आलसू, खरी लगाडै खोड़ि ॥३॥ उद्यम करसण नीपजै, उद्यम पेट भराय। उद्यम घाट घड़ीजिये, उद्यम थी सहु थाय ॥४॥ साधदत्त जे तें कह्यौ, ते नहीं छै एकांत। उद्यम उपरि हुँ कहुं, ते सांभल दृष्टांत ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई] ढाल (७) केकेई राणी वर मांगै, एहनी पूरब दिसि मथुरापुरी, हरबल तिहा, रानो रे । सुबुद्धि नाम मुंहतौ तिहां, ते बहु बुद्धि निधानो रे ॥१॥ उद्यम कीजै एकलौ, पणि भेलीजै भागो रे। सहु उद्यम थी संपज, भवतव्यता जाइ भागो रे ।। २ ।। ३० अन्य दिवस एकै समै, समकालै सुविचित्तो रे । हरदत्त मतिसागर थया, राजा मन्त्री नै पुत्तो रे ॥३॥ उ० आधी राते व्यंतरी, अस्त्री रूप उदारो रे। निरखी नीसरती थकी, मुहते महाल मझारो रे॥ ४ ॥ ३० पाणि झालि नै पूछीयो, तु कुण आवी केमो रे। ते कहै हुँ विधातरा, आवि छ सुणि एमो रे॥५॥ उ० छट्ठी जाग्रण आज छै, अक्षर लिखवा आवी रे। बालक बिहुं नै में लिख्या, भाले अक्षर भावी रे ।। ६ । उ० आहे. एक जीवन, झालस्य राजकुमारो रे। मंत्रीपुत्र माथै करी, आणस्यै एकज भारो रे।। ७ ।। उ० उद्यमेन विना राजन् ! न फलन्ति मनोरथाः। कातरा एव जल्पन्ते, यद्भाव्यं तद्भविष्यति ॥१॥ उद्यमे नास्ति दारिद्र यं, जपतो नास्ति पातकं । मौनेन कलहो नास्ति, नास्ति जागरतो भयं ॥२॥ छछी राते जे लिख्या. मत्थइ देइ हस्थ । दैव लिखावइ विह लिखइ, कुण मेटिवा समत्थ ॥१॥ वार। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] [समयसुन्दर रासत्रय मुहतो कहिं मुगधा लिख्यौ, नहिं कुल ने योग्य एहो रे । विह कहै ते विघट नहीं, तेहनौ सिरज्यौ तेहो रे ।। ८॥ उ० बुद्धि प्रपंच करी बहु, तू ऊभी थकी देखो रे। वहिलौ हुं विघटाडिसु लिख्या ललाटे लेखो रे ॥ ६ ॥ उ० मुहता करै मांटीपणौ, ए वात कइयै न थायो रे। विघटाडै विहना लिख्या, कलियुग में नहीं कोयो रे॥१०॥ उ० वाद विधाता इम कही, अदृश थई ततकालो रे। जोवा कुण हारै जीपै, समयसुदर छै विचालो रे ॥११॥ उ० [सर्वगाथा १६३ ] दूहा एक दिवस मथुरापुरी, आया कटक अजाण । हरिबल राजा जूझतां, तज्या आपणा प्राण ॥ १॥ नगर लोक नासी गया, सहर लूटाणो सर्व । अरियण तिहाँ राजा थया, गरूआ आणी गर्व ॥२॥ मतिसागर मुंहता. तणौ, हरदत्त भूप नौ पुत्र । ए पिण बे नासी गया, विगड्यौ राज नौ सूत्र ॥३॥ परदेसे गया 'पाधरा, करता भिक्षा-वृत्ति । पापी पेट भरंतड़ां, दोहिलौ छै विण वित्त ॥४॥ लखमीपुर गामे' ‘गया, जुदा पड्या जुवान । हरदत्त व्याध तणै घरे, काम करै तजि मान ॥५॥ अन्य दिवस कर झूफड़ौ, पास रह्यौ हरदत्त । आहे. इक जीव नै, आणे आप निमित्त ॥ ६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] मतिसागर तिण गाम में, ईंधण आणी करै आजीविका, न टलै मुहतौ पिण भमतौ थको, गयौ लखमीपुर गाम । ईंधण भारी आणतो, दीठौ सुत तिण ठाम ॥ ८ ॥ पिता कह्यौ ए पुत्र स्यु, सगलो कह्यौ सरूप । भारउ आण उदर भरू, सारौ दिन सहुं धूप ॥ ६ ॥ बीजौ भारो बाप हुँ, पामू नहीं किण मेलि । इम हुं करु आजीविका, दिन दस नाखुं ठेलि ॥१०॥ राजपुत्र पणि आपणी, कहै आहेड़ा बात । बीजो जीव जुड़े नहीं, घणी मांडुं जौ घात ||११|| विमासीयौ, सही विध साची थाय । हुँ पिण उद्यम ऊपरें, करु हिव कोई उपाय ||१२|| [ ६६ भारी एक । विहनी टेक ॥ ७ ढाल -- शील कहै जगि हुं वड़ौ, एहनी सुत सांभलि सीख माहरी, पहुँचे तु वन मांहे रे । चंदन नौ भारौ भरे, बीजाने हाथ म साहे रे ॥ १ ॥ काजो रे । राजो रे ॥ २ ॥ ३० Jain Educationa International उद्यम पेखौ एहवौ, उद्यम थी सी उद्यम थी सुख संपजै, उद्यम थी लहियै सांझ सीम वनमें भमे, चन्दन न मिले तो तुझनै रे ! तौ भूख्यौ तिरस्यौ रहे, मुओ तो हत्या मुक्नै रे ||३|| ३० राजानो बेटी मिल्यो, तेहने पणि पूछ्यौ तिमही रे । तिण कौ आहे भमु, पणि एक जीव मिलै किमही रे ||४|| For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ समयसुन्दर रासत्रय हाथी बिना, तं जीव म झाले कोई रे । न मिलै तौ ठावौ आवे, विह मान भंग जिम होई रे ॥५॥ चंदन भारौ नै हाथी बेऊ, जो हुं ए थोक न पूरु रे । り ७० ] तौ इण थी झूठी पडु, पछे बैठी मन सु रु रे ॥६॥ उ० बिहु नै बेऊ थोक पूर्व, विधातरा चंदन हाथी रे । मुंहतौ ल्यै बिहुं पास थी, वेची नै मेलै आथी रे ||७|| उ० • हाथी हजार भेला कीया, चढ़ननी द्रव्य थई कोडी रे । महर्द्धिकीया, पछै मसकंति दीधी छोड़ी रे ॥८॥ हयगय रथ पायक सजी, कटकी करि मथुरा आया रे । वैरी मार दूर कीया, मूलगी बाप नौ राज पाया रे ॥ ॥ वृद्धदत्त विवहारीयो, कहै साधदत्त सुण भाई रे । मुहताना उद्यम थकी, कुयरे ठकुराई पाई रे ||१०|| उ० तिम हुं देखि उद्यम करी, बापांपल सहुकर नाखु रे । माहरौ धन कोई भोगवे, ए बात हुं किमहि न साखु रे | ११ | वृद्धदत्त ते लोभीयौ, उपाय अनेक ते करस्यै रे । समय सुन्दर कहै पणितिहां, फोकट पापै पिंड भरिस्यै रे |१२| [ सर्व गाथा १८७ ] दू T गाडा ऊंठने पोठीया, भार भरी भरपूर । वृद्धदत्त व्यवहारीयौ, चाल्यो प्रबल पडूर ॥ १ ॥ नगरी कंपिल्ला जाइन, मोटी मांडी भखार | क्रय विक्रय बैठो करें, साह बst सिरदार ॥ २ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७१ चम्पक सेठ चौपई ] व्यापारी जाणी वडौ, लेवा आवै लोक। जे जोइ जे तिहां मिलं, पणि ल्यै ते दाम रोक ॥ ३ ॥ त्रिविक्रम पणि तिहां रहै, ते दासी पणि तेथि। पूछि गाछि निश्चय कीयौ, पेट भरथ पणि एथ ॥ ४॥ मांडि प्रीति ते साह सुं, मीठे वचन बुलाइ । आबिज्यो हाट छै आपणौ, ल्यौ जे आवै दाइ॥ ५ ॥ जे जोईयै ते ल्यौ तुम्हे, देज्यो दाम प्रस्ताव । नहीं द्यौ तौ पण नहीं ज छ, प्रीति नौ एह प्रभाव ॥६॥ ____ ढाल (९) तुगियागिरि शिखर सोहै, एहनो वृद्धदत्त नै घरे तेड़ी, भोजन भगति करेइ रे । जां रहौ ताइ सीम इहां तुम्हे, जीमज्यो प्रीति धरेइ रे ॥१॥ मारवा नौ उपाय मांड्यौ, पणि मर नहीं कोइ रे । ओल्यु करतां थाइ पैल्यु, करम जौ पाधरौ होइ रे ॥२॥ मा० आभ्रण नै बहु वस्त्र आप्या, सुखड़ी मेवा सार रे । सेठ बहू सुत दास दासी, वसि कीयौ परिवार रे ॥३॥ मा०. वस्तु वाना सर्व वेची, हूओ चालणहार रे। त्रिविक्रम सुं तेड़ी कीयौ, जातां तणो जुहार रे ॥४॥ मा० त्रिविक्रम कहै च्यार मास नी, प्रीति लागी चीत्ति रे। चालतां तुम्हने वचन केहौ, कहुँ हुँ कहो मीत रे ॥२॥ मा०. म जावौ इम तौ अमंगल, जावौ तौ नसनेह रे । रही इम पणि हुवे प्रभुता, वचन नहीं क्यु एह रे ।।६।। मा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] [समयसुन्दर रासत्रय इम विचारी कह्यौ एहवौ, मित्र कहुं छु तुझ रे। मन थकी वीसारज्यो मां, वहिला मिलल्यो मुझ रे ॥७॥ मा० त्रिविक्रम कहै सुणो वीनति, तुम्हे कीधो प्रयाण रे। अम्हारु ते छै तुम्हारु, प्रीति नो एह बंधाण रे ॥८॥ मा० ऊंट बलद नै वहिल घोड़ा, राछ प्रीछ प्रधान रे। जो जोइये ते साथ ल्यो तुम्हें, सेवक पणि सावधान रे ॥६॥ मा० वृद्धदत्त कहै अम्हारु, किण सु नहीं है काम रे। जे जोइयै ते सर्व थोक छ, वलि तुम्हारौ नाम रे ॥१०॥ मा० बोल मानण भणी कहां छां, मारग में न सेरई रे। पुष्पश्री दासीय साथि द्यौ, भोजन भगत करेइ रे ।।११।। मा० मारग मांहे सोहिला थावां, पहुंतां पछी ततकाल रे। 'पाछी पहुती अम्हे करस्यां, संग्रहज्यो संभाल रे ।। १२ । मा० खिण इक विरहों खमें नहीं, ए पाखै न सरेइ रे । तुम्हे कह्यौ मूकी तो जोइजै, वहिली वलण करेइ रे ।।१३।। मा० वृद्धदत्तै विदा कीधी, चाल्यौ सहु साथ लेइ रे। दासी वहिल विचै बैसारी, दिलासा घणी देइ रे ॥ १४ ।। मा० 'पंथ मांहे पाप धरतो, पहुंतो उज्जेण पाप्त रे। दाण भंजन भणी नीसरयौ, वेगलो वनवास रे ॥ १५॥ मा० साथ सगलौ कीयौ आगे, आप रह्यौ सहु पूठि रे। वहिल पासै टालि वेगली, नीची नांखि अपूठि रे ।। १६ ॥ मा० लाते लाते मार महुकम, अधम कीध अचेत रे। मई जाण में मूंक दीधी, हरषित हुओ तिण हेति रे ॥१७॥ मा० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] आप साथि नै मिली एहवी, कही वात विमास रे।। शरीर चिंता हेति उतरी, दासी तौ गई नास रे ॥ १८ ॥ मा० मैं तो सगलो ठाम जोई, पण न लाधी एथि रे। इहां थी चालौ ऊतावला है, दाणी आवस्य एथ रे ।।१६।। मा० माणस मंकी खबर दीधी, त्रिविक्रम छै तेथ रे। पुष्पश्री दासी गई नासी, तिहां जोज्यो नही पंथ रे ।२०। मा० कुशले खेमै आपणे घरे, आव्यो हरषित होइ रे। छिन्नु कोड़ि सोनईया अछ, मो विण भोगता न कोइ रे ।।२१।। लखमी पामी न लोभ कीजै, दीधौ आवै साथि रे । समयसुन्दर कहै नहींतर, माखी ज्यु घस हाथ रे॥२२॥ मा० | सर्वगाथा २१५ ] दासी तो मुई मारतां, सूणि पूठलौ विरतंत । मरतां पेट थी नीसरो. बालक बहु रूपवंत ॥१॥ इम जायौ रहै जीवतो, जो दया पाली होइ । जसु रक्खे गोसांइयां, मार न सक्क कोइ ॥ २॥ ढाल (१०) राय गंजण समा २ स्वामि स्वयंप्रभु सांभलउ इण अवसर इक डोकरी, वैगी किणही गाम रे । चतुरनर उज्जेणी भणी आवती, ते आवी तिण ठाम रे ॥ चतुरनर ॥१॥ पुण्य घणौ हुवै जेहन, ते किम मास्यौ जाइ रे । च० ॥पु०॥ ते सरूप दीठौ तिणे, अटकल कीधी तत्र रे । च० किणही चंडाल पापीय, ए कीधु अक्षत्र रे ॥ च० २पु० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समयसुन्दर रासत्रय चोर नहीं रह्या गरहणा, वैरी मारी एह रे । च० - बालक टलवलतौ पड्यौ, दीठो डोकरी तेह रे ॥च० ३पु०॥ अधिक दया मन ऊपनी, बालक लीधो हाथ रे । च० पुत्रतणी परि पालस्यु', सुख दुख एहने साथ रे ।।च०४पु०॥ गांठे बांध्या गरहणा, आवी नगर उजेण रे । च० राजा पास जई कही, सगली वात क्रमेण रे॥ च०५ पु० ॥ राजा पणि द्यं रंजीयौ, डोकरी नै स्याबास रे ।च० लालच न करी गरहणे, बाल आण्यो मो पास रे ॥च०६पु०॥ राजा रलीयात थयो, कहै वृद्धा सुण वात रे । च० रूड़ी परि तू राखज्ये, बालक नै दिन रात रे॥च० ७ पु०॥ राजा दासी नैं कीयौ, अगन तणौ संसकार रे । च० डोकरी बालक ले गई, आपणे घरे अपार रे ॥च० ८ पु० ॥ मुहछब मांड्यौ डोकरी, जिम जायै थकै पुत्र रे। च० ए मोटौ थयौ राखस्य, माहरा घर नु सूत्र रे ।।च०६ पु॥ राजा कह्यौ सुण डोकरी, खबर करे मुझ आव रे। लेजे जे तुझ जोईय, धू नी राखै धाव रे ॥ च० १० पु० ॥ चंपक तरु हेढ़ चढ्यौ, चंपक दीधो नाम रे। चंद जेम चढती कला, वाथै गुण अभिराम रे ॥ च० ११ ॥ आठ वरस वौल्यां पछै, मोटो कर मंडाण रे । च० भणवा {क्यो दिन भलै, चंपक चतुर सुजाण रे ॥च० १२ पु०॥ । थोडां दिन मांहे थयौ, बहुत्तर कला नो जाण रे । च० निपुण घणा लेसालीया, पणि न को एह समान रे ॥च० १३षु०।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७५ चम्पक सेठ चौपई ] चतुराई चंपक तणी, अधिकी हीया उकत्ति रे । च० हीयाली गूढा दूहा, जाणे अरथ जुगत्ति रे ॥ च० १४ पु०॥ चंपक पूछ्यौ बोज कौ, जांण्यौ नहींय ज बाप रे । च० । छोह धरी छोकर कहै, बोले किसुनिबाप रे ॥च० १५ पु०|| ते बोल लागै तीर ज्यु, पूछ्यौ कुण मुझ तात रे । च० मूल थकी मांडी कही, वृद्धा सगली बात रे ॥च० १६ पु०॥ मन माहे जाणी रह्यौ, ऐ ऐ करमनी गति रे । च० ऐ ऐ करम विटंबना, ऐ ऐ पुण्य संपत्ति रे । च० १७ पु० ।। मति संभाली आपणी, मांड्या विणज व्यापार रे । च० घर वाधी लखमी घणी, बल वाध्यौ दरबार रे । च० ॥१८॥ पु० पुण्याई जाग्यौ प्रगट, चंपक दीठौ चंग रे । च० नगरसेठ थिर थापीयौ, राजा मन धर रंग रे। च० ॥१६॥ पु० च्यार कोड़ि चंपक तणे, सोनईया संपत्ति रे । च० वाधी व्यापारे घरे, अधिकी मति उकत्ति रे । च० ॥२०॥ पु० वारू नगर ना वाणिया, मिल्या चंपक नै मित्र रे । च० समयसुन्दर कहै तेह सुं, प्रीतिनी वात विचित्र रे । च० ॥२१।। पु० [सर्व गाथा २३८] ढाल (११) बोलड़ो देज्यो संबक पुत्र, एहनी चंपक सेठ चाल्या जान, मित्र संघात जी। सगा सणीजा लीधा साथ, आपणी न्यात जी ॥१॥ चंपक सरीखौ साथ मैं को नही रे। आं० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [समयसुन्दर रासत्रय सखर केसरीया, चंपक सेठ, वागा वणाया जी। चोवा चंपेल नै मोगरेल, डील लगाया जी ॥२।। चं० घम-घम करती घोड़ा वहिल, ऊपर बैठा जी। मित्र संघाते माहोमांहि, बोलइ मीठा जी ॥३॥ चं० कन्या हुंती चंपा पास, एगै गामै जी। वीवाह वेला पहुंती जान, तेणे ठामै जी ॥४॥ चं० कन्या बाप अनै वृद्धदत्त, मित्र कहीजै जी। ते पिण तेड्यो आव्यौ तेथि, वरग वहीजै जी ॥५॥ चं० रली रंग सुं थयौ वीवाह, परण्या पांत्या जी। जानी मानी सहु संतोष, मन नी खांत्या जी ॥६।। चं० वली वीवाही राखी जान, भगत करेवा जी। जानी लोक सिगला लागा, फिरवा घिरवा जी ||७|| चं० वावड़ी बैठो चंपक सेठ, दांतण करतौ जी।। वृद्धदत्त ते दीठौ दृष्टि, लीला धरतो जी ||८|| चं० एतौ दीसै देवकुमार, गोष्ठी करीजै जी। वारू थायै जो पुत्री मुझ, एहने दीजै जी ।।६।। चं० पहिली पूछून्यात नै पांत, किहां ना वासी जी।। सरल सभावी चंपक सेठ, वात प्रकाशी जी ।।१०।। चं० वृद्धदत्त नै हीया माहि, साल्यो गाढो जी। हा ! मैं दासी मारी गर्भ, हुं थयौ ताढो जी ॥११।। चं० देवी कही ते साची वात, जिम हीज हुइस्यैजी। म्हारी लखमी नौ भोगवणहार, थातौ दीस्यैजी ॥१२॥ चं० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई [ ७७. केही चिन्ता वली उपाय, बीजौ करस्यांजी। जिम तिम करी हुँतौ एहनौ, जीवत हरस्यांजी ॥१३॥ चं० आगै पण मैं मारी माय, हत्या लागी जी। ए मारू तो थाऊं पूर्ण, पाप विभागी जी ॥१४॥ चं० कादम ऊपर कादम लेप लागौ बहुपर जी। मैलै पहरण मैलौ होइ, ओढण उपरि जी ॥१५॥ चं० मारण नो वल मांड्यौ उपाय, लोभ दिखाड़ीजी।। साह रहौ तुम्हे अम्ह पास, साथ नै छाडी जी ॥१६॥ चं०. आप करस्यां विणज व्यापार, द्रव्य उपासांजी। थोड़ा दिवसां मांहि आपे, महर्द्धिक थास्यांजी ॥१॥ चं० चंपानगरी मांहि मजीठ, लाभ सुंहगीजी। उज्जेणी मांहि बिमणे मोल, छै अति मुंहगीजी ॥१८॥ चं० चंपानगरी चंपकसेठ, एकला जावो जी। व्यापारी बीजानै मत्त, कानें सुणावो जी ॥१६॥ चं० सांभलस्यै जो सगला जाइ, मजीठ लेस्यजी। मंजीठ मुंहगी कर आपांन, आणे देस्यजी ॥२०॥ चं० साधदत्त छै भाई मुझ, चंपा मांहेजी। लेख लिखू छु तेहनै एम, अधिक उछाहै जी ॥२१॥ चं० : मंजीठ प्रमुख मुंहगी वस्तु, लेई देज्यो जी। अरधो अरध स्वाहा लाभ, विहची लेज्यो जी ॥२२॥ चं० एम कह्यौ पणि लिखीयु तेह, सहु सांभलज्योजी। कागल वांची नै ततकाल, मत खलभलज्योजी ॥२३॥ चं० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] [ समयसुन्दर रासत्रय भीडयौजी ||२७|| चं० पहुतौ जी । अलहतौजी ॥२८॥ चं० - अम्हारी मांडवी मांहि सहु माम पाड़ीजी । एह अम्हारौ परमशत्रु, लाज गमाड़ी जी ||२४|| चं० कागल यांची ने एहने मार, कूयै नांखेज्यो जी । दया मया लाल ने पाल को, मति सांकेज्यो जी ॥२५॥ चं० काम कीयां पछे माणस मूंक, देज्यो वधाई जी । भलौ करतौ साधदत्त, मूकज्यो भाई जी ॥२६॥ चं० एह समाचार कागल मांहि, लिखने बीड्योजी । लोभने बाह्य चंपक सेठ, हाथ में चंपक सेठ चाल्यो तुरत, चंपा वृद्धदत्त त गयो गेह, भेद तिण अवसर कौतिगदे आप, घर धणीयाणीजी । कहि कण गई, साधदत्त, गयौ उग्राहणी जी ॥ २६ ॥ चं० घर मांहे दीसे नही कोय, मांटी बइअर जी । त्रिलोत्तमा एकली आवास, नहि काई सहीयरजी ||३०|| चं० क्रीडा करती दीठी सेठ, फूल दड़ा सुं जी । चंपक गयौ चाली नै मांहि चित्त रूड़ा संजी ||३१|| चं० भवतव्यता वस लेख उखेलि, कुमरी वांच्योजी । मारण थी तौ तेहनौ मन्न, पाछौ खांच्यौ जी ||३२|| चं० तिलोत्तमा ते लेइ लेख, राख्यौ पासै जी । आगति स्वागत कीधी आप, एहवुं भासैजी ||३३|| चं० घोड़वहिलीया सामी साल, बांधी बैसोजी । करस्यां काम तुम्हारु सर्व, जे तुम्हे कहिसो जी ||३४|| चं० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] [७६ कुमरी विमास्यौ एहवौ काम, स्युं कर्टुंबापै जी। मँडै कामै हा हा एह, भस्यो पिंड पापै जी ॥३॥ चं० एतौ दीसै देवकुमार, रूपै रूड़ौजी। आंबा डाले बैठौ सोहै, जेहवो सूडौजी ॥३६॥ चं० भाग्य विशेष ए भरतार, माहरे थायै जी। सफल करू तौ यौवन रूप, लहरे जायजी ॥३७॥ चं० एम विमासी बाप नै अक्षरे, लिख्यौ लेख बीजोजी। लिखने दीधौ मां नै, सहु को पतीजै जी ॥३८॥ चं० त्रिलोत्तमा देज्यो चंपक नै, सांझिनी वेलाजी। विलम्ब म करजो एह लिगार, सहु कर भेला जी ॥३६ ।। चं० साधदत्त पणि आयौ सांझ, व्यालू कीधौ जी। कौतकदे देउर नै हाथ, कागल दीधौ जी ॥४०॥ चं० . साधदत्त पणि ऊचै साद, वाच्यौ कागल जी। सगा सणीजा भाई बंध, सहु को आगल जी ॥४१॥ चं० वेला थोड़ी तो पणि लोक, मेल्या माझाजी। पाणिग्रहण कराव्या बेगि, पूरा आझाजी ॥४२॥ चं० वृद्धदत्त नी जड़ी भखार, मोकली कीधी जी। याचक लोक ने लाखे ग्यान, लिखमी दीधी जी ॥४३।। चं० वृद्धदत्त ने घरे प्रभात, आवै, वधामणी जी। उच्छव महुच्छव गीत नै गान, गायै सुहामणा जी ॥४४॥ चं० इण अवसर हिवै वृद्धदत्त, वाटड़ी जोवै जी। को आव्यौ कहै मास्यौ तेह, तो भलं होवै जी ॥४शा चं० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] [समयसुन्दर रासत्रय वृद्धदत्व नै याचक जाइ, वात सुणावी जी। चंपक नै त्रिलोतमा नारि, काकै परणावी जी ॥४६॥ चं० वृद्धदत्त नै हीया मांहि, दाहज ऊठ्यौ जी। विपरीत वात कही देव हा ! मुझ नै मुठ्यौ जी ॥४७॥ चं० अंगति नै आकार गोपि, ते घर आयौ जी। जांनी मानी जीमता देखि, मन दुख पायौ जी ।।४८।। चं० वृद्धदत्त कहे आणंद, ऊपनौ अम्हनै जी। तुरतसु काम कीधौ एह, साबास तुम्ह ने जी ॥४६।। चं० चंपक सेठ नो मोटो भाग, कन्या परणी जी। समयसुदर कहै ते पूरव, पुण्य नी करणी जी ॥५०॥ चं० [ सर्वगाथा २८८ ] .. दूहा वीवाह गाह वौल्यां पछी, वृद्धदत्त कहै आम । रे भाई तें स्यु कीयौ, ए अविचारत काम ।।१।। साधदत्त कहै स्यु करू, तुम्हें मूक्यो मुझ लेख । दोस म. देजे मुझ नै, ए लेख भाई देख ।।१।। वाची लेख विचारीयौ, कुमरी कीयौ विपरीत । होवणहारौ ते थयौ, कही करू कफीत ।।३।। फोकष्टि पिंड पापे भस्यौ, काम सस्यौ नहीं कोइ। औल्या थी पैल्यु थयु, हुवणहार ते होइ ॥४॥ चंपक तौ चंपापुरी, परण्यौ जाण्यौ मित्र। जान ऊजेणी सहु गई, चंपक चम्पा तत्र ॥५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] ढाल (१२) - गिरधर आवैलौ एहनी जानीए जाय जणावीयौ, मात नै ऊगते सूर । चम्पक तौ चम्पापुरी, परण्यो पुण्य मेरी मईया देहि वधाई मोहि । जे मन माने हो तोहि, मुझ मन हरषित होइ । मे० आंकणी सासू सुसरे राखीयौ, नवल जमाई नेह । मन बंछित सुख भोगवे, त्रिलोत्तमा सु तेह | मे० ॥ २ ॥ चम्पानगरी में भमै, चम्पक चतुर सुजाण । नरनारी मोही रह्या, ऐ ऐ पुण्य प्रमाण | मे० || ३ || बीजी भूमि त्रिलोत्तमा, आपण प्रिय नै संग । सीयाले सूती हुती, राति समय रली रंग ||४|| मे० नीची ऊतरती थकी, किणही आपण काम । बीजी भूमे आवतां, सबद सुण्यौ तिण ठांम ॥ ५ ॥ मे० वृद्धदत्त करै बीजो को सुणतौ नथी, आधी लेख लिख्यौ जूढ़ी परे, जूदी दोष अम्हारा कर्म नौ घाल्यो जाति पांति नहीं एहनी, किसौ घर मांहे आघौ लियो, शत्रु सुं वारता, बईयर सुं बहु वार | राति Jain Educationa International मझार परे थई देवे जमाई किसो पडूर ॥ १ ॥ [ ८१ For Personal and Private Use Only || ६ | | ० इण ठाम । आगे जातौ ए हुस्यै, इहां रहतौ आपणी लखमी नौ घणी, तेह सुं केहो काम || || बात । घात ||७|| मे एह । सनेह ||८|| मे० Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] [समयसुन्दर रासत्रय जीमाडै छै तूं सदा, विष देजे तिण मांहि । पाप उदेग टलै परौ, बीजौ डर नही काहि ॥१०॥ मति तू करे जे मोहनी, पुत्री तणी लिगार। पुत्री परणीजै घणी, ए थकी नहीं आधार ॥११॥मे० बापे बोल कह्या तिके, मा पणि मान्यौ तेह । विष देई हुं मारस्यु, अधम जमाई एह ॥१२||मे० ए आलोच त्रिलोत्तमा, सांभलि आपणे कानि ।। वज्राहत पाछी वली, ए मँडो तोफान ||१३।। मे० चीतव्यो एम त्रिलोत्तमा, जौ कहुं एह प्रकार । तौ पति मारै बाप नै, नहिं तर मरै भरतार ॥१४॥मे० इहां बाघ इहां तौ कूऔ, कहो हिवै कीजै केम | अकल विचारी नै कहुँ, आपण नै प्रियु नै एम ॥१५॥मे० शकुन निमित्त तणै बले, इम दीठौ छै अनिष्ट । तुम्हनै मास बि सीम छै, कोइक मोटौ कष्ट ।।१६।। मे० ते भणी तुम्हे मत जीमज्यो, पाणी म पीज्यो टांक। . तंबोल पिण मत खाइज्यो, इहां छै मोटौ वांक ॥१७॥ मे० मित्र घरे तुम्हे जीमज्यो, भमिज्यो नगर मझार । रात पड़ी पछै आविज्यो, जाज्यो ऊठि सवार |॥१८॥ मे० आपणी अस्त्री नो कह्यो, मानीउ चतुर सुजाण । वामी दुरगा वोलती, पंथी करैय प्रयाण ॥१६॥ मे० चंपक सेठ चिहुं दिस, नगरी भमै निश्चित।। मित्र सुं रहै परवर्यो, लीला केल करत ॥२०।। मे० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] [८३ वृद्धदत्त ते वलि कहै, वनता नै वार वार। मै कह्यौ ते कीधो नहीं, ते कहै कोण प्रकार ॥२१॥ मे० कोतिगदे वलतो कहै, मुझ दोस नहींय लिगार । आवै नहीं घर आपणे, जीमै नहींय किवार ।।२२।। मे० बाहिर रहै बाहिर जिमै, पाणी न पीवै एथ । संनद्ध बद्ध संकित थकौ, दीसै जेथि नै तेथि ॥२३॥ मे० वृद्धदत्त पापी वली, मारण तणौ उपाय । मांडै बीजी वार ते, दया मया नहिं काइ ॥२४॥ मे० वृद्धदत्त करस्यै वली, थिर मारवा नौ थाप। समयसुन्दर कहै देखज्यो, पोते लागै पाप ॥२५॥ मे० [ सर्व गाथा ३१८ ] ढाल (१३) कहिज्यो पंडित एह हीयाली एहनी। वृद्धदत्त पापी इक दिवस, तेड्या सुभट वेसासी। एकांत आघा तेडी नै, पाप नी वात प्रकाशी रे ॥ १ ॥ चिंतवै परनै ते पड़े घर नै, भाई बंधनै भूडौ रे चि० चिंतवै परनै ते पड़ेधरनै, राजा प्रजा नै रूड़ो रे ॥२॥चि० सौ सौ सोनईया हुं देस्यु, प्रत्येक थयै कामै रे। चंपक सेठ ने मारी नांखज्यो, लाग देखो तिण ठामै रे ॥३॥ चि० सुभटे वात सही कर मानी, लोभ ते किसं न थाई रे। रात दिवस रहै बल छल जोता, पिण न लहै घात काई रे ॥४॥ चंपक सेठे चाकर राख्या, हथियार सखरा हाथै रे । तनु छाया जिम टलै न पास, सदा रहै ते साथै रे ॥५॥ चिं. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] [ समयसुन्दर रासत्रय छम्मास गया पिण छल पां नहीं, वृद्ध क थावौ वेगारे | सुभट कहै कहो सी पर कीजै, अम्हनें लागौ उदेगा रे ॥६॥ चि० राही रूप करी रावलिया, रमता हुंता रातै रे । नर नारी सहुना मन रीझवै, भली जिनस बहु भांते रे ||७|| चि० चंपक सेठ पणि जोवा बैठौ रात घणी गई जोतां रे । भवतव्यतावश सुभटे जाण्यु, घरे जाँ भय नही को ताँ रे ॥८॥ चि० आप आपण घरे लोग गया सहू, राही रमनै थाकी रे । चाकर को दीठो नहीं पासे, चंपक चाल्यो एकाकी रे ॥६॥ चि ऊं घालौ सुसरा घर आयौ, पौल माँहे जाई पैठो रे । तिहाँ घणा त्रापड़ पाथरी मूक्या, आयौ गयौ रहे बैठी रे ||१०|| कोलाहल कर कोण जगावे, कुण किमाड़ उघडावे रे । इम विमासी नै तिहां सूतो, ऊंघ तुरत पिण आवे रे || ११|| चि० तिण वेला ते पायक आया, चंपक सूतो दीठौ रे । हथियार ले हणवा भणी धाया, सगलौ साथ ते धीठौ रे ॥१२॥ वली विमास्युं दिवस घणा थया, सेठ पूछां तौ वारू रे । सेठ कहै खिण विलंब म करिज्यो, बात सहु तुम्ह सारू रे ||१३|| महिलै मांकण करडी खाधौ, जांणे मित्र जगायौ रे । चंपक ऊठि प्रिया घर सूतौ तिहां आणंद सुख पायौ रे || १४ || घायक पिण धाई नै आया, पिण ते तिहां न देखे रे । जांण्यौ ते गयौ शरीर चिन्तादिक, किणही काम विशेषै रे ॥ १५ ॥ आपे वेगला जई रहां छाना, ए आवी इहां सूस्यै रे । घणा मिली आंपे घाव देस्यां इम आपणौ काम सरस्यै रे ॥ १६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] [८५ वृद्धदत्त उतावल करवा, आप आयौ हा हा हूतौ रे। को दीस नहीं ते कां आपज, तिण ठामै जाइ सूतौ रे॥१७॥ चि० तेहवै ते घायक पण आया, जाण्यो चंपक एही रे। समकालै घाव मार्यो सगले, ढील करां हिव केही रे ।।१८।। चि० पौल बाहिर कूआ मैं नांख्यौ, शरीर लेई नै राते रे । घायक पुरुष थया घणुं हरखत, पांमस्यां दाम प्रभाते रे ।।१६।। कूऔ आव्या दांतण करिवा, निचिन्ता थई तेही रे । पाणी उपरि तरती दीठी, वृद्धदत्त नी देही रे॥२०।। चि० । आनंद पोकार करवा लागा, हा अम्हे स्यु कीधौ रे | ओल्यु करतां थायै पैल्यु, काम न कोई सीधौ रे ॥२१॥ चि० चंडाल करम कीधु अम्हे पापी, अम्हे थया दुर्गति गामी रे । कहइ स्युन करइ लोभी माणस, कहउ स्यूं न करइ कामी रे॥२२।। साधदत्त भाई बात साँभलि, हीयौ फाटनै मूऔ रे। छिन्नू कोड़ि सोनईया केरौ, चंपक ते धणी हूऔ रे ॥२३॥ चि० बारहियौ करि बहु माणस मिलि, घर धणी चंपक कीधौ रे । जेहनै पुत्र नहीं नहीं भाई, तेहनै जमाई सीधौ रे ॥२४।। चि० सहु को लोक कहै छै सरज्यु, ते बोल केता वाचुरे। उद्यम छै पणि भावी अधिकु, समयसुन्दर कहै साचुरे० ॥२५॥ पहिलो खण्ड थयौ ए पूरी, पिण सम्बन्ध अधरौ रे । समयसुन्दर बीजै खंड कहि, संबंध थास्य पूरौ रे ॥२६॥ चि० ॥ इतिश्रीअनुकम्पादाने चंपक श्रेष्ठ संबन्धे प्रथम खण्ड समाप्तः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खण्ड बीजउ खंड हिव बोलस्यु, चंपक पामी रिद्धि । ए अनुकंपा दान थी, सगली जाणो सिद्धि ॥१॥ छिन्नू कोड़ि तणौ धणी, थयौ ते चंपक सेठ । वृद्धदत्त व्यवहारीय, तिण तौ कीधी वेठ ॥२॥ चौद कोड़ि सोना तणी, आपणा माता वृद्धि । उज्जेणी थी आण नें, सगली भेली किद्ध ॥३॥ चंपक सेठ चंपापुरी, भोगवै लील विलास । व्यापारै वाध्यो घणु, प्रगट्यौ पुण्य प्रकाश ॥४॥ ढाल (८)-कर जोड़ी आगलि रही, पहनी छिन्नू कोड़ि निधान गत, वलि छिन्नू व्यापारन रे। छिन्नू वलि व्याजे फिरै, ऐ ऐ पुण्य प्रकारन रे ॥१॥ पुण्य तणा फल भोगवे, चंपक सेठ सुजाणन रे। अचरिज सुणतां ऊपजे, पूरब पुण्य प्रमाणन रे ॥ २॥ पु० सहस वाहण वहै सासता, सहस वहै सकट नित्यन रे। सहस गेह सातभूमिया, सहस हाट पणि सत्यन रे ॥३॥ पु० भांडशाला इक सहस ते, पांचसै गज परवारन रे। पांचसे सुभट पासे रहै, हय पण पांच हजारन रे ॥ ४॥ पु० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] [ ८७ पांच सहस बीजा सुभट, पांचसै ऊंट प्रधान रे । दस हजार पणि पोठीया, लाख बलद नो गामन रे ||५|| पु० सौ गोअल दस दस सहस, गोअल गोअल गाइन रे । व्यापारी सेवा करें, दस हजार घर आइन रे || ६ || पु० लाख द्रव्य लागै जिणे, एहवौ अंगनौ भोगन रे । मन वंछित सुख भोगवे, पूरव पुण्य संयोगन रे ॥ ७ ॥ पु० दीन हीन देखी करी, द्यई ते करुणा दानन रे । राति दिवस दस लाखनु, बांधु पुण्य बंधाणन रे ॥ ८ ॥ पु० शुद्धन रे साधु समीपे भ्रम सुणी, थयौ ते पालै जीवदया प्रगट, नहीं व्यापार श्रावक विरुद्धन देव जुहारें दिन प्रतै, ऊठी विहरा कर वंदना, पातरा भर भर ऊगतै रूड़ी Jain Educationa International 1 रे ॥ ६ ॥ पु सूरन रे पूरन रे ॥ १० ॥ पु० रीतन रे । प्रीतन रे ॥ ११ ॥ पु० पडकमणू बे टंक नूं, साचवै सामी ने माने घणू, परमेसर सु सखरा सहस करावीया, जैन तथा प्रासादन रे । दंड कलश ध्वज दीपता, वांद्यां विटले विषादन रे || १२ || पु फटक प्रवाल पाषाणना, कनक रूपाना बिंबन रे । लाखे गाने भराविया, वित्त नौ नहीं विलंबन रे ॥ १३ ॥ पु० संसारना सुख भोगवै, करै धरम करतूतन रे समयसुन्दर सफलो करें, ए करणी अदभूतन रे ॥ १४ ॥ पु० [ सर्व गाथा १८] For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] [समयसुन्दर रासत्रय ढाल ( ४ ), प्राणपीयारी जानुकी, २ नाचै इंद्र आणंद सु . अन्य दिवस तिहां आवीया, चंपानयरी उद्यान रे। घणां साधु सु परवस्या, केवलिज्ञान प्रधान रे॥ १ ॥ केवल गुरू कहै ते खरू, सांभलै सहु सावधान रे। परमाणंद पामै, धरै, नर नारी ध्रम ध्यान रे ॥२॥ के० चंपकपण गयौ वांदिवा, त्रिण्ह वार प्रदक्षण दीध रे।। वारु विनय संघातै, कर जोड़ी वंदना कीध रे ॥३॥ के० चंपक नौ चित रंजीयौ, सांभल गुरु देसणा सार रे । पूछे कर जोड़ी करी, पूरब भव नो प्रकार रे ॥ ४ ॥ के० कही सामी भव पाछलो, मै केहा कीधा पुण्य रे । इण भव में पामी साही, इवड़ी लखमी अगण्य रे ॥ ५॥ के० वृद्धदत्त विवहारीयौ, कंचण छिन्नु कोड़ी लाधा रे। पणि भोगवी न सकी, ते कुण करम नै बाधा रे ॥ ६ ॥ के० अज्ञात कुल हुऔ माहरौ, डोकरी ऊपर राग रे।। डोकरी मुझ नै पालीयो, ते कुण करम विभाग रे ॥ ७ ॥ के० विण अपराध मो ऊपरै, मारण मांड्या उपाय रे। .. वृद्धदत्त वाणीये पिण, ते कुण वयर कहाय रे ॥ ८ । के० कहै केवलि ते सांभलो, सगलां नो उत्तर एह रे। .. पुण्य पाप पूठे कीया, भोगवै सहु फल तेह रे॥ ६ ॥ के० नगरी एक सुमेलिका, वन में तापस नो ठाम रे॥.. तापस बे तिहां रहैं, भवदत्त भवभूत नाम रे ॥ १० ॥ के० For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८६ चम्पक सेठ चौपई ] कंद मूल पत्र ते भखै, पंचाग्नि साधै बेऊ रे। दुकर तपस्या करें, रुड़ा रहिणी काल गमेऊ रे ॥ ११ ॥ के० कुटल बुद्ध भवदत्त ते, भवभूति सरल सुभाव रे। बेऊ मरने ते थया, यक्ष देव तप परभाव रे ॥ १२ ॥ के० अन्यायपुर पाटण तिहां, भवदत्ते अवतार द्धि रे। ते यक्ष चवी नैं तिहां थी, वंचनामति सेठ प्रसिद्ध रे ॥१३॥ के० भवभूति पणि तिहां चवी, पाडलीपुर महसेन नाम रे । क्षत्रीकुलमें ऊपनौ, पुण्य प्रकृति अभिराम रे ॥ १४ ॥ के० घरे लखमी सम्पति घणी, तिण सबल थयौ दातार रे। करै पुण्य करतूत यु, सफल थायै अवतार रे॥१५॥ के० धन पामी खरचै नहीं, लोभ ना लीधा जे लोक रे। समयसुदर कहै तीए, पाम्यौ ते सगलू फोकरे ॥१६।। के० [सर्वगाथा ३४] दूहा महासेन हिव एकदा, चाल्यो चतुर सुजाण । तीरथ जात्र कर आपणौ, जन्म करू परमाण ॥ १ ॥ सार द्रव्य साथै लीयौ, करसि धरम नौ काम । अन्यायपुर पाटण गयौ, वंचनामति जिण ठाम ॥२॥ नगरसेठ मूक्यौ घरे, करस्यै कोड़ जतन्न । मुकी द्रव्य नी गांठड़ी, माहे पांच रतन्न ॥३॥ महासेन मूकी गयौ, आणी मन वेसास । सेठ गांठ ऊखेल नै, जोतां पूगी आस ॥ ४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] [ समयसुन्दर रासत्रय ढाल (३) ऊमटि आई वादली एहनी लाख लाख ते मोल ना, मन मोहना, नीसख्या पांच रतन्न रे। परमेसर तूठौ मुन, महा हरषित थयौ मन्न रे ॥ १ ॥ ला० एक रतन काढी करी, ग्रहणे मूक्यो तेह रे । लाख द्रव्य लेइ कीया म० ऊंचा आवास गेह रे ॥ २॥ ला० रतन चार राख्या रूड़ा, म० गुफ्त पणै घर मांहि रे । महासेन जात्रा करी, म० आयौ अंग उच्छाह रे ॥३॥ ला० महासेन कहै सेठि जी, म० थापण आपौ मुझ रे। सेठि कहै तू कुण म० हुं तो नोलखं तुझ रे ॥ ४ ॥ ला० अम्हे तो थापण केहनी म० राखु नहीं स्युकाम रे। तू भूलौ आयौ इहां म० सरखौ होस्यै नाम रे ॥५॥ ला. महासेन विमासवा म० लागौ सु कहै एह रे । विटल ठगारा वाणीया म० दीसै छै निसंदेह रे ॥ ६॥ ला० गुपति दीधो ते ओलवै म० परतखि दीधौ आध रे। क्रय विक्रय करता थका म० लूट तौ पिण साध रे ॥ ७॥ ला तोला माना त्राकड़ी म° जुगति कला नै जोर रे । लूटी ल्यै सहु लोक नै म० चावा चौहटै चोर रे ॥ ८॥ ला० वणक तणी नीवी वड़ी म० वेश्या बड़ौ सवाद रे। दरसण नौ आधार तूम० नमोस्तु मिरषावाद रे ॥ ६ ॥ ला० यु विमास विलखौ थयौ म० ऊठि गयौ महासेन रे। कहौ केही पर कीजीय म० राख्या रतन अनेन रे ॥१०॥ ला० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६१ चम्पक सेठ चौपई] राज सभा गयौ पाधरौ म० पू, चास नै भास रे। कुण नगर कुण राजवी म० केही न्याय तपास रे, ॥१२॥ ला० किण ही के पूछयां थकां म० विवरे सेती बात रे। महासेन मन चिंतव्यौ म० समयसुन्दर ते कहात रे ॥१३।।ला० [सर्व गा०५०] ढाल (8) बे बांधव वंदण चल्या एहनी, अन्यायपुर पाटण इसौ, तेहनो सुणो तमासौ रे, सरखे सरखु सहु मिल्यु, सुणतां आवै हासौ रे ॥११॥ अ० निर्विचार राजा इहां, सर्वलूटाक तलारो रे, सर्वगिल मुहतो इहां, प्रधान इहां अनाचारो रे ॥२॥ अ० अज्ञानराशि गुरु छै तिहां, राजवैद्य जंतुकेतो रे। उषध रस छै एहनै, कुटंब कोलाहल तेतो रे ॥३।। अ० नगरसेठ वंचनामती, पुरोहित ते सिलापातो रे, कपट कोश्या वेश्या सही, घालै ते सहु नै घातो रे ॥४॥ अ० नगर सरूप जाणी करी, महासेन विमासै रे। गया रतन ए माहरा, केहनै जइयै पासै रे ॥५॥ अ० इण अवसर इक डोकरी, राज सभा माहे आवी रे । रोती रड़वड़ती थकी, छूटे केसे छावी रे॥६॥ अ० राजा पास थई करी, ऊंचे साद पुकारी रे। न्याव करौ राज माहरौ, हुँ दुखणी थई भारी रे ॥७॥ अ० महासेन पणि तिहां गयौ, देखो कुण अन्यायो रे। कुण तपास राजा करै, पछै करु हु को उपायो रे ॥८॥ अ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] [समयसुन्दर रासत्रय राजा पूछ कां रूऔ, कहि ताहरु दुख भाजु रे। न्याय तपास करूं नहीं, हौ हुँ लोक में लाजु रे ।।६।। अ० सुण राजन कहै डोकरी, हुँ, वसु ताहरै गामो रे। वेढ राढ न करूं कदे, ल्यु नहीं केहनौ नामो रे ॥१०॥ अ० अहो अहो राजा कहै, डोकरी केहवी सुशीलो रे । साध माणस मसकीन छ, एहनी करवी सबीलो रे॥११॥ अ० डोकरी कहै दुख आपणो, हुँ छु चोर नी माता रे । ते चोरी कर गाम मैं, बड़ो चोर विख्याता रे ॥१२॥ अ० आज चोरी करवा गयौ, देवदत्त घर पैठो रे। खात्र देवा नी खांत सु, भीत हेठ जई बैठो रे ।।१३।। अ० भीति हुँती ते जाजरी, ऊपर पडी ते वांसे रे। मूओ पुत्र ते माहरौ, इवड़ी वात को सांसे रे॥१४॥ अ० एक हीज बेटौ हुतौ, एहनौ दुख अपारौ रे। किम जी किम पर टबु, हिव मुझ कोण आधारो रे ॥१॥ अ० कहै राजा सुण डोकरी, हुँ तुझ दुख गमेसुरे। तुझ नहीं दोस तुजा घरे, देवदत्त नै दंड देसुरे॥१६॥ अ० माणस मूकी तेडावियौ, देवदत्त तिहां आयौ रे । राजा रीस करी घणी, देवदत्त डरपायो रे ॥१७|| अ० भीत करावी का जाजरी, जाण्यु नहीं चोर मरस्य रे। आ हिव बापड़ी डोकरी, कहौ केही पर करस्यै रे ॥१८।। अ० देवदत्त चित्त चीतव, माथा थी हुँ ऊतारु रे। कहै राजन तुम्हें सांभलौ, दूषण को नहीं अम्हार रे ॥१६॥ अ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] : [ ६३ सूत्रधार जाणै सहू, भूडी का भीति कीधी रे। .... अम्हे तो मजरी आपणी, पूरी भरनै दीधी रे ॥२०॥ अ० सूत्रधार कहै सांभलौ, भीत भली पर करतां रे। दोरी देई बिहुं दिस, थर ऊपर थर धरतां रे ॥२१॥ अ० सोल शृंगार सजी करी, देवदत्त नी बेटी रे । अम्हां पास ऊभी रही, मल्हपती माती घेटी रे ॥२२।। अ० चंचल दृष्टि गई षिहां, सिथल आव्यौ इंट बंधौ रे। आवी कां नारी इहां, किसौ दोष कामंधो रे ॥२३॥ अ० ते कहै हुं आवी इहां, राज मारग नै भांजी रे । परव्राजक नागौ मिल्यौ, ते देखी हुँ लाजी रे ॥२४॥ अ० परव्राजक तेडी कह्यो, कां इण मारग आयो रे । नगन कहै हुँ स्यु करु, घौड़ौ जमाई द्रौड़ायौ रे ॥२॥ अ० तुरत जमाई तेडीयौ, कां तू घोड़ी द्रौड़ावै रे। जाण्यौ जमाई माहरै, माथै तो हिव आवै रे ।।२६।। अ० इण सगले टलती करी, हुँ पिण बुद्धि उपायुरे। . राजन करम विधातरा, तिण मूक्यौ तौ आवु रे ॥२७॥ अ० रीस करी राजा कहै, भो भो मंत्रि प्रधानो रे। वेगी आणो विधातरा, ए करै कां तोफानो रे ॥२८॥ अ० हुँ अपराध सासु नहीं, गुदरु नहीं हुँ केहथी रे । मंत्र प्रधान धूरत कहै, गई नासी ते गेहथी रे ॥२६ अ० तेज प्रताप तुझ आकरौ, तो थी थरहर धूजै रे।। माणस सगले मूकीया, खबर हुस्यै दिन दूजै रे ॥३०॥ अ०. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] [समयसुन्दर रासत्रय राजा कहै सहु साथ नै, ऊतावल छ केही रे। लगन को आज लीधौ नहीं, जास्यै किहां नहीं तेही रे ॥३१॥ अ० सहु जावौ आपण घरे, भोजन करो भरपूरौ रे। इम कहि राजा ऊठीयो, आज थाय छै असूरो रे॥३२।। अ० महासेन मन चीतवै, दीठौ न्याय तपासौ रे । रतन गया ए माहरा, समयसुदर आवै हासो रे ॥३३।। अ० [सर्वगाथा ८३ ] ढाल (५) वेगवतो तिहां बांभणी, एहनी इक दिन कपटकोश्या घरे, महसेन गयौ मतवंतौ रे। पांच रतन परपंच नौ, सगलौ कह्यौ विरतंतो रे ॥१॥ उपगारी पिण एहवा, मिलै पुण्य संजोगो रे। बहुरतना वसुधरा, सहु सरस्यै नहिं लोगो रे ।।२।। उ० कपटकोश्या मन ऊपनी, दया मया कहै एमो रे वैगा रतन तुझ वालसु, प्रपंच कर जेम तेमो रे ॥३॥ उ० दिलासा इम देइ नै, आप गई घर माहे रे । सार रतन सगला लीया, वटुआ मांह हाथ वाहै रे ॥४॥ उ० वारू वस्त्र विलाति ना, कसतूरी करपूरो रे । मणि माणक मोती करी, पेई भरी भरपूरो रे ॥५॥ उ० ऊंट चढी गई पाधरी, वंचनामति आवासो रे। त्रिण्ह च्यार साथे सखी, सेठ ने कहै भरी सासो रे ॥६॥ उ० सेठजी विनती सांभलौ, वसंतपुर मुझे बाई रे। कंठगत प्राण तिका थई, मुझ नै वेग बुलाई रे॥७॥ उ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६५ चम्पक सेठ चौपई ] हुँ मिलवा भणी जाऊं छु, तां सीम तुम्हे राखो रे। तुम्हां सरीखो को नहीं, बांधव मति ना दाखो रे ॥८॥ उ० मुझ बहिन जौ ते मुई, तौ हुं साथै बलस्यु रे। कुण दुख देखै बहन नौ, विरह वियोग टलस्यु रे ।।६।। उ० मुझ नै मुई जौ सांभलौ, खरचज्यो सर्व तिवारै रे। वंचना सेठ मन मानीयौ, ए परी मरै किवारो रे ॥१०॥ उ० तौ लोबौ फबै मुझ नै, इम जाणी वात मानी रे । महासेन संकेत थी, आवि उभो रह्यो कानी रे ॥११।। उ० महासेन मांग्या तिहां, रतन पाँच मुझ दीजै रे। थांप रूप मूक्यां हुता, कच पच कांइ न कीजै रे ॥१२।। उ० लोभी सेठ विमांसीयो, रतन वात छै थोड़ी। कपट कौश्या पेटी चढ्यै, तो पामुधन कोड़ी रे ॥१३।। उ० . रतन पाछा यु एहने, तौ प्रतीत मुझ वाधे रे । पेटी जास्यै हाथ थी, रतन तणे भेद लाधै रे ॥१॥ उ० च्यारि रतन काढी दीया, पांचमै ने ते मूक्यों रे। धनावह सेठ ने घरे, थे तौ ग्रहण मूक्यो रे ॥१५॥ उ० सेठ कहै जा पुत्र तूं , पांचम रतन दे आणी रे। महल अडाणौ मूकि नै, आपणी सूझै कमाणी रे ॥१६।। उ० तुरत पुत्र ते तिम कीयो, रतन आणी ने दीधो रे। प्रतीति वधारी आपणी, सेठि भलौ काम कीधौ रे ॥१७|| उ० वधामणी रे वधामणी, आपज्यो माता अम्हनै रे। समाधि थई छै बहिन नैं, माणस मूक्यो तुम्हनै रे ॥१८॥ उ० बहिन तुम्हे मत आवेज्यो, हुँ तुझ मलवा आइस रे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] | समयसुन्दर रासत्रय इम कहि माणस मोकल्यौ, पंथ में तू दुख पाइस रे ।।१६।। कपट कोश्या हरखित थकी, पाछी लीधी पेई रे। सेठ साम्हो जोई रह्यो, नाची फरगट देई रे ।।२०।। ब० महसेन पिण नाच्यौ तिहां, वंचनामति पण नाच्यौ रे । लोके पूछ्यौ कहो तुम्हें, कुण कहै हेत राच्यौ रे॥२१॥ बहिन जीवी वेश्या कहै. आणंद अंग न माया रे। महासेन कहै माहरा, गया रतन मै पाया रे ॥२२॥ उ० सेठ कहै सहु सांभलौ, जग सगलौ आज ताइ रे। मैं वंच्यौ पणि मुझ नैं, वंच्यौ नहिं किण कांइ रे ।।२३।। उ० कपट कोश्या वंच्यौ मु., रतन पांच लेवाव्या रे। मंदिर ग्रहणै मूकि नै, भामिनी भीख मंगाव्या रे ॥२४।। उ०. लोक माहे सेठ लाजीयौ, सगले फिट-फिट कीधो रे। वैरागे मन वालीयो, तिण तापस नो व्रत लीधौ रे ॥२शा उ० कपटकोश्या वेश्या थकी, लोक मांहि स्याबाश लीधी रे । पर उपगार कीधौ भलौ, महासेन स्यु ए कीधी रे ॥२६॥ महासेन धन माल ले, तिहां थी चाल्यौ वहतौ रे। कुशल खेम कल्याण सु, पोतानै गामे पहुंतो रे ॥२७॥ उ० महासेन महारिद्ध सु, सुखी थको रहै तेथो रे। समयसुन्दर कहै सांभलौ, पूरब पुण्य छे एथो रे ॥२८॥ उ० . [ सर्वगाथा १११ ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] [ ७ ढाल (६) ईडर आंबा आंबिली, एहनी। तिण देसै हिव एकदा रे, पापी पड्यौ दुकालि। बार वरस सीम बापड़ा रे, सीधा लोक कराल ॥१॥ वलि मत पड़ज्यो एहवो दुकाल, जिणे विछोड्या मा बाप बाल । जिणे भागा सबल भूपाल ॥ व०॥ आंकणी ॥ खातां अन्न खूटी गया रे, कीजै कोण प्रकार। भूख सगी नहीं केहनी रे, पेट करै पोकार ॥२॥ व० सगपण तो गिणे को नहीं रे, मित्राई गई मूल। को कदाचि मांगे कदी रे, तौ माथै चढे त्रिसूल ॥३।। व० मान मूंकि बड़े माणसे रे, मांगवा माँडी भीख । ते आप पिण को नहीं रे, दुखीए लीधी दीख ॥४॥ व० केई बईयर मूंकी गया रे, के मूंकी गया बाल । के बाप माँ मूंकी गया रे, कुण पड़े जंजाल ॥५॥ व० परदेशे गया पाधरा रे, सांभल्या जेथ सुकाल । माणस बल विण मूआ रे, मारग मांहि विचाल ॥६॥ व. बापे बेटा बेचीया रे, मांटी बेची बयर । बयरे मांटी मूंकीया रे, अन्न न चै ए वयर ॥७॥ व० गोखे बैठी गोरड़ी रे वीजण ढोलती वाय । पेट नै काजै पदमणी रे, जाचे घर घर जाय ॥८॥ व० जे पंचामृत जीमता रे, खाता द्राख अखोड़। कांटी खायै खोरड़ी रे, के खेजड़ ना छोड़ ॥६॥ व० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] [ समयसुन्दर रासपंचक जतीया नै देई जीमता रे, ऊभा रहता आड । ते तो भाव तिहां रह्या रे, जीमता जड़े किमाड़ ||१०|| व० दान नौ के दीपता रे, सहु बैठा सत छांड | भीख न ौ को भाव सुं रे, यै तौ दुक्ख दिखाड़ ॥११॥ व० देव न पूजै देहरै रे, पड़िकमै नही पोसाल । सिथल थया श्रावक सहू रे, जती पड्यउ जंजाल ||१२|| व० रड़वड़ता गलीए मूंआ रे, मड़ा पड्या रह्या ठाम । गलीयां मांहे थई गंदगी रे, द्ये कुण नांखण दाम ||१३|| व० संवत् सोल सत्यासीयौ रे, ते दीठे ए दीठ | वि परमेसर एहनौ रे, अलगो करै अदीठ ॥१४॥ व० हाहाकार सबल हूऔ रे, दीसै न को दातार । तिण वेला उठ्यो तिहां रे, करवा कल उद्धार ||१५|| व० अवसर देखी दीजिये रे, कीजै पर उपगार । लखमी नौ लाहो लीजीये रे, समयसुन्दर कहै सार ॥ १६ ॥ व० [ सवगाथा १२७ ] ढाल (७) मनडुं रे ऊमाह्यौ मिलवा पुत्र नै रे, एहनी महासेन मन मोटो कियौ रे, मेरु तणी पर धन्न रे । करु ं लखमी सुकयारथी रे, आपुं परघल अन्न रे ॥१॥ म० रतन पांच बेची दीया रे, बीजा बदरा खोल रे । धान तणा संग्रह कीया रे, मुंहगै सुहगै मोल रे || २ || म० सत्तकार मंडावीया रे, ठाम ठाम जासक सहू जीमाडीयै रे, केवल धरम तिण ठाम रे । नै Jain Educationa International काम रे For Personal and Private Use Only ॥३॥ म० Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई ] [६8 अभिमानी नर एहवारे, मरैं न मांडै हाथ रे। तेहनै पिण छानौ दियौ रे, आपणा माणस हाथ रे ॥४॥ म० आठ पहुर उद्घोषणा रे, दीजै नगर मझार रे। अन्न पाणी आवी इहां रे, सहु ल्यौ सत्रकार रे॥५॥ म० मांड्या मोटा मांडवा रे, कीधी टाढी छांह रे। सहु को इहां बैसौ सूऔ रे, जिहां मन माने तांहरे ॥६॥ म० वैद्य बैसाख्या आपणा रे, करै चिकित्सा तेह रे। पग हाथ माथौ प्रमुख सहू रे, दुखती राखै देह रे ॥७॥ म० इण अवसर इक डोकरी रे, आवी सत्तकार रे। अन्न विना सोजौ वल्यौ रे, वाध्यौ रोग विकार रे ॥८॥ म० खाधौ पीधौ तेहनौ रे, जरय नहीं लिगार रे। महासेन नै ऊपनी रे, करुणा चित्त मझार रे॥६।। म० ते तेड़ी घर आपणै रे, वैद्य बोलाव्या वेग रे। सार सश्रूषा साचवै रे, टाल्यौ रोग उदेग रे॥१०॥ म० महासेन घर भारजा रे, उत्तम शील आचार रे। नांमैं ते गुणसुन्दरी रे, ते पिण अति दातार रे॥११॥ म० दीन हीन दुखिया भणी रे, भोजन घे भरपूर रे। सार सश्रूषा पिण करै रे, पूरै लूण कपूर रे॥१२॥ म० पोताने हाथे प्रीसवो रे, पोतानै हाथे पान रे। पोते आपै प्रेमसुं रे, सहु नै अढलक दान रे॥१३॥ म० महासेन क्षत्री दीयौ रे, इम अनुकम्पा दान रे। सगला लोक सुखी थया रे, वाध्यो वसुधा मान रे ॥१४॥म० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] [समयसुन्दर रासपंचक बार वरस बैठौ रह्यो रे, दुरभक्ष ए दुकाल र । मांग्या मेह वूठा वली र, दुदुथयो सुगाल रे ॥१५॥ म०. महासेन देई संबलौ रे, दे वली वागा वेस रे। संप्रेड्या सहु लोक नै रे, आप आपने देश रे ॥ १६ ॥ म० कुटंब रह्यौ ते जीवतौ रे, ते सहु को मिल्यो आव रे। धरम ध्यान सहु सांभस्या रे, पुण्य तणे परभाव रे ॥ १७ ॥ म० इम अनुकंपा दान द्यै रे, महासेन नी पर जेह। समयसुन्दर कहै ते लहै रे, राजनै रिद्धि अछेह रे ।। १८ ।। म० [ सर्वगाथा १४४ ] ढाल (८) धन्यासो, सुणि बहिनी पिउड़ौ परदेसी । केवली पूरब भव कहै, ते सांभलज्यो सहु कोई रे । ए अनुकंपा दान थी, ते चंपक नी परि होई रे ।। १ । के० अनुकंपा दान थी थयौ, तू चंपक सेठ समृद्धो रे। गुणसुदरी त्रिलोत्तमा, तुझ, भारजा थई समृद्धो रे ॥२॥ के०. दुकाल माहे डोकरी, जेहन में पाली पोसी रे। उजेणी ते ऊपनी, जेणे तुने पाल्यो डोसी रे॥३॥ के० वंचनामति सेठ जे हुँतो, ते तापस व्रत लेई रे। वृद्धदत्त थयौ वाणियौ, जे तुझ भणी दुख देई रे ॥४॥ के. वंचनामति पाछलै भवे, तुझ रतन हत्या लोभ लाई रे। छिन्नु कोडि सोना तणी, ए तिण कारण तै पाई रे ॥५॥ के. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चम्पक सेठ चौपई] [१०१ से वंचनामति सेठि नै, अपभ्राजनानु दुख दीधौ रे। त्रिण्ह वार तिण तो भणी, मूल मारण नु मन कीधौ रे ॥६॥के० महासेन क्षत्री भवै, तैं चंपक कुल-मद कीधौरे। दासी कूख तु ऊपनौ, सहु क्रतूत लहीजै सीधौ रे ॥७॥ के० केवली वचन सुणी करी, चंपक सेठ तौ प्रतिबुद्धो रे। वैरागे मन वालीयौ, हुं लेइस संयम सुद्धो रे॥८॥ के० राग द्वेष रूड़ा नहीं रे, कडुआ वलि करम विपाको रे।। विषय सुख विष सरखा वली, विरुआ जेहवा आको रे।।। के० आडंबर मोट करी, चंपक सेठे चारित लीधो रे। त्रिलोत्तमा साथै थई, सती नारि नो ए ध्रम सीधौ रे ॥१०॥ के० चढते परणामे करी, संयम सूधी परि पाली रे। आराधना अणसण करी, दूषण लागा ते टाली रे ॥ ११ ॥ के० देवलोक थया देवता, तिहां परमाणंद सुख पावै रे। बत्तीस बद्ध नाटिक पड़े, आगै अपछर ते गाव रे ॥१२॥ के० देवलोक ते चवी इण, महाविदेह में आस्यै रे। संसार ना सुख भोगवी, जती थई मोक्ष जास्यै रे ।। १३ ॥ के० अनुकंपा ऊपर कह्यो, चंपक सेठि नौ दृष्टांतो रे। अनुकंपा सहु आदरौ, एहथी छै मुगति एकांतो रे ॥ १४ ॥ के० संवत सोल पंचाणूऔ, मैं जालोर माहे जोड़ी रे। चंपक सेठ नी चौपाई, अंग आलस ऊंघ छोड़ी रे ।। १५॥ के० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] [समयसुन्दर रासपंचक श्री खरतरगच्छ राजीयौ, श्री युगप्रधान जिनचंदो रे। प्रथम शिष्य श्रीपूज ना, श्री सकलचंद मुर्णिदो रे ॥ १६ ॥ के० समयसुन्दर शिष्य तेहना, तिण चौपई कीधी एहो रे। शिष्य तणे आग्रह करी, जे ऊपर अधिक सनेहो रे ॥ १७ ॥ के० नर नारी रसिया हुस्य, ते सांभलस्यै सदा आवी रे। सुघड़ सुकंठी बे जणा, वाचज्यो भली बात वणावी रे ॥१८॥के० इति द्वितीय खण्डोपि अनुकम्पा विषये समाप्तः सर्व गाथा १६२, प्रथम खण्डे गाथा ३४४, द्वितीय खंडे १६२ द्वयोमीलने ५०६ ग्रन्थाग्रन्थ श्लोक ७०० संख्या इति चंपकसेठ चौपई संपूर्णाः । संवत १७९४ वैशाख सुदी १३ श्री फलवद्धीपुरे। प्रति नं० ४२६६ ( बं० ८९) श्री अभय जैन ग्रन्थालय, पत्र १० प्रति पत्रे पंक्ति १७ प्रति पंक्ति अक्षर ६० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसुन्दरोपाध्यायकृत व्यवहार - शुद्ध विषये धनदत्त श्रेष्ठि चउपई ( दोहा ) नउ धर्म । शांतिनाथ जिन सोलमड, प्रणमुं तेहना पाय I व्यवहार सुद्ध ऊपरि कहुँ, चउपई चित्त लगाय ॥ १ ॥ भगवंत भाखै भो भविक, मोटउ साध जेहथी मुगति जाइयइ, सासता लहियै दीस ते अति दोहिलड, सूर वीर श्रावक नउ धर्म सोहिलउ, देवलोक श्रावक ना व्रत तउ पलइ, जड़ें हुवइ गुण इकवीस । नाम तुम्हे ते सांभलउ, वारू विश्वा बीस ॥ ४ ॥ शर्म्मा ॥ २ ॥ करइ कोय । सुख दे || ३ || नापइ टांक | विणज करंतर वाणियउ, ओछु अधिक पिण ते ल्यइ नहीं, मन में नाणै सांक ॥ ५ ॥ सखर वस्त न कहइ निखर, निखर सखर न कहेय । जिण वेला देवउ कह्यौ, तिण वेला ते देय ॥ ६ ॥ झूठं कदि बोलइ नहीं, साधुं पहिलुं व्यवहार सुद्ध गुण, इम कह्यौ पांचे इन्द्री पखड़उ, ए बीजउ प्रकृति शांत तीजड काउ, चौथउ नितमेव । कहै अरिहंत देव ॥ ७ ॥ गुण लीय । लोकां प्रीय ॥ ८ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] [ समयसुन्दर रासपंचक वंचना रहित ते पांचमउ, अक्रूर नाम कहाय । पाप थकी डरतउ रहइ, छट्ठउ आवइ दाय ।। ६ ।। माया न करइं सातमउ, आठमउ करिइ उपगार। नवमउ वाले कुकरमथी, दसमउ दया अपार ।। १० ॥ रागन रोस इग्यारमउ, मध्यस्थ रहै महांत । बहु गुण वालबारमउ. दरसण पणि सांत दांत ॥ ११ ॥ गुण रागी गुण तेरमउ, संत कथ चउदस मुद्र । सोभन पक्ष तेहीज कहयौ, कुलनइ वंस विसुद्ध ॥ १२ ॥ दीरघ दरसी पनरमउ, सोलम लहें विशेष । वृद्ध बुद्ध वामहं वहै, सतरम गुण छ एष ।। १३ ।। विनइ करइ ते अठारमउ, मा बाप गुरू नो जेह । उपगार जाणे इण कीयउं, गुणीसमउं गुण एह ।। १४ ।। परहितकारी बीसमउ, अंगित नै आकार । लब्ध लक्ष इकवीसमउ, ए एकवीस गुणसार ।। १५ ।। ढाल-(१) चउपई नी. एकवीस माहे व्यवहार वड़उ, पुण्य क्रतूत मांहे परगड़उ । व्यवहार पाखई सगलउं फोक, बाल गोपाल कहै सहुलोक ॥१॥ पहिरण विण माथै पागड़ी, इंढोणी विण माथै घड़ी। राग विना अम्मारति किसी, जाते द्याहड़े जायै खिसी ॥२॥ चेलाली माथइ बेहड़, निरगुण नाह किसउ नेहड़उ । गाम नहीं तउ किहां थी सीम, ठांढ़ि नहीं तउ किहां थी हीम ॥३॥ व्यवहार सुद्ध विना नहिं सोभ, भाग माणस किहां लहै थोभ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनदत्त श्रेष्ठि चौपई ] [ १०५ सील विना सोभा किहां थकी, दामि विना धूम न करइ सकी॥४॥ वइंरि नहीं तउ बेटउ किहां, धरम विना सुख नहीं जिहां । गरथ बिना किम मांडै हाट, गुरु विण कुण देखाड़े वाट ॥५॥ व्यवहार सुद्धि आंकां जिम भली, बीजा गुण मींडी एकली। व्यवहार सुद्धि तउ सहु गुण भला, व्यवहार विण सगला निःफला।६ दान तणा दीसै दातार, सील वरत पण ल्यई सुविचार । तपसी पिण दीसै छै कोय, विण व्यवहार केथे किण होय ॥७॥ साधनइ बोल सुद्ध आहार, श्रावक नई बोलउ व्यवहार । ए बेऊ करता दीसे भला, परभव पिण थायइ सोहिलां ।। ८ ॥ व्यवहार शुद्ध पण दोहिलउं, सूर वीर तेहनई सोहिलउं । पहिली ढाल कही मइ लह, समयसुंदर कहै बात छइ बहू ।।६।। [सर्व गाथा २४] ढाल ( २ ) तिमरी पासे वडलं गांम, एहनी जंबुदीप भरतक्षेत्र सार, नगरी अयोध्या नाम उदार । राज करइ तिहां उग्रसेनराय, दोस नगरहि न्याय कहाय ।। १।। पदमावती नामइ पटरानी, भरतार भगत दातार वखाणी । सुबुद्धि नामइ मुहतउ मतिमत, सामि भगत राज-काज करंत ।२। धनदेव नपुत्र धनदत्त नाम, व्यवहारीयउ वसै तिण हीज ठाम बाल पणइ मूया माय नइ बाप, प्रगट थयउ पूरवलउंपाप ॥३।। बाप तणउ द्रव्य बइठउं खाय, अकज अधम नउँ सहज कहाय । आठ वरस नउं थय धनदत्त, शास्त्र भणई न्याय नीति ननित्त ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] [समयसुन्दर रासपंचक ध्रमघोषसूरि तिहां एकदा आव्या, भव्य हुँता तेहनइ मनि भाव्या। वांदण काजि गया नर नारी, कर जोड़ि कहइ तुं तारि हो तारि ॥५॥ धनदत्त पिण आवी तिहां बइठउ, दरसणि लोयणु अमीय पयट्ठउ साधइ देसणा दीधी एम, सांभलतां उपजइ अति प्रेम ॥ ६ ॥ दसे दृष्टांते नर भव लाधउ, घर धंधइ ते गमाड़यउ आधउ । निफल जनम जायइंध्रम पाखइ, दुरगति पडतां कहउकुण राखइं ॥७॥ राज नइ रिद्धि छती थकी छोड़ि, कुटुंब अंतेउर द्रव्य नी कोड़ि। धन्य तिकौ जिण संयम लीधउ, तेह तणउ आत्मार्थ सीधउ।८ एक माणस पड्यां देखइ दुख, संसार नउ पणि नहिं को सुख । तिरणां ना झंपड़ा नागेह, नउलिया कोल आकुल कीआ जेह ॥६॥ अन्न नहीं घरे जीमण वेला, माणस मांहो मांहि अमेला । वईअरि ते पणि वांगड़ बोली, काली कुछित गालि द्यइ गोली॥१०॥ हांडी कुंडी ते पणि चोपी, वइसण ऊठण धरती अचोखी। पहिरण ओढण फाटां बेटा, प्रवहण खरते काने वुटा ।। ११ ॥ गृहस्थपणइ रहइ दुखिआ एहवा, पणि दीक्षा न ल्यइ ते पणि एहवा। पणि संयम माहे घणा सुक्ख, जउ रहइ परिणामे कर लुक्ख ।।१२।। बईर नी पणि नहीं का गालि, कुटुम्ब तणी पण नही काई दुआल। प्रणमे मोटा राजवी पाय, परभवि सासता सुख थाय ।। १३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनदत्त श्रेष्ठि चौपई ] [ १०७ साधजी दीधउ ए उपदेश, पाप तणउ नहीं तिहां लवलेश। समयसुदर कहै ढाल ए बीजी, सांभलतां सहु को करउ जी जी ॥१४॥ [ सर्वगाथा ३८] ढाल - (३) कुमरी बोलावइ कूबड़छ।। कहै धनदत्त सामी सांभलउ, तुम्हे काउ साचउं धम्मो रे । पण तउ ते मई पलइ नहीं, हुं छं भारी कम्मों रे ।। १ ।। संजम मारग दोहिलउ, कायर नउ नहिं कामो रे । सूरवीर पालइ तिके, नित लीजइ तसु नामो रे ॥२॥ सं०॥ पंच मेरु ऊपाड़िवा, माथा ऊपरि भारो रे। माथइ लोच कराविवउ, स्नान न करिवउ किवारो रे ॥३॥ सं०॥ भूमि संथारउ सूयवउ, उसीसइ दे बांहो रे। राति दिवस रहिवउं वली, गुरुनी शिक्षा मांहो रे ।।४।। सं०॥ घरि घरि भिक्षा मांगवी, सूझतउ लेवलं आहारो रे । लोक देखतां करिवउ नहीं, आहार नइ नीहारो रे ॥५॥ सं०॥ बावीस परीसा बोलीया, ते सहिवा निस दीसो रे। लोक ना कुवचन सांभलइ, पणि करवी नहीं रीसो रे ॥६॥ सं०॥ राधावेध नी पूतली, बींधवी एकणि बाणो रे। खडग धार ऊपरि खरउ, चालेवो पगे अलवाणो रे ॥७॥ सं०॥ त्रांकडीयै मेरु तोलिवउ, आंगि उल्हावणी पायो रे। गंगा नदी साम्हे पगे, कहउ किण परि पहुचायो रे ॥ ८॥सं०॥ तप जप किरिआ करी, परिग्रह नहीं लवलेसो रे। एक ठामि रहिवउ नहीं, भविवउ देस प्रदेसो रे॥६॥ सं०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] [ समयसुन्दर रासपंचक बीजउ मइ क्यं पलइ नहीं, हुं पालिसि व्यवहार सुद्धो रे। साबासि समयसुंदर कहै, धनदत्त साह प्रतिबुद्धो रे ॥१०॥सं०।। [सर्वगाथा ४८] तूं धन तूं कृत-पुण्य तुं, साध कहै, धनदत्त ! पिण रूड़ी परि पालजे, निश्चल करि निज चित्त ॥१॥ व्यवहार शुद्ध पणु ग्रही, आव्यउ आपणे गेह। भलउ कीयउ कहै भारिजा, पिण दुक्कर छइ एह ॥२॥ व्यापार मांड्यउ वाणिय, सगलउ बोलै साच । वांड कहै तंत पांडि नै, न वदै बीजी वाच ।।३। साचा तोला त्राकनी, साचा गज श्रीकार । ओछु नहिं ये आपणुं, अधिकउ न ल्यै लिगार ॥ ४ ॥ साच ऊपरि राचै सही, लोक हठी कहै एह । विणज व्यापार माठउ पड्यउ, द्रव्य नो आव्यो छेह ।।५।। महुलति पूगी वाणिय आवी मांगइ दाम। घर माहे देवा नहीं, चिंतातुर थयउ ताम । ॥ ६॥ तेहवई बोली भारिजा, सामी सास वात । धन तूटा लागै खरच, किम गमिस्यां दिन रात ॥ ७ ॥ घर धंधा दुख पालणा, सायर कूखि समाण । एकणि रात्रे नीसऱ्या, गाहा पंच सयाण ।। ८॥ रूडं करतां पाडुयउ, थाइयं कलियुगि तेह । पणि धरमंइ जई भेटि छ, अहि राखइ नर जेह ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनदत्त श्रेष्ठि चौपई ] [१०६ साच काउ तई सुंदरी, पिण हिव करिस्यां केम। सुस न भांजु सर्वथा, मांगरण रउ मुझ नेम ॥ १० ॥ परदेसि चालसि पाधरउ, दरियइ चढिसि हुँ देखि । लखमी तिहां लहिये घणी, वारू भाग्य विशेषि ॥ ११ ॥ बईरि बोली चालतां, सांभलिज्यो भरतार । हुँ बैठी शील पालिसु, तु पाले व्यवहार ॥१२॥ [सर्व गा०६०] ढाल-(8) हिव करकंडू आवियउ जी, एहनी । साथ संघातीय ओ चालीयउ जी, आव्यउ गाम विचाल । पूछयौ को छै इहा भलजी, व्यवहार नउ प्रतिपाल रे ॥१॥ दोहिलउ दीसइ व्यवहार सुद्धि । विवहार शुद्धि विना काउ जी, श्रावक धरम अशुद्ध रे ॥२॥ गांम तणा लोकै इम कहैजी, इहां छै घणा दातार। शीलवंत पिण छै घणा जी, साच बोला साहूकार रे ॥३॥ दो० तप करइ तपणि छै घणा जी, भावना भावइति केइ । पणि व्यवहार पालइ जिके जी, जाण्या नहीं इक बेय रे ॥४॥ तू किम पूछ तेहनै जी, ते कहै मुझ छै काम । वाणउत्तर हुं जउ तेहनउ जी, तउ मुझ ध्रम पडै ठाम रे ॥४॥ दो० किण ही काउ इक वाणियउ जी, व्यवहार शुद्ध छइं एथि । धनदत्त जाय मिल्यउ तेहनइ जी वाणउत्त थई रह्यउ तेथि रे ॥५॥ गाय भइंसि घणी तेहनइ जी, वाहरि चरिवा जाय । पारका खेत मइं पइसि नई जी, फल्या फूल्या धान खाय रे॥६॥ करसणी आवी कूकीया जी, स्या भणी घण चारेसि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] [समयसुन्दर रासपंचक सेठ कहै गोवालियो जी, तेड़ी नइ वारैसि रे ॥७॥ दोल॥ पण मन स्यउं वारइ नहीं जी, स्वारथ वाल्हउ होय।। दूध दही घी हुवइ घणा जी, कुटुंब जाणइ सहु कोय रे ॥८॥ दो। धनदत्त चित्त विमासियउ जी, नहीं इहां व्यवहार शुद्ध। सेठ छोडी नइ सांचरयउ जी, इहां तउ धरम अशुद्ध रे ॥६॥ दो० बलि बीजै गामि मइं गयो जी, श्राविका सांभली तेथि । तेहनइ वाणउत्त जई रह्यउ जी, धन नहीं जाउं केथि रे॥१०॥ तेहनइ माल घणउ घरे जी, करइ वलि वणिज व्यापार । घर नउ लेखउ तेहनइ जी, सूप्यउ तू करे सार रे॥१॥ दो०॥ ते बाई अति लोभणी जी, वलि नहिं पुत्री पुत्र ।। रासिं कातिं अरहटीयै जी, पा सेर अधपाव सूत्र रे॥१२॥ दो०। पडोसी नी मैडीयै जी, दीवउ रहइ निस सेज। जारी चांदरणउ पड़इ जी, ते कातै तिण तेज रे ॥१३॥ दो० । धनदत्त कहै हुं नहीं रहुँ जी, ताहरइ नही ब्यवहार। दूध में पुरा तूं जोवइ जी, कहै बाई वार-वार रे ॥४॥ दो। कात्या नु जे ऊपजइ जी, तेहनु सालणुं थाय । सहु को जीमै ते सदा जी, खांति सुसहु को खाय ॥१॥ दो। महीनौ लेइ नै नीसरर्यउ जी, जइ मिल्यउ मूलगै साथि । विणज व्यापार सहु करइ जी, धन नहीं धनदत्त हाथि ॥१६॥ दिन केतला एक तिहां रह्या जी, वस्तु वाना वेचि साटि। साथ सहू परवारियउजी, वखत सारू धन खाटि रे ॥१७॥ दो०। मित्र कह्य धनदत्त नइ जी, चालि तु आपणइ देसि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनदत्त श्रेष्ठि चौपई] [१११ धनदत्त कहइ धन मइ इहां जी, खाटयु नहीं लवलेस ॥१८॥ दो० पुत्र शिष्य सरिखा कह्या जी, रिष नइ देवता जेम । मूरख तिरयंच सारिखा जी, मुआ दालिद्री तेम रे॥ १६ ॥ दो० ॥ यत :जसु घरि वहिल न दीसइं गाडउ, जसु घरि भइंसि न रीकै पाडउ जसु घरि नारि न चूड़उ खलकई, तसु घरि दालिद लहरे लहकइ ॥१॥ पुनः लोक वाक्यं यथा :दोकड़ा वाल्हा रे दोकड़ा वाल्हा, दोकड़े रोता रहई छै काल्हा दो। दोकड़े ताल मादल भलां बाजइ, दोकड़े जिनवर ना गुण गाजइरादो०। दोकड़े लाडी हाथ बे जोड़इ, दोकड़ा पाखइ करड़का मोड़इ ।३।दो। जउ हिवणां नावी सकइ जी, तउ पणि कांह एक मूकि । बईरि वाटि जोती हुस्यइजी, अवसर थी तूम चूकि रे ।२०/दो। सुमूकु मित्र माहरइ जी, छोहडै नही काई वित्त । मित्र कहइ हितुयउ थकउजी, सांभलि तु धनदत्त रे ।२शदो सखर बीजोरा इहां घणा जी, सुहगा मोला सोय । तपति छमासी ते गमइ जी, अति मीठा वलि होय रे ।२२।दो। मित्र मानी बात ताहरी जी, ल्यइ बीजोरा डालि। तउ जाइनै भेटण करे जी, करंडिया मांहे घालि रे ।२३।दो। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] [समयसुन्दर रासपंचक साथ सहू को चालियउ जी, ते पिण चाल्यउ मित्र । धनदत्त ते तउ तिहां रह्यउ जी, करम नी वात विचित्र रे ।२४।दो। ढाल ए चउथी भणी जी, व्यवहार सुद्ध नी बात। . समयसुदर कहै सांभलउ जी, एह सखर अवदात ।२।दो। सर्व गा० ८५] प्रवहण तिहां थी चालियउ, सहु को चाल्यउ साथ । धनदत्त साह तिहां राउ, आथि न आबी हाथ ॥१॥ प्रवहण कुसले आवियउ, किणही गाम निजीक । साथ सहू को ऊतस्यउ, नर तिहां रहै निरभीक ॥२॥ [सर्व गाथा ८५] ढाल (५) जाति परिआनी तिण अवसरि तिण नगर मइ, बाजइ ढंढेरा ढोल रे । राजा ना आदमी, बोलइ वलि एहवा बोल रे ।१। बीजोरउ केहनइ हुय, तउ देज्यो नर नारि रे। पर दीप नउ ऊपनउ, अति शीतल सुखकारि रे ।।बी० । राजा तणउ पुत्र रोगीयउ, ऊपनउ दाघ ज्वर डील रे। राजवैद्य बोलाविया, करउ औषध म करउ ढील रे ।३।बी। दाय उपाय किया घणा, पणि शरीर समाधि न थाय रे । वेदना सबली थई, जीवत हाथ मांहि जाव रे ।४।बी। वैद्य ऊच्या हाथ झाटकी, कहइ मरतउ न राखइ कोय रे । पणि एक उपाय छइ, परदेसी बीजोरउ होय रे ।।बी०। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनदत्त श्रेष्ठि चौपई] । ११३ राजा ढंढेरउ फेरनइ, कहइ जउ को बीजोरउ देय । तउ हूँ आपु तेहनइ, आपणइ मुंहडइ जे कहेय रे दावी। नगर मांहि पाम्यउ नहीं, साथ मांहि पड़हउ संभलाव्यउ ।। . पर दीप थी आविया, कदाचि कोयक ते ल्याव्यउ रे ॥णाबी० धनदत्त नइ मित्र सांभली, ढंढेरउ छब्यउ निज हाथि रे । बीजोरउ ले गयउ, राजा ना पुरषां साथि रे ।८बी। कुमर नइ ते व्यवरावियउ, अति शीतल नइ सुसवाद रे। दाध ज्वर ऊतस्यउ ओ, ऊपनउराजा नइं आल्हाद रे हाबी०| करंडीयउं ले काठउ भस्यउ, मणि माणक कनक उदार रे । मान्यउं घणउं मित्र नइ, कह्यौ तई कीधउ उपगार रे ।१०बी०। साथ नै दाण मुकी दीयउ, साचउ ध्रम नउ संबंध रे। सुखीयउ मूणइ साथ नै, न कीजइ तेहनउ प्रतिबंध रे ।११०बी०। ते साथ तिहां थी चालीयउ, आयउ वही आपणइ गामि रे। समयसुदर इम कहइ, पुण्य थी सीझे सहु काम रे ॥१२॥बी०। . [सर्व गाथा RE] ढाल (६) राग-गौड़ी, मनडु रे ऊमााउमिलवा पुत्र नई एहनी साथ सहू घर आवियउ जी, कुसले खेमे संघाति रे। धनदत्त एक न आवियउ जी, भारिजा नै थइ भ्रांति रे।। नाहलियउ नाव्यउ रे नारी दुख करइ, नयणड़े नीर वहंत रे। अबला जोवइ रे ऊभी बारणे, पिउ तणी बात पूछंत रे ।राना सेठ वाणउन सहु आविया, आव्या व्यापारी लोक रे। आंडोसी पाडोसी सहु आविया, कंत बिना सहु फोक रे ना० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१४] [समयसुन्दर रासपंचक बाप नै बेटा मिल्या सहु, बलि मिल्या स्त्री भरतार रे। जेहनई पुण्य पोतइ हुतउ, तेहनइ तूठउ करतार रे।४ाना। तिण समइ मित्र उतावला, वंदडि आबि नइ दीध रे। कुसल छइ एह संभारणी, विगति सुबात न कीध रेशना। प्रीति पामी लेइ करंडीयउ, उरड़ा मांहि उखेलि रे। माल मलूक देखी करी, दुख करइ अवहेलि रे ।६।ना०॥ मसकति नउ माल ए नहीं, ए परवंचना माल रे। सही व्यवहार सुद्ध भांजीयउ, ए परहउ धूड़ि मइ घाल रे ।ना० घरत भांजी वित्त पामीय, ते विष सरिखउ होय रे। दुख संसार मांहि देखीय, एस्युमाहरइ नहीं काम कोयरे ॥८॥ मित्र आव्यउ मिलवा भणी, दिलगीर दीठी भउजाय रे । आवडं दुख तु का करइ, कंतनइ कुशल कहाय रेहाना मन तणी बात नारी कही, मित्र काउ सरब सरूप रे । पुण्य फल्यउ तुझ प्रियु तणउ रे, एह कमाल अनूप रे ।१०ाना। परम खुसी थई पद्मिनी, धरमनी आसता आणि रे। सील पालइ रे सुलक्षणी, जिन ध्रम नउ फल जाण रे ।११।ना। धनदत्त साहना मित्र नै, साबासि देज्यो सहु कोय रे । लोभ लिगार कीधउ नहीं; एहवा जग में एक दोय रे ।१२।ना०। । धरम थकी धन संपजइ, धरम, थकी सुख होय रे । समयसुन्दर साचुं कहै, धरम करउ सहु कोय रे ।१३।ना० GT .. ... [सर्वगाथा ११२] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनदत्त श्रेष्ठि चौपई ] [११५ ढाल (७) हिव राणी पदमावती एहनी भेटि लेई गई भारिजा, राजा नै पासो । धरती घउ नगरी धणी, मांडू आवासो ।। धरम फल्यउ धनदत्तनउ, सह कोई करै वातो। पुण्य करउ रे प्राणियां, दिन नइ बलि रातो राधा राजा कहइ जेती जोईयइं, तेतली ल्यउ धरती । मोटा महुल मंडावीया, अंगि आणंद करती ।३।१०। गउख कराव्या गोरड़ी, आलीआ ने जाली। हीडोला खाट हीचिवा, वली बंध्या विचाली ।४।। बाग वाड़ी फल फूल नी, खंडोखलि मांहे। बारणइ तोरण बांधीया, ऊंचा कलश उच्छाहे ॥ध०। सील पालती श्राविका, रहइ महल मझारो। सत्तूकार मंडाविया, दान द्यइ दातारोध० साध अनइ वलि साधवी, पात्रां भरि पोषइ । भगतियुगति करी अति भली, साहमी नइ संतोषइ ध० दोहिला दुखिया दूबला, तेहनी करइ सारो। धन धन लोक सहु को कहइ, तूठ उ करतारो।८ ध। धनदत्त नी 'कहै भारिजा, प्रिउ नउ परसादो। . . प्रियु ना व्यवहार शुद्ध नउ, करू हुँ का प्रमादो।।।। सुस ए व्यवहार सुद्ध नउ, साह नउ फल्यउ एहो। समयसुन्दर सहु करउ, पिण नहीं पलइ तेहो ।१०।१०। [सर्वगाथा १२२] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] ॥ दूहा ॥ घउ काल धनदत्त तिहां, राउ परदेस मकार | मसकति पण कीधी घणी, पणि पलवइ व्यवहार | P धन कांइ पाम्य नहीं, वली विमास्यउ एम । धरती थी लहणउ नहीं, कहउ हिव कीजै केम २ जइयइ मरतां जीवतां, जनमभूमि किमहीक । तउ साता सुख पामियइ, इम करिवउ तहतीक 1३/ धनदत्त मनि धीरज धरी, एकलड चाल्यउ एह I कुसले खेमे आवीयउ, गेहनी वालइ गेह |४| फाटे तू लुगड़े, मोष्टी दाढ़ी मूंछ | खासड़े त्रूटे खेह भस्यड, भूख्यउ तरस्यउ भुंछ ॥५॥ मोटा महुल ए केहना, पूछ्याउ ते कहै एम । धनदत्त साह तणी प्रिया, प्रगट कराव्या प्रेम |६| धनदत्त नई धोखउ थयउ, पिण जाऊ घर मांहि । पइसतां बारणइ पोलिया, राख्यउ झालि बांहि || परदेसी तु कुण छइ, पोलिए पूछ्यउ एम । सेठाणी स्युं काम छई, जावा द्यउ जिम तेम १८| हुकम विना को हद्द छ, पइसइ महल मकारि । माल मलूक मागू नही देखण घर दीदार || हटक्यउ पिण हठ ले राउ, स्त्रीनइ काउ सरूप | ते कहइ आणि ऊभउ करउ, जिहां तड़ तड़तड धूप | १०/ 2 [ समयसुन्दर रासपंचक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनदत्त श्रेष्ठि चौपई ] [११५ आप बैठी ऊंची चढ़ी, साम्हउ राख्यउ तेह । तुरत देखतां ओलख्या, ए मुझ प्रीतम तेह ॥११॥ तुरत बोलाव्यउ तेहनइ, आव्यउ निज आवासि । हाथ जोड़ी ऊभी रही, पिण प्रिय चित्त उदास ॥१२॥ धनदत्त भरम धस्यउ इसउ, सही इण खंड्यउ सील । नहिं तरि ए रिद्धि किहां थकी, धूड़ि पड़उ ए लील ॥१३॥ प्रियु पूछ्यउ रे पदमिनी, कुण थयउ एह प्रकार। नारि कहइ प्रियु तणउ, सुस फल्यउ व्यवहार ॥१४॥ कामिनी सहु मांडी काउ, संबंध आमूलचूल । मित्रइ साख दीधी वली, भागउ भरम समूल ॥१५॥ नाई तेड़ि नगर तणा, सरीर कराव्यउ सूल । मर्दन करी हवरावियउ, पहिराव्या पटकूल ॥१६॥ भोजन भला करावीया, ताजा दीया तंबोल। ग्रहणा गांठा पहिर नइ, बे थया झामरझोल ॥१॥ धनदत्त कहइ तुझ शील थी, आंपे पाम्यउ सुक्ख । नारि कहै व्यवहार थी, दूरि गया सहु दुक्ख ॥१८॥ जिन ध्रम करता बे रहइ, सुख सेती नर नारि । समयसुन्दर कहै बिहुं तणइ, हुं जाऊं बलिहारि ॥१६॥ - [सर्वगाथा १४१] ढाल (८) राम देसउटइ जाय, अथवा-धरम हीयइ धरउ, एहनी तेहवइ ते साध आविया रे, तिण नगरी उद्यान । अवग्रह मांनी ऊतरया रे, बैठा करइ ध्रम ध्यानो रे । १ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] [ समयसुन्दर रासपंचक धरम करउ तुम्हे, विशेष पणइ व्यवहारो रे संयम आदरउ. जिम पामउ भव पारो रे । २।३०। दसे दृष्टान्ते दोहिलो रे, नरभव नउ अवतार । सूत्र सांभलिवउ दोहिलउ रे, सरदहणा सुविचारो रे । ३ । ध० । धरम करतां दोहिलउ रे, भारी करमा जीव । जाणे पिण न सकइ करी रे, रुलस्यइ पाडता रीवोरे। ४ । ध०। कुटुंब सहूको कारिमो रे, जां स्वारथ तां स्वाद । विहडै स्वारथ विण सही रे, पुण्य करउ अप्रमादो रे । ५ । ध० । वृक्ष तणी जिम छांहड़ी रे, खिण खिण फिरती जाय । गरब न कीजइ गरथ नउ रे, घड़ी घड़ थल थायो रे। ६ ।ध ०। भोग भोगवियइ अति घणा रे, तउ ही तृप्ति न थाय । मन वालीजइ आपणौ रे, ए छै एक उपायो रे । ७ । ध० । संयम थी सुख पामीय रे, न पड़ीजै प्रभवास। अजरामर पद पामियै रे, लहीयै लील विलासो रे। ८।३०। सदगुरुनी देसण सुणी रे, प्रतिबूधउ धनदत्त । पोतानी ऋद्धि परिहरी रे, परिहऱ्या पुत्र कलत्रो रे । । । ध० । वयराग मांहे आवी रे, जाण्यौ अथिर संसार । चढ़ते परणामे चढ्यउ रे, लीधउसंजम भारो रे । १०। ध०। धनदत्तसाध भलउ थयउ रे, सफल कीयउ अवतार । समयसुन्दर कहै साधनइ रे,नित माहरउ नमस्कारो रे ।११।१० __ [सर्वगाथा १५२ | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनदत्त श्रेष्ठि चौपई] [११६ ढाल (९)राग-धन्यासिरी, भरतनृप माव सँ ए, एहनी गुरूनी सीख माहे रहइए, सांभलइ सूत्र सिद्धान्त । संजम सूधुं करे ए, धनदत्त नामै साध । सं०। विनय वेयावच पणि करइ ए, ध्यान धरइ एकान्त । १ ।सं। खिण परमाद करइ नहीं ए, आतापना करइ नित्य । सं। करम खपावइ आपना ए, साधजी बोले सत्य । २। सं०। अति कठोर क्रिया करइ ए, तप करइ आकरा तेह । सं० । करम थकी छूटण तणउ ए, सही उपाय छै एह । ३ । सं० । अनित्य भावना भावतां ए, ऊपनु केवलज्ञान । सं०। अनुक्रमि शिव सुख पामीयउए, व्यवहार सुद्धि निदान । ४ ।सं० साध तणइ गुण गावतां ए, जीभ हुयइ पवित्र । सं०। सांभलतां सुख संपजइए, दरसण दीठा नेत्र । ५ ।सं०। मसकति नं फल मांगीयइ ए, धनदत्त साधनइ पासि । सं०। तुम्हे पाम्या ते आपज्यो ए, मुझमन पूरिज्यो आस । ६। सं० । संवत सोल छिन्नू समइ ए, आसू मासि ममारि । सं० । अमदावादइ ए कह्यौ ए, धनदत्त नउ अधिकार । ७। सं०। श्री खरतर गच्छ राजीयउए, श्री जिनचन्द्र सूरीस । सं०। प्रथम शिष्य जगि परगड़ाए, सकलचन्द्र तसु सीस। ८। सं०। समयसुन्दर संबंध काउए, जिनसागरसूरि राज । सं० । भणतां गुणतां भाव सुं ए, सीझे वंछित काज । सं०।। ॥ इति व्यवहार शुद्ध विषये धनदत्त श्रेष्टि चौपई ॥ .. सर्वगाथा १६१ ग्रन्थाग्रन्थ श्लोक २१८ संवत् १७७८वर्षे मिति चैत्र सुदि २ दिने ईसाभईखान मई कोटेलिखतं । श्री अभय जैन ग्रन्थालय प्रति नं ८९/४३०० पत्र ४ पंक्ति १८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समयसुन्दरोपाध्याय कृत श्री पुण्यसार चरित्र चउपई ॥ दहा सोरठा ॥ समरू श्री सरसत्ति, सद्गुरू पिण सानिध करउ । आपो वचन उकत्ति, कहुं कथा कल्लोल सु॥ १ ॥ पुण्य करउ पुण्यवंत, जिम सुख पामउ जगत मई। अविहड़ एह अनंत, सुख साता द्यइ सासता ॥ २ ॥ पुण्य कीयो परलोकि, मन शुद्धइ जिण मानवी । थिर थापइ बहु थोकि, विद्या वली वरांगना ।। ३ ॥ उत्तम कुल उतपत्ति, लहइ लील लवणिम सदा । पुण्यसार सुपवित्त, सुणिज्यो कथा सुभाव सु ।। ४ ।। ढाल (१) राग-रामगिरी जंबूदीप लख योजन मान, पवित्र भरत क्षेत्र परधान । नगर गोपाचल छइ गुण निलउ, तिहां पृथिवी तरुणी सिर . तिलउ ॥ १ ॥ गढ मढ मंडित गुणह निधान, सरस कूआ सुथरा सब थान । वन उपवन वाड़ी वावड़ी, पुण्यसाल जिहां बहु पावड़ी ।। २ ॥ दीसइ दरसाऊ देहरा, सुन्दर सुघट पहुवि सेहरा। चउरासी मांड्या चउहटा, सखरा कीजइ सउदा सटा ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुण्यसार चरित्र चउपई ] [१२१ न्यातवंत नरपति छइ जिहां, कुबुद्धि कुरूप न दीसइ किहां । सुखी लोक बहु रिद्धि समृद्ध, पुहवी मांहि अछइ परसिद्ध ॥ ४ ॥ धरमवंत तिहां धनवंत, सरल सहावी सदा जसवंत । पर उपगारी बहुत पडूर, सेठ पुरंदर वसइ सनूर ॥ ५ ॥ पतिभगती गुणवती दयाल, सतीय शिरोमणि रूप रसाल । पुण्यसिरी इण नामि पवित्र, वारू विकसित वदन विचित्र ॥ ६॥ पतिव्रता पर उपगारिणी, रिषि भगवंत तणी रागिणी। शुभ आकृति नइ सोभागिणी, जणणी नारि रतन ए जणी ॥ ७॥ वचन कीजइ किता वखाण, मानइ सेठ लहइ बहुमान । दूषण एक पड्यउ देहमइ, गुणवंत सुत छइ नवि गेहमइ ।। ८ ॥ यतः गेहंपि तं मसाणं, जत्थ न दीसइ धूलि धूसिरीया * आवंति पडंति रडवडंति, दो तिन्नि डिंभाई ॥१॥ सुत विण न रहइ घर नउ सूत, पृथिवी मांहि मोटा पूत । सूनउ घर दीसइ सुत विना, कान निसुणी लोकोक्ति कना ।।६।। यतः अपुत्रस्य गृहं शून्यं मुख शून्यं अनेत्रता - मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्व शून्यं दरिद्रता ॥२॥ राति दिवस सुत चिन्ता रहइ, करवत सरिखी कवियण कहइ । रामगिरी' ए पहिली ढाल, समयसुन्दर पभणी सुविसाल ": :.' !! ॥१०॥ [ सर्व गाथा १६ ] १ रामगिरी ए ढाल रसाल, पहिली पमणी ए सुविसाल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] [ समयसुन्दर रासपंचक ॥ सोरठा ॥ सुत नई वंछइ सेठ, सयण लोक पभणइ सुपरि। हीयउ करी नइ हेठि, नवी नारि परणउ नवल ।। १ ।। सुणउ सेठ चित लाय, परणउ तुहे म पांतरउ । सहु सयणा समझाय, परं' न परणइ ते प्रिया ॥ २ ।। प्रिया ऊपरि बहु प्रेम, नेह निगड़ बांध्यउ निपट । नारी दूजी नेम, परणेवा कीधी परत ॥ ३ ॥ सुणउ सयण सहु कोइ, दूजी परणी बहुत दुख । हमनइ बहु सुख होइ, अंगज हुइ जउ एहनइ ।। ४ ।। [सर्वगाथा २०] ढाल (२) सग केदारा गउड़ी । सगुण सनेही रे मेरे लाला। सयण कहइ सुणि सेठ विचारी, करहु उपाय लगइ काई कारी। मंत्र तंत्र बहु मूल महंत, यक्ष यजन कीजइ वलि यंत ॥ १ ॥ जिण विधि पुत्र हुवइ जयकारी, भाजइआरति मन नी भारी। करउ उपाय एह करुणा पर, अम्हनइ सुख होवइ अपरंपर ॥२॥ सेठ कहइ सुणिज्यो सहु कोई, होम प्रमुख विधि भली न होई । समकित दूषण लागइ सबलउ, पाप बहुत मिथ्यामत प्रबलउ ॥ ३ ॥ एक करेस्यु सही उपाय, चंगइ चित पूजिसु चित लाय । कुलदेवी नइ करी प्रणाम, कहिस्यइ देव हुस्यइ मुझ काम ॥४॥ १ सुगुण सरूपा माणसां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुण्यसार चरित्र चउपई ] [१२३ खरइ चित्त करीय वखान, सुत निमित रहइ सेठ सुजान । अन्य दिवस आराधइ देवी, सूधइ मनि पूरव जे सेवी ॥५॥ आराध्यां विधि सुं ते आवी, कहि हो सेठ बात छइ काई। पूरमन ईहित परतक्ष, देवि कहइ सुणिजे तूं दक्ष ॥ ६ ॥ कहइ सेठि सुणि तूं कुलदेवी, सदा सदा पूरवजे सेवी। हिव तुझ कुण मनिस्यइ हित करि, सुणजे वात विचारी सुभपरि ॥ ७ ॥ मया करी मुझनइ सुत आपो, कर कर्म दुःकृत ए कापो। देवि कहै सुणिज्ये द्युति मंत सुत अनोपम हुस्यइ तुझ संत ॥ ८॥ धर्म करतां विधि सुं घीर, कितरह कालि गयां वड़वीर । इम कहि देवि हुइ ते अदृष्ट, ईहित फल्यु सेठि नै इष्ट ॥ ६ ॥ आसाहुइ सेठ नइ अधिकी, सही पुत्र हुस्यइ मनसा सुध की। कही' ढाल दूजी केदारा, अनुपम गउड़ी सहित उदारा ।। १० ।। [सर्वगाथा ३०] ॥ सोरठा ॥ अधिक पुण्य जीव एक, अवतरियउ उत्तम घरइ। वखतवंत सुविवेक, पुण्यसिरी कूखइ पवर ॥ १ ॥ सुहणउ लाउ सुजाणि, चंद बदन चंदा तणउ । वारू करू वखाण, जुगत संघातइ ज्योति स्यूं ॥ २ ॥ १ समयसुन्दर ढाल बीजी केदारा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] [ समय सुन्दर रासपंचक अनुक्रमि पुत्र उदार, जनम्य उच्छब कीया अपार, सेठ पुरंदर सरल मति ॥ ३ ॥ जननी 'जुगति सुं । पुण्य करी परधान, आयउ पुण्य पायउ पुण्य प्रमाण, प्रगट नाम दूहा घरइ अधिक । पुण्यसार इति ॥ ४ ॥ तणइ परमाण पंच धाय पालीजतउ, पुण्य मात पिता वल्लभ महा, सुंदर सहज सुजाण ॥ ५ ॥ [ सर्व गाथा ३५ ] ढाल (३) राग - आसा, राजा नी कुमरी ए चाल । आठ वरस नुं अनुक्रमइ रे, पुत्र हूओ परधान । मात पिता मन रंग सुं, मुंक्यउ पढिवा बहुमान रे ॥ १ ॥ सुंदर सोभागी । वाइ रे विधि स्युं वड़भागी, साल भइ रे | सुं तिणि नगरी निवसइ तिहां रे, रतनसार रिद्धिवंत । सुता तेहनी सुन्दरी रे, रत्नवती रूपवंत रे ॥ २ ॥ सुं० ॥ ते पण भणइ सदा तिहां रे, बुद्धिवती बलवंत | पढतां ते पुण्यसार सुं रे, होड करइ हठवंत रे ॥ ३ ॥ सुं०॥ अन्य दिवस अलगी करी रे, पभणी ते पुण्यसार । हे सुंदरि सुणिजे सही, तुं वारू एक विचार रे ॥ ४ ॥ सुं -नरनी होड न कीजीयइ रे, नर निंदियइ न कोइ । नारि होइसि नर तणी हे, जुगति करी नइ जोइ रे ||५|| सुं० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुण्यसार चरित्र चउपई ] [१२५ तड़कि करि बोलइ तिका रे, सुण मूरख सुलताण । नारि होइसि पुण्यवंत नी, गिण्यं तुझ नइ नवि ग्यान रे ॥६सुं॥ पुण्यसार बोल्यउ पछइ रे, सुणजे सहीय सुजाण । नियतइ नर सूझइ नहीं रे, परणु जे तुझ पराणि रे ॥७॥सुं०॥ नारि कहइ सुणि नीगुणा रे, नेह जोरइ नवि होइ। वली पुरुष वनता तणा, तूं रीस करीनइ रोइ रे ॥८॥सु०॥ कहइ कुमर सुण कामनी हे, जो परणुं तुझ जोर । दास करूं सब देखतां, कीजइ काहे बहु सोर रे ।।।।सु०॥ बोलइ बाला बोल९ रे, गहिला म करे गर्व। सुहणइ परणण मइ सही, सउंस कीधउ तुझ नइ सर्व रे ॥१सुं० वाद्या बेवे ते वली रे, विषमा बोल्या बोल । ढाल तीजी ढलती कही, आसा मिश्रित सुं अमोल रे॥११॥सुं०।। [सर्व गाथा ४६] ॥ सोरठा ॥ आप आपणइ गेह, वाद करी आव्या बिन्हे । दाधउ वचने देह, पुण्यसार प्रमदा तणइ ॥१॥ किउ सरिस्यइ मुझ काज, चिंता बहुली चित्त मई। अन्न न खाऊ आज, ऊग मूंग सूतउ अधिक ॥२॥ सी चिन्ता सुत राज, पूछ्यउ सेठ पुरंदरइ । लोपी मन नी लाज, बोले वलतो बोल ते ॥३॥ १ ढाल तीजी आस्या मिश्र में समयसुंदर कहै अमोल रे। ... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] [समयसुन्दर रासपचक तउ तूं सुणि हो तात, जउ मुझ वंछइ जीवतउ । रतनसार नी राति, पुत्री परणावउ प्रगट ।। ४ ।। [ सर्व गाथा ५०] ढाल (8) राग मारू, चाल-वालुं रे सवायो वयर हुं माहरो । सुत नइ तात कहइ सुणिजे सही रे, अजी तुं बाल अयाण । तरुण पणइ परणावेस्युं तनइ रे, सुंदर सहज सुजाण ॥ १॥ बोलइ तात सुणउ मुझ वीनती रे, अधिक विद्या रे अभ्यास | करि हो कुमर कुतूहल परिहरी रे, अम्ह मनि बहुत' उल्हास ।२। कुमर कहइ करिस्युं तुम्हारो काउ रे, तरुणी मागउ तेह । तउ हुं जीमुं तात सुणो तुम्हे रे, दुख भरि दाझइ देह ॥३॥बो॥ सुत समझावी सेठ तिहां सही रे, जीमाड्यो जीव प्राण । मांगण चाल्यउ मारगि मल्हपतउरे, साथ ले सयण सुजाण ॥४॥ रतनसार पूछइ मनि राग सुं रे, किम आव्या किण काज । भाषउ हित करि भाव धरीभलउजी, आपण आव्या आज ॥३॥ रतनवती हिव आपउ रावली जी, बेटी बहु बुद्धिवंत। रतनसार रलीयायत थई कहइ रे, गरूआ थे गुणवंत ।।६।बो मानीता थे नगर महीपतइ जी, आपण मांगी रे आइ। मइ बेटी दीधी हिव माहरी जी, कालखि नाही काइ ॥णाबो। बेटी वचन सुणी ते बाप नुं रे, पिता नइ ऊभी रे पासि । तात भ्रात सुणिज्यो सहु को तुम्हे जी, बोलइ वंचन विलास ॥८॥ १ अधिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुन्यसार चरित्र चउपई ] चउथी ढाल कही चिति चंग सुं जी, मारू सांभलतां' सुख खाता संपजे जी, आणंद [ १२७ रागणि मांहि । अधिक उच्छाह || || [ सर्व गाथा ५६ ] ॥ सोरठा ॥ सुणिज्यो तात सयाण, बोलइ रतनवती वचन । पावक पइससि प्राण, पुण्यसार परणण परत ॥ १ ॥ मन महि चितइ एम, सेठ पुरंदर वचन सुणि । कहउ जुगति मिलइ केम, ए बाला दीसइ अधिक ।। २ ।। धुरि थी जे हुवइ धीठ, तरुण पणइ तरुणी तिका । नहीं रहइ ते नीठ, वारी थकी वरांगना ॥ ३ ॥ मुझ सुत चिंतामणि, मन ही मइ रहिस्यइ महा । तपइ घणुं ते तनि, एकरुखी न चलइ अवनि ॥ ४ ॥ [ सर्व गाथा ६३ ] Jain Educationa International ढाल (५) राग - मल्हार, नणदल री । रतनसार बोलइ रही, सुणिज्यो सेठ सुजाण हो साजण । मुग्धा पुत्री माहरी, करइ नहीं कछु काण हो साजण ॥ १ ॥ सुणि तुं वचन सुहामण, रंगि बोलइ ते रसाल हो साजण । समभावी तुम्ह सूंपिसुं, बाल बुद्धि ए बाल हो साजण ॥ २ ॥ दीधी मई तुम्ह दीकरी, निपट थाउ थे निचित हो साजण । तुम्ह सुतपरस्य तिका, करिस्यां विधि सहु कंत हो सा० ॥३॥ १ समयसुंदर कहै सांभलतां सदा जी । For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] . [ समयसुन्दर रासपंचक सेठ पुरन्दर साथस्युं, आवइ घरि उछरंग हो साथ सुत बोलावइ सकति स्युं, बोलइ वचन सुरंग हो सा० ।।४||सुगा कहीय सहु कुमरी तणी, बात वली ते विशेष हो सा० सांभल पूत सुलक्षणा, तेहगें अधिको तेष हो सा० ॥५॥ ए जुगती जोड़ी नहीं, नेह रहित निटोल हो सा० उचित नहीं अंगज तुनइ, विख्या बोलइ बोल हो सा०॥६॥ यतः कुदेहां विगत स्नेहां गृहिणी परिवर्जयेत् । अण रचता०१ हीयड़ा नुं हेजालुओ०२ इत्याधु क्तम् पुण्यसार पभणइ पछी, हठ करि कीधी होड हो सा० तात तुरत सुणिज्यो तुम्हे, परण्या पूजइ कोड हो सा० ॥७||सुंगा अवसर उपाय न उपजै, कुलदेवति थी काम हो सा० सरिस्यइ एह सही सदा, जागिस्युं हुं बहु जाम हो सा० ॥८॥ आराधइ अति भाव सुं, विधि पूरव वड़ वीर हो सा० आखइ देव प्रतइ इसुं, धरि ते मनि बहु धीर हो सा० ॥६ ॥ दीधो देवि दया करि, पिता प्रतइ सुत सार हो सा० .. करीय कृपा सुकलत्र नी, पूरि मनोरथ पार हो सा० ॥१०॥सु०॥ उठिसि हुँ इतरइ कीयइ, नहीं तर जीमिवा नेम हो सा० जो पूरिसि नहीं जामिनी, काउ कर्यउ मुझ केम हो सा० ॥११॥ कठिन प्रतिज्ञा ते करी, बइठउ देवी बारि हो सामिणि। पांचमी' ढाल पूरी थई, मन सुद्ध रागमल्हार हो सा॥१२||सु० सर्व गाथा ७५], १ समयसुन्दर ढाल पंचमी कीधी राग मल्हार । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुण्यसार चरित्र चउपई ] ॥ सोरठा ॥ इम करि इक उपवास, कर्यउ कुमर कौतुक करी पुण्य प्रमाणइ पासि, आवी देवि उतावली ॥ १ ॥ वच्छ म करि विषवाद, सरिस्यइ तुझ कारिज सही समऱ्यां देसुं साद, तूं समरे मुझ नइ तुरत ॥ २ ॥ हरषित हूउ अपार, पुण्यसार कीयो पारणो । सेष कला सब सार, सीखइ सही सनेह सुं ॥ ३ ॥ पढ्यउ कला पुण्यसार, आव्यउ जोवन अनुक्रमइ । पूरब करम प्रकार, दुष्ट व्यसन लागो द्यूत नउ ॥ ४ ॥ मात पिता मन रंग, कुमर न वरज्यउ तिहां कीयइ । सदा फिरइ ते संगि, जूआर्या [ १२६ मांहे जुड्यउ ॥ ५ ॥ [ सर्व गाथा ८०] ढाल (६) राग -- केदारा गौड़ो, चाल - कपूर हुवइ अति ऊजलो जी एम करतां तिण एकदा जी, हार्यो राणी हार | लाख मूल लक्षण भलउजी, अनुपम अधिक उदार ॥ १ ॥ रे नंदण सुणि तुं सीख सुजाण, तूं तो न करइ केहनी काण रे नं० राजा मागइ रंग सुं जी, आपड अम्हनउ हार सेठ जाइ घर सोधीयउजी, लाभइ नहीय लिगार ||२|| रे नं० ॥ जाण्यउ तिणि जुगत करी जी, सहीय लीयो पुण्यसार । गूझ करी नइ गोपव्यउ जी, पर कुण लहइ तसु पार || ३ | रे नं०। सेठि इसु चितइ सही जी, पुत्र हुउ प्रत्यनीक | जतन करी जायो हुतो जी, लाई इण मुझ लीक ॥ ४ ॥ रे नं० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] | समयसुन्दर रासपंचक हाउ हार तिrs हुस्यइ जी, सहीय जुआ साथ । काटिस्यु घर थी कपूत नइ जी, हटकी झाली हाथि ||५|| रेनं०|| इम चितवि नइ आवियउ जी, हाटइ करीय हजूर । पुण्यसार नइ पूछीयउजी, कोपइ आंखि करूर ॥ ६ ॥ रे नं० ॥ साची बात कही सहू जी, पुण्य प्रबल पुण्यसार । store सेठ कहइ वली जी, हितशिक्षा हितकार ||७|| रे नं० || भूषण आणी भूप नो जी, आवइ इण घर मांहि । वचन बहु विरुवा वली जी, बोलइ झाली बांहि ॥ ८ ॥ रे नं० ॥ कंठ ग्रही कोपइ करी जी, काठ्यउ कुमर कुवेलि । अमरस कुमर नइ ऊपनो जी, तिणि वेला तिणि मेलि || ६ ||रे नं० करिस्युं करम नो पारिखो जी, इम चितवि अणबोल | नीकलियो पड़ती निसा जी, तेहनो पुण्य अतोल ||१०|| रे नं०|| राति पड़ी रवि आथम्यो जी, पसर्यो प्रबल अंधेरे । बड़ कोटर मiहे वस्त्र जी, निपट नगर नइ नेड़ि || ११||रे नं०|| कहीय केदारा गउड़ीयइ जी, अनुपम एही ढाल । छठ्ठी छलां मन हरइ जी, चोखइ चित्त रसाल ||१२||रे नं०|| [ सर्व गाथा ६२ ] ॥ सोरठा ॥ तुरत पुरदर तेथि, घरि आयो घरणी भणइ । कुमर न दीसइ केथि, गयो किहां गरूया धणी ॥ १ ॥ सेठ कहइ सुणि नारि, शिक्षा कारण मई सही । हिवणां आणे हार, कहि इम मई काढ्यउ घरा ॥ २ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुन्यसार चरित्र चउपई ] [१३१ तिणि वचनइ ततकालं, कुपी थकी कामिणि कहइ। बाहिर काढी बाल, तूं घर आयो किउं तुरत ॥३॥ जाई जोवउ जेथि, आणो इहां ऊतावलो। आयो नहीं सुत एथि, निरति करउ सब नगर मइ ॥४॥ दूहा ॥ गाढि रोषि गृहिणी कहइ, समरी सुत नइ सेठि । नगर मांहि निरखइ फिरी, दीरघ फाटी देठि ।। १ ।। पुण्यसिरी चिंतइ पछइ, मूरख हुं सुमहंत । किण वेला काढ्यउ घरा, कोप करी मई कंत ॥ २॥ पहिली मूरखता पणो, कीधी सेठि कुनीति । पति काढतां मई पछइ, राखी भली न रीति ।।३।। चिंता करती चित्त मई, बइठी घर के बार। कुमर तणो कहिस्युहवइ, वारू अधिक विचार ।। ४ ।। [सर्व गाथा १००] ढाल (७) राग-खंभाइती, सोहलानी कुमर उभउ हिव तिहां किणइ रे, देखइ देवति दोइ रे। वड़ ऊपरि वातां करइ रे, आणंद अधिकइ होइ रे ॥ १ ॥ थारे वारणइ सखि, कहउ काई बात विनोद नी जी, सुणइ कुमर सुजाण । एक कहइ आपे सखी रे, इच्छा फिरइ अपारो रे। चंद्र सहित राति चांदणी रे, अनुपम एह उदारो रे ॥२॥ थारे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] [समयसुन्दर रासपंचक दूजी इम कहइ देवता रे, फोकट फिरीया काऊ रे। तुरत तमासउ ह्वइ जिहां रे, जुगति करी आपे जाऊ रे, ॥३॥ एक कहइ कौतुक अछइ रे, पुर वलभी पुण्यवंती रे। सेठि वसइ तिहां सुदरू रे, धन नामइ धनवंती रे ॥४॥ थारे०।। नारि अछइ गुण(?धन)सुदरी रे, तसु पुत्री छइसातो रे। सकल कला गुण सोभती रे, वारू नाम विख्यातो रे ।शथारे। ब्रह्मसुदरि धनसुदरी रे, काम मुक्ति सुख कामो रे। भाग सुभाग सुसुदरी रे, गुणसुदरी गुण धामो रे ॥६॥थारे॥ वर काजइ तिण वाणियइ रे, आराध्यउ अति भावइ रे। गणपति देव गुणइ भयउ रे, मोदिक देइ मनावइ रे ॥४ाथारे० हरषित लंबोदर हुई रे, वचन कहइ ते विसालो रे । आज हुंती वर आविस्यइ रे, दिन सातमइ दयालो रे ॥ ८॥ निरत करइ दोइ नाइका रे, पूठे जे पुण्यवंतो रे। लगन तणी वेला लही रे, सही सही सुणि संतो रे ॥६॥थारे॥ पुत्री परणाजे पछइ रे, तेहनइ तू ततकालो रे। सात सुता ले सामठी रे, भलो अछइ तसु भालो रे ॥१०थारे॥ लंबोदरइ लखाईयो रे, कोई तेहनइ कुमारो रे। हरषित सेठ करइ हिवइ रे, उच्छव अधिक उदारो रे॥११॥थारे० दिवस सातमो देवता रे, आज अछइ सुखकारो रे। सातमी ढाल सुहामणी रे, रली खभाइत रागो रे ॥१२॥थारे॥ [सर्व गाथा ११३ ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुण्यसार चरित्र चउपई ] [१३३ ॥सोरठा ॥ वलभी नगरि विसाल, किसा अछइ कौतिक तुनइ । लंबोदर सुरसाल, सब कौतिक देखु सही ॥१॥ पढी मंत्र प्रधान, ऊखणीयो वड़ ते अधिक । आणी धर्यउ उद्यान, खिण मांहे वलभी खड़ो॥२॥ चाली तिहां चउसाल, नीपावी रूप नायिका। देवति बिन्हे दयाल, पुण्यसार पणि साथे चल्यो ॥३॥ ढाल (८) राग वेलाउल, ऊलालानी। लंबोदर कहइ लार, मंडप मंड्यौ अपार । मेली स्वजन महंत, सुता सहित सेठ संत ॥१॥ वाट जोवइ तिहां बैठो, आणंद अंग पइठो। तितरे देवति दोई, आंगणि ते आवेई ॥२॥ साथइ ते पुण्यसार, आव्यो हरख अपार । ततखिण धन सेठ तेह, दीठी सुंदर देह ॥३॥ जाण्यौ एही जामाता, सगलां मन हुई साता। आयो सहीय ते इह किण, भलु भणी दीयइ बइसण ॥ ४ ॥ सुणि तु चतुर सुजाण, जामाता हम जाण । लंबोदर थकी लहीयो, सात सुता वर कहीयो ॥५॥ इम कहि वचन उदार, आभ्रण बहु अपार । सेठ सहु पहिरावइ, पुण्य पसाइ ते पावइ ॥ ६ ॥ धवल मंगल धुनि गीत, करइ वधू कुल रीत । चउरी मंडीय चार, कन्या परणइ कुमार ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] [समयसुन्दर रासपंचक दीधा तिहां बहु दान, वाध्यउ अधिकउ ए वान । परणी नारि प्रधान, सुन्दर सात सुजाण ॥ ८ ॥ करइ विचार कुमार, अम्ह पिय काउ अपार । इहां हुँ आयो अजाण, प्रगभ्यउ पुण्य प्रमाण ।। ६ ॥ नहिंतर किम मुझ नाम', साचउ हूत सकाम । उत्तम लक्षण एही, दाखइ दोष न कोई ॥ १० ।। उच्छव करि घरि आण्यो, सजन सहु मनि मान्यो। साते सुन्दरि साथइ, महल अनोपम माथइ ॥ ११ ॥ बइठो ते बुद्धिवंत, पवर पल्यंक हसंत । पति पासेइ बइठी पीढे, साते सुन्दरि चीढे ॥ १२ ॥ प्रश्नपडूतर पूछइ, कला किती तुम्ह कु छइ । आठमि ढाल ऊलाला, राग रंगीलि रसाला ॥ १३ ॥ [सर्व गा० १२६ ] ॥ सोरठा ॥॥ कुमर कहइ सुविचार, सुणउ नारि सब श्रुत धरी। वदउ तुम्हे वार वार, मुझ मनि कुछु मानइ नहीं । १ । श्लोक एक सुविशाल, कुमरइ घाल्यो अति कठिन। बुद्धिवती ते बाल, तेह अरथ न लहइ तुरत । २ । पीछेइ ते पुण्यसार, वड़ जास्य पाछउ वही। इम चीतवइ अपार, पछइ किसी परि पहुंचिसु । ३ । अंगित नइ आकार, जाण्यउ किहां किण जाइसी। गुणसुन्दर गुणधार, भामनि भाव भरतार नउ । ४ । १ ताम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुण्यसार चरित्र चउपई ] [ १३५ अंगि चिन्ता तुम्ह अंगि करिवा नी इच्छा कुमर । ras ऊठ मुझ संगि, कुमरि कहइ इम ही कुमरि । ५ । हरखइ जोड़ी हाथ, अधोभूमि आव्या बिन्हे | लिखी गुणे करि गाथ, कुमर जणावण कारणइ | ६ किहां गोपाचल किहां वलहि, किहां लम्बोदर देव । आव्यो बेटो वहि वसहि, गयो सत्तवि परवी ॥ १ ॥ वल्लभ्यां गोपालपुरादागां परिणीय वधू सप्त पुनर्तत्र नियतेर्वशात् । गतोस्म्यहं ॥ १ ॥ पुनः सोरठा रागि, खरी खंति खडीयइ करी । भागि, अक्षर लिखिया एहवा । ७ । [ सर्व गाथा १३७ उक्त मिलने १३६ ] रामा तणइ जु भीति तणइ इक ढाल (९) राग - मल्हार जीहो गुणसुन्दरि गजगामिनी लाल सखर सुभागिन तेह | जीहो वाच्यो नहीय विशेष स्युं लाल लाजंती गुण गेह । १ । सहुजन सुणिज्यो सरस सम्बन्ध । जीहो आणंद होवइ अति घणउ लाल, धर्म करउ तजि धंध | जीहो कुमर कहइ कुमरी सुणो लाल, बइठो थे घर बारि । जो सुख तनु चिंता करि सही लाल, आविस हुं अवधारि |२| जीहो निराबाध निकटइ रह्यउ लाल, नवि थाउ निरधार । जी हुं जाइ अलगो हली लाला, तूं रहि तुरत दुवारि । ३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] [ समयसुन्दर रासपंचक जीहो इम कहि नै ऊतावलो लाला, गयो ते वड़ गोठ | जीहो कोटर मांहि कुमार जी लाला, बइठो ते पुण्य पोट । ४ । जीहो ते देवति आवी तिहां लाला, बइठी वड़ परि वासि । जीहो ऊपाड्यो आनंद सुलाला, आण्यउ मूल आवासि । ५ । जीहो पीछs सेठ पुरंदरू लाला, भमी भमी पुर भूमि । जीहो थाकउ अति तिण थानकइ लाला, आई बइठो इकठामि | ६ | जीहो तितरइ राति तुरत गई लाला, नाठउ निपट अन्धेर । जीहो सहस किरण सूर ऊगतउ लाल, बाजइ भूगल भेरि । ७ । जीहो कोटर थकीय कुमार जी लाल, नीसरियो निरदंभ | Maitri at अलंकृत स्युं जड्यो लाल, अनुपम एह अचंभ | ८ | जीहो दीठा दरसण तात नो लाल, पुण्यसार पुण्यवंत । जीहो पीछs पेes परगड़उ लाल, सेठ पुरंदर सन्त । ६ । जीहो अद्भुत शोभा अति वण्यो लाल, दीठउ पुत्र दयाल | जीहो विस्मय चिति वछ वछ कही लाल, तात मिलइ ततकाल जीहो आलिंगी घर आपणइ जी लाल, आण्यो अधिक आनंद जो पुत्र पती पेes विन्हे लाल, पुण्यसिरी पुण्य कंद । ११ । जीहो खुसी थई खोले लियो लाल, प्रेम संघातइ पुत्र । 'जीहो पुण्यसिरी पूछइ पछइ लाल, विधि सु बात विचित्र । १२ जीहो लिखमी एह किहां लही लाल, कहि तूं पूत कुमार । जीहो कुमर कही सब ते कथा लाल, माता पिता सुणइ सार १३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुण्यसार चरित्र चउपई ] [१३७ . जीहो सुणी बात सोहामणी लाल, अहो अहो पुण्य' संसार। जीहो नवमी ढालइ निउंछणा लाल, माता कीधा राग मल्हार । १४ स० [सर्वगाथा १५३ ] ॥ सोरठा ॥ अधिक वड़ो अपराध, मइ कीधो मतिहीण मह । गरूयो गुणे अगाध, खमिजे वछ ते खरो ॥१॥ शिक्षा हेत सुजाण, कहु वचन तुझनइ' कुमर । पुण्यसार तु प्राण--जीवन जनक कहइ सदा ॥२॥ सुत बोलइ सुणि तात, शिक्षा एह सुहामणी । संपद नारी सात, हेतु इणइ मुझनइ हुइ ॥३॥ आण्या जे अलंकार, छूतकार नै ते दविण । हरखी दीधं हार, राजा नो राजा प्रतइ ॥४॥ द्यूत विसन करी दूरि, पुण्यसार प्रणमी पिता। हाटइ सहु हजुर, बइठउ बाप तणइ कन्हइ ।।। वणिज अनइ व्यापार, करइ सदा कुमर आपणा। चालइ शुभ आचार, कथा कहुँ हिव पाछली ॥६॥ [सर्वगाथा १५६] ढाल (१०) राग-मारवणी, रुकमणि राणी अति विलखाणी, एहनी गई पाछी घरि ते गुणसुन्दरि, बहिना नइ कहइ वृतांत जी। सुन्दर सगुण सरूप सुलक्षण, किहां छोडी गयउ कंत जी ॥१॥ १ पुण्यवंत पुण्यसार, २ मुझनइ, ३ अमिय रसायण अग्गली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] . [ समयसुन्दर रासपंचक प्रीय आवो रे पाछा पुण्यवंत, वलि वलि विलवइ नारी रे। साते सुन्दरि साहिब तइ सब, निपट छोड़ी निरधारी रे ॥२॥ किण अवगुण छोडी तई कंता, अम्हनइ अवगुण आखउजी। दया करी द्यउ दरसण कृपा पर, रोस रती नवि राखउजी ॥३॥ घड़ी दुहेली तुम्ह विण घर में, विरह वियापइ देहजी। पूरी प्रीत न पाली प्रीतम, छयल न दाखउ छह जी ॥४॥ चंदो चंदन नइ चित्रसाली, चरणउ चूनडि सार जी । चूडउ चीर अनइ चतुराई, अम्ह तनि लागइ अंगार जी ॥५॥ साहिब सार करउ अबलानी, अम्ह हिव कुण आधार जी। भरण पूरण भरतार करइ सब, अस्त्री नइ आथि भरतार जी ॥६॥ देवइ दुख सबल ए दीधउ, पतिविण न रहइ प्राण जी। किउं करि छोड़ि गयो अम्ह कंता, जुगति तणउ तूं जाण जी ॥७॥ करि बहु रुदन सप्तइ कुमरी, अबला पड़इ अचेत जी। सीतल पवन सचेत करी सब, नीर वहइ बहु नेत जी ॥८॥ पुत्री तणउ विलाप सुणी पितु,आयो तिण आवासि जी। रंग तणी वेला स्युरोदन, पति किउ नहीं तुम्ह पासि जी ॥६॥ एह वृतान्त कहो मुझ अब, कहइ सुता कथा तेह जी। परदेशी परणी ते पापी, नासि गयो मत तेह जी ॥१०॥ पकड़ी थे नवि राख्यउ किउं पति, नासतो निरभीक जी। किसी कहुं हिव बात कुमरनी, ठउड़ कही नवि ठीक जी ॥११ रूप रंग रामा नो देखी, सब भूलइ संसार जी। तुम्ह रूपे नवि भूलो ततखिण, विरूउ तुम्हाविकार जी ॥१२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुण्यसार चरित्र चौपई ] [ १३६ अथवा अंग तणा आभूषण, ले गयो लाइ न वार जी । व्यसनी कोइ वदीतो वंचक, इणि लिखीये आचार जीं ॥१३॥ मारवणी ढाल मांहे मीठी, दसमी ढाल दयाल जी । कीवी प्रबल कुतुहल काजे, सुणिज्यो सरस रसाल जी || १४ || [सर्वगाथा १७३ ] ॥ दूहा ॥ दया करी देवइ दीयो, करइ जो एहवा काज । पुत्री पूरब कर्म नी, प्रगटी दुःकृत पाज ॥१॥ करत कथा कुमर रली, नवि जाण्यउ थे नाम । अण लाइ हिव अंगजा, किम सरिस्यइ तुझ काम ॥२॥ [ सर्वगाथा १७५ ] ढाल (११) राग --- गउड़ी, आदर जीव क्षमा गुण गुणसुन्दर बोलइ गहगहती, लिख्यो अछइ तिण लेख जी । भीत तइ भाग भरतारइ वाच्यउ मई न विशेष जी ॥ १ ॥ सुणउ तात सुन्दर सोभागी, करम क्रतूत कर्म तणी गति लखइ न कोई, देव करइ ते प्रगट हुयउ प्रभात ततखिण, अक्षर लह्या अनूप जी । वाची नइ वखाण कियो तिणि, चटपट लागी चउप जी ॥३॥ तात ते ततखिण ते सुन्दरि, भाखइ भीभल नयण जी । नगर गोपाचल थी तेही नर, आयो ते इहां गइणि जी ||४|| किणही कारण करम विसेषइ, इहां आयो राति मांहि जी । तुझ दीन्ही परणी नइ ततखिण, वली गयो तिण वाहि जी ॥५॥ अलेख जी । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only देख जी ||२|| Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] [समयसुन्दर रासपंचक तिण कारण मुझ तात तुरत थे, वारू द्यउ नरवेश जी। .. गोपाचलपुर जाइ जुगति सु, देखसु पति नो देश जी ॥६॥ जाई जोस्यूं जनक धणी नै, अवधि अछइ षटमास जी। निरति कीयां नवि लाभु पति ने, पावक पइसिसु पास जी ॥७॥ कर परतगन्या चाली कुमरी, पिता दियो पति वेश जी। मेली मोटो साथ महीपति, आई अधिक निवेश जी ॥८॥ पुर गोपाचल पहुता प्रगटी, करइ ते वणिज कुमार जी। गुणसुन्दर नामइ गुणवंतो, अति दाता सु उदार जी ॥६॥ पुहवी मांही र्थयो ते प्रगटो, सुन्दर सहज सरूप जी। नगर मांहि ए सहीय नगीनो, भलो भलो भणइ भूप जी ॥१०॥ क्रय विक्रय ते करइ विचक्षण, पुण्यसार सु प्रीति जी। विविध विनोद करइ बातां वलि, चालइ ते इक चीति जी ॥११॥ अन्य दिवस दीठो आवतउ, गुणसुदरि गज गेलि जी। रतनसुदरी राग धर्यो अति, मन मई अपणइ मेलि जी ॥१२॥ तेड़ी तात नइ तुरत कहइ ते, मन मान्यो मुझ कंत जी । परणावउ गुणसुंदर परगट, खरी अछइ मन खंत जी ॥१३॥ सेठइ जाण्यो भाव सुता नो, तुरत गयो तसु पास जी । कर जोड़ी नइ करइ वोनति, वारू वचन विलास जी ॥१४।। गोडी रागइ गिणज्यो गुणवंत, एह इग्यारमी ढाल जी । कहिस्यै वात तिकाहुँ कहिस्युं, सुणिज्यो सजन सुहाल जी ॥१५॥ [सर्वगाथा १६०] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुण्यसार चौपई ] ॥ सोरठा ॥ गुणसुंदर गुणधार, सुणि तु एक वचन सही । सुता अम्हारी सार, तुझ परणण वांछइ पवर ||१|| चिति चितवइ कुमार, अहो कतूहल ए अधिक । भामिनी नइ भरतार, महिला जुगल तणउ मिलइ ||२|| वनिता वंछइ एह, परणेवा मुझ नइ प्रगट | रहस्यै नहि ए रेह, संबंध एह नहिं सारिखउ ||३|| कहुं हिव ऊतर कोई, वारू इणि कारण वली । दुख होस्यइ हम दोई, नवि मिलस्यइ जो नाहलो || ४ || कहइ विचार कुमार, सुणिज्यो सेठ सहू सहू । ए मोटा अधिकार, पिता न जाणइ पवर ||५|| ॥ दूहा ॥ हिवणा ते दूरइ हुआ, तिण कारण तू तेड़ि । कोई कुमार कलानिलउ, निज पुत्री द्यइ नेड़ि ||६|| रतनसार कहि राग धरि, सुणि हो कुमर सुजान । मुझ पुत्री मनि तूं वस्यउ, अब कहउ क्युं घरं आनि ||७|| [ सर्व गाथा १६७ ] [ १४१. ढाल ( १२ ) राग मल्हार, नारी अब हम मोकली, एहनी, कुमरइ मान्यो कथन ते, अति आग्रह सु अपारो रे । उच्छव करि घर आणियो, परणाई सुता सारो रे ॥१॥ अचरिज एहवउ अब सुणड, परणइ प्रमदा प्रेमो रे । सुणतां आनंद संपजइ, न मिटइ विधि लिख्यो नेमो रे ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] [समयसुन्दर रासपंचक पुण्यसार पाछइ सुन्यो, परणी परतिख तेहो रे । कुलदेवति नइ इम कही, दीकरा अब कांइ मरइ तूं आलो रे॥३॥ कहइ कुमर कुलदेवि नइ, महिला मांगी मई मातो रे । परणी ते परदेसीयइ, तिण करुं आतमघातो रे ॥४॥ अ०॥ कहइ देवति सुण कुमर तु, मइ दीधी मतिमंतो रे। ते होस्यइ वछ ताहरी, नारी निपट नितंतो रे ॥५॥ कहइ कुमार कृपापरू, पर रमणी नवि पेखू रे। . ए परणी हिवणा अछइ, किसु करू किसु लेखुरे ॥६॥ कहइ कुलदेवी किसु करूं, बार बार वछ आल रे। ते तरुणी होस्यइ तिहारे, ते सुणज्यो ततकाल रे ॥॥ तेह वचन मान्यउ तिणइ, देवी तणा दयालो रे । तिण अवसर होस्यइ तिहां, ते सुणज्यो ततकालो रे ॥८॥ गुणसुन्दर गुणसुन्दरी, चिंतहि मनहि मझारो रे । अवधि अम्हारी अब थइ, नाह न मिल्यउ निरधारो रे ॥६॥ कठिन प्रतिज्ञा ते करी, चाली हुं चउसालो रे। पावक पइसिस हुं हिवइ, झलझलती बहु झालो रे ॥१०॥ इम चिंतवि ते वनि आवइ, काठ करइ इकठाई रे। लोक मिल्या लख इम कहै, कुमर मरइ तु कांइ रे ॥११॥ सकल नगर मांहे ते सुणी, बात बडी बहु एहो रे। सारथपति मरइ ए सही, निरति नहीं किण नेहो रे ॥१२॥ भूप प्रमुख आया मिली, कहइ कुमार नइ एमो रे । काठभखण करइ काइ तूं, कहइ वृतांत छइ केमो रे ॥१३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुण्यसार चरित्र चौपई ] [ १४३ राग मल्हार मइ राखिज्यो; बारमी ढाल विसालोरे 1 हरख करी सुणिज्य हिवइ, आणंद अधिक रसालो रे || १४ || [ सर्व गाथा २१२] ॥ सोरठा ॥ राजादिक कहइ रंगि, किण आणा खंडी कुमर | अनि पइसि करि अङ्ग, कारणि किणि भसमी करइ || १ || कहइ कुमर सुणि राय, कुण आणा खण्डित करइ | इष्ट वियोग अपाय, कारण हू खंडित करू ||२|| नाखी ते नीसास, विरह वचन वदतउ सही । पावक केरइ पासि, आवइ अतिहि ऊतावलो ||३|| कहइ राजा छइ कोइ समझावइ एहनइ सही । लख मिलिया छइ लोइ, वारउ मरण थकी विदुर ||४|| नागरि कहइ नरिंद, पुण्यसार एहनइ प्रगट | कुमर छ सुखकंद, मोटर मित्र महंत मति ॥५॥ [ सर्व गाथा २१७ ] ढाल ( १३ राग जयंतसिरो, दूर दक्षिण कइ देसड़इ, एहनी राजा रलिआइत थई, आपइ तसु आदेस । शुभमति । पुण्यसार जाइ थे पूछउ, क्युं करइ कुमर किलेस शु० || २ || एह अचम्भा अति खरउ, जोवन वेस जोवान |शु० किण कारण काठ आदरइ, सही का ऊपनी सान शु० ||२|| पुण्यसार पूछइ पछइ, नेड़ो जई निसंक । शु० तरुणपण तु काइ तजइ, निपट शरीर निकंप शु० ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] [समयसुन्दर रासपंचक किण दुख मरइ कुमार तूं, वेदन कहि मतिमंत शु० कहइ तेह किणनइ कहुँ, साजन नहीं कोई संत शु० ॥४॥ दुख रह्या मुझ देह मई, ते किणि कह्या न जाइ |शु० कंठ हृदय आवइ कदा, वलि जावइ ते वाय शु०॥॥ यतः जासु कहीयै एक दुख, सोले उठे इकवीस । एक दुख विचमें गयो, मिले वीस बगसीस ॥१॥ सुणि कुमार दुखि सारिखउ, अम्ह तुम्ह एह अनन्त । रमणी मुझ पीहर रहइ, वलभीपुरी वसन्त ॥६॥ ए दुख मुझनै अति घणउ, हिव तुरत प्रकासि । [ तेह कहै मुझ प्रिय इहां, गोपाचलपुर वासि ॥७॥ हूं आगत तिण शोधिवा, पणि मुहलत पूरी होइ।] कुमर कहई तेहिज सही, जुगति करी नइ जोइ ॥८॥ तेह कहइ तुझस्युचली, तई तजी तोरण बार। गुणसुन्दरि नामइ गुणी, नारी हूं निरधार ॥६॥ कारण ताहरइ मइ कीयो, पति जी इतो प्रयास । हिव हरषित हुइमुझ दीयो, वेस जुवति बहु वास ॥१०॥ घर थी आणि घडी मांहि, आप्यउ वेस उदार । पहिरी वेस पवित्र ते, निकसी अपछर नार ॥११॥ बहूय वंदइ छइ तुम्हः भणि, पीछइ कहइ पुण्यसार। सुसरादिक सब नइ सही, कुमर कहइ नमोकार ॥१२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुण्यसार चरित्र चौपई ] [१४५ राजा पूछइ रंग सुं, किसउ वृतांत कुमार । शु० । पुण्यसार प्रगटो कियो, अपणो ते अधिकार ।। शु०।१३। ए० । विसमित हूआ वलि सहू, अचरिज एह अनूप । शु०। रतनसार रहिनइ कहइ, भलीय परइ सुणउ भूप। शु० । १४ ।ए। परणी जइ मुझ पुत्रिका, अबला हुइ ते आज । शु० । हिव एहनी गति कुण हस्यइ, सुणि राजन सिरताज । शु०१५।ए० ॥ सोरठा ॥ स्युं पूछइ हो सेठि, राजादिक कहइ रतन नइ । वनिता तेहनी वेठि, परणी तसु पुण्यसार पति ॥१॥ हरखित हुई कुमार, पुण्यसार वल्लभीपुरी। आणावइ अधिकार, सुन्दरि छए सामठी ॥२॥ आठे नारि उदार, आवी ते घर अंगणइ । आठे महल अपार, सूंप्या सेठ पुरंदरइ ॥३॥ सुख भोगवइ सुजाण, पुण्य जोग पुण्यसार ते। कोई न लोपइ कार, कुलनीतइ चालइ कुमर ॥४॥ इण अवसर गणधार, ज्ञानसागर गुरु आवीया। न्यानी निरतीचार, चारित पालइ चित्त सं ॥५॥ वाचइ बहु विस्तार, सेठ पुरंदर सरस मति । सुणइ देसणा सार, पुण्यसार सुं परिवर्यउ ॥६॥ ढाल (१४) राग-गउड़ी, चाल-प्रतिबूधउ रे, ज्ञानसार गुरु उपदिसइ सुणिसंतो रे, ए संसार असार सहु सुणो संतो रे। अथिर रिद्धि ए आउखउ सु० विणसत न लागइ वार स० ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] [समयसुन्दर रास पंचक दस दृष्टान्ते दोहिलउ सु० ए मानव अवतार ॥ स०॥ आरिज खेत अरिहंत नउ सु० धर्म सुणण गुणधार ॥ स० ॥२॥ सद्दहणा सूधी वली सु० करणो कठिन विचार ।। स० ॥ परम अंग परमेसरइ सु० कह्या कठिन ए च्यार ।। स० ॥३॥ दान धरम सब दुख दलइ सु० सील परम सिणगार ॥स०॥ तप तोड़इ क्रम आकरा सु० भावना मुगति भंडार ||साह।। कारमी ए काया कही सु० खिरइ एक खिण माहि ।स०॥ कुछित मल नी कोथली सु० सोलह रोगां सांहि ।।स०॥५॥ पाका पान ज्युं खिर पड़इ सु० अथिर अछइ ए काय ||स०॥ संझ राग सिरखी कही सु० जल बिंदु जिउ मंजाइ ।स०॥६।। बन्धु सही विहड़इ नहीं सु० पुत्र विहडइ पापयोग ।।स०॥ मित्र महेला मात जी सु० स्वारथ मिलइ संयोग ।।साणा तरु पंखी मेलउ तिसउ सु० एकठा आवी थाय ।स०॥ जनम मरण थी जीवनइ सु० राखइ नहीं को राय ।स०॥८॥ मरण थकी को नवि मित्र्यउ सु० धरतीपति छत्रधार ||स०॥ माल मुलक महिला तजी सु० अवसर भए अणगार ।६।। इम अनित्य सब जग अछइ सु० वरजउ विषय विकार ।।स०॥ अनरथ छइ तिहाँ अति घणउ सु० दुरगति ना दातार ।।स० ॥१०॥ धरम बिना सहु धंध छइ सु० पूत कलत्र परिवार ॥स०॥ सूधइ चिन्त ध्रम साचवउ सु० पामो ज्युं भव पार ।।स०॥११॥ ए उपदेश सुणी करी सु० प्राणी बहु प्रतिबुद्ध ॥स०॥ चवदमी ढाल रसाल सु० सरस गउड़ी राग सुद्ध ।स०॥१२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यसार चरित्र चौपई ] ॥ सोरठा ॥ पूछइ प्रश्न पडूरि, सेठ पुरन्दर धम सुणी । स्यु की पुण्य सूरि, पूरव भव पुण्यसार प्रभु || १ || सूरि कहइ सुणि सन्त, न्यानइ सब लाधी निरति । पूरब भव पुण्यवंत, सुणज्यो सहु पुण्यसार नो ||२|| पुरनीतइ परसिद्ध, कुल पुत्र कोइक हुंतउ । [ १४७ सरल सभाव सबुद्ध, संतति कुल उच्छिन्न सब ॥३॥ जुगति करी नइ जीपि, पाँचे इन्द्री पवर मति । सुगुरु सुधर्म्मसमीप, व्रत लीघउ विरमी भवा ॥४॥ ॥ दोहा ॥ सुमति पंच पालइ सदा, गुपति धरइ गुणवंत | काय गुपति खण्डन करइ, सुध नवि राखइ सन्त ॥ १ ॥ दंस मशा जब देहनइ, लागइ सबला लारि । कारसंग पूरउ नवि करइ, उडावइ बार बार ||२|| गुरु बोलइ मधुरी गिरा, सुणि हो शिष्य सुजाण । आवश्यक आराधतां, मोटउ दूषण माण || ३ || भव्य जीव भयभीत हुइ, सहइ परीसह सोइ । वेयावच गुरुनी करइ, करइ क्रिया मन धोइ ||४|| ॥ सोरठा ॥ मर सुर हूय महंत, सौधर्म शुभ ध्यान थी । दीप ते द्युतिमंत, भली परइ सुख भोगवइ ||१|| ढाल (१५) राग-धन्याश्री धर्म भलो छइ भावना एहनी, सुर सुख भोगवि न सही, सुणि सेठ अपार । ए अंगज तुम्हनउ थयो, पुण्य थी पुण्यसार ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] [समयसुन्दर रास पंचक पुण्य करउ भवि परगड़उ, परिहरि सब पाप । पुण्य प्रमाणइ देवता, आवइ घरि आप ॥२॥ ॥पु०॥ सुमति गुपति साते सही, पाली प्रवचन मात । सुख स्यं तिणि इणि ही सुखइ, परणी प्रमदा सात ॥३॥पु०॥ कष्टइ करि पाली काइकी, इम गुपति उदार । कष्टइ लाधी कामनी, सुणि सेठ विचार ॥४॥पु०॥ सुणि देसण संवेग थी, वारु मन वालि । सेठ पुरंदर सरलमति, दीख ग्रही दयाल ॥५॥पु०॥ श्रावक धर्म सूधउ ग्राउ, पुण्यसार प्रधान । अतीचार अलगा करी, पालइ पचखाण ॥६॥पु०॥ पुण्यसार वय पाछली, दुक्कर ल्यइ दीख । पुत्रादिक परिवार स्युं, सहु स्युं करि सीख ॥णापु०॥ चंगी विधि चारित धरी, वधतइ वर भावि । अणसण अंते ऊचरी, चोखइ चिति चावि ॥८॥पु०॥ मरण समाधि मरी करी, सद्गति गयो सोइ । प्रगट चरित पुण्यसार नो, लखिज्यो सब लोइ ।हापु०॥ शांतिनाथ जिन सोलमउ, तसु चरित चउसाल | ए मई तिहां थी उधयं उ, सम्बन्ध विसाल ॥१०॥पु०॥ संवत सोल तिहुत्तरइ,' भर भादव मास । ए अधिकार पूरउ कर्यउ, समयसुन्दर सुखवास ॥११॥पु०॥ ॥ इति श्री पुण्यसार चरित्रं संपूर्णम् ॥ ग्रन्थाग्र० ३०१ श्लोक संख्यया ॥ संवत् १७३१ वर्षे चैत्र सुदि ११ दिने ॥ [अभय जैन ग्रन्थालय प्रति नं० ८९/४३२८ ] १-बिहुत्तरइ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) समयसुन्दररास पञ्चक में प्रयुक्त देशी सूची नयरी द्वारावती कृष्ण नरेश पाइलरी करइ विलाप मृगावती वाल रे सवायो वैरहुं माहरू जी सहजई छेहड़उ रे दरजणि स० वालि रे भर जोवनमाती अलबेल्या री जलालिया नी मई वइरागा संग्राउ सोहलारी, दुलहकिसण दुलहि राणी राधिकाजी पूरब भव तुम्हे सांभलउ तिमरी पासइ वडलु गाम मदन मई वासउ माहव माडियउ रे हुँवारी लालनी श्री सहगुरु सुपसाउलइ, ए नउकारनी जाइ रे जीउरा निकसकइ (दुनीचंदना गीतनी ढाल ) ढोलणी दहिया नइ महिया रे बामणि वीरला रे, रायजादी रे जाति परियां री, कनकमाला इम चितवइ ठमक ठमकि पाय पावरी बजावइ, गजगति बांह लुड़ावइ, .. -रंगीली ग्वालणि आवइ ४३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) नगर सुदरसण अति भलउ इम सुणि दूत वचन्न कोपियउ राजा मन्न (ए मृगावतीनी दसमी ढाल) तीर्थङ्कर रे चउवीसइ मई संस्तव्या रे पोषट चाल्यउ रे परणवा चरण करणधर मुनिवर राजा जो मिलै मारग में आंबौ मिल्यौ ते मुझ मिच्छामि दुक्कडं मधुकरनी शील कहै जगि हुं बड़ी तुगियागिरि शिखर सोहै राय गंजण समा स्वामि स्वयंप्रभु सांमलउ बोलड़ो देज्यो संबक पुत्र गिरधर आवैलो कहिज्यो पंडित एह हीयाली करजोड़ी आगलि रही प्राण पीयारी जानुकी नाचै इन्द्र आणंद सुं ऊमटि आई वादली बे बांधव वंदण चल्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) वेगवता तिह बांभणी Fst आंबा आंबिली मनडुं उमाह्यौ मिलवा पुत्र नै रे सुणि बहिनी पिउड़ौ परदेशी कुमरी बोलावर कूबड़उ वि करकंडु आवियउजी हिवराणी पद्मावती राम देसउट जाय धरम हीयइ धरउ भरत नृप भावस्युं सुगुण सनेही रे मेरे लाला राजा नी कुमरी नणदल री कपूर हुवइ अति ऊजलो जी रुकमणि राणी अति विलखाणी आदर जीव क्षमागुण आदर नारी अब हम मोकली दूर दक्षिण कइ देस इ० प्रतिबूधउ रे धर्म मलो छइ भावना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ९४ ९७ ९८, ११३ १०० १०७ १०९ ११५ ११७ ११७ ११९ १२२ १२४ १२७ १२९ १३७ १३९ १४१ १४३ १४५ १४७ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादूलराजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट के प्रकाशन राजस्थान भारती (उच्च कोटि की शोध-पत्रिका) भाग १ और ३, ८) रु. प्रत्येक ... माग ४ से ७ ९) २० प्रति माग भाग २ (केवल एक अंक ), २) रुपये तैस्सितोरी विशेषांक ५) रुपये पृथ्वीराज राठोड़ जयन्ती विशेषांक ५) रुपये प्रकाशित ग्रन्थ १. कलायण (ऋतुकाव्य) ३॥) २. बरसगांठ (राजस्थानी कहानियाँ) ॥ ३. अभै पटकी ( राजस्थानी उपन्यास ) २॥ नए प्रकाशन १ राजस्थानी व्याकरण ३)५० १३ सयवत्सवीर प्रबन्ध २ राजस्थानी गद्य का विकास ६) १४ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि ४) ३ अचलदास खीचीरी वचनिका २) १५ विनयचन्द्र कृति कुसुमांजलि ४) ४ हम्मीरायण १६ जिनहर्ष ग्रन्थावली ५ पद्मिनी चरित्र चौपाई ४) १७ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली ५) ६ दलपत विलास २)२५ १८ राजस्थान रा दूहा . ४) ७ डिंगल गीत १९ वीर रस रा दूहा ८ पंवार वंश दर्पण २) २० राजस्थानी नीति दूहा ९ हरि रस २१ राजस्थानी व्रत कथाएँ १० पीरदान लालस ग्रंथावली २२ राजस्थानी प्रेम-कथाएँ ११ महादेव पार्वती वेल २३ चंदायण १२ सीताराम चौपाई २४ दम्पति विनोद २५ समयसुन्दर रासपंचक ३) पता :-सादूल राजस्थानी रिसर्चइन्स्टीट्यूट, बीकानेर । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Po Regoland hello fary.org