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धनदत्त श्रेष्ठि चौपई ]
[११५ आप बैठी ऊंची चढ़ी, साम्हउ राख्यउ तेह । तुरत देखतां ओलख्या, ए मुझ प्रीतम तेह ॥११॥ तुरत बोलाव्यउ तेहनइ, आव्यउ निज आवासि । हाथ जोड़ी ऊभी रही, पिण प्रिय चित्त उदास ॥१२॥ धनदत्त भरम धस्यउ इसउ, सही इण खंड्यउ सील । नहिं तरि ए रिद्धि किहां थकी, धूड़ि पड़उ ए लील ॥१३॥ प्रियु पूछ्यउ रे पदमिनी, कुण थयउ एह प्रकार। नारि कहइ प्रियु तणउ, सुस फल्यउ व्यवहार ॥१४॥ कामिनी सहु मांडी काउ, संबंध आमूलचूल । मित्रइ साख दीधी वली, भागउ भरम समूल ॥१५॥ नाई तेड़ि नगर तणा, सरीर कराव्यउ सूल । मर्दन करी हवरावियउ, पहिराव्या पटकूल ॥१६॥ भोजन भला करावीया, ताजा दीया तंबोल। ग्रहणा गांठा पहिर नइ, बे थया झामरझोल ॥१॥ धनदत्त कहइ तुझ शील थी, आंपे पाम्यउ सुक्ख । नारि कहै व्यवहार थी, दूरि गया सहु दुक्ख ॥१८॥ जिन ध्रम करता बे रहइ, सुख सेती नर नारि । समयसुन्दर कहै बिहुं तणइ, हुं जाऊं बलिहारि ॥१६॥
- [सर्वगाथा १४१] ढाल (८) राम देसउटइ जाय, अथवा-धरम हीयइ धरउ, एहनी तेहवइ ते साध आविया रे, तिण नगरी उद्यान । अवग्रह मांनी ऊतरया रे, बैठा करइ ध्रम ध्यानो रे । १ ।
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