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[समयसुन्दर रासत्रय राजा रूप आलिंगीयउ, मुझ बांधव मिल्य उ एहो रे । माथो चुंब्यउ महिपती, रलियायत थयो रायो रे ॥१३।। चउथी ढाल ए चित वस्यउ, वलकलचीरी वृतंतो रे। समयसुदर कहइ नप थयउ, उच्छक मिलण अत्यंतो रे ॥१४॥
सर्व गाथा ७३]
चित माहे राय चिंतवइ, मुझ पिता वन मांहि । व्रत पालउ अति वृद्ध ते, आणी अधिक उछाह ।। १ ।। पणि दुक्कर तप किम तपइ, मुझ बांधव सुकमाल । वनचर नी परि वनि भमइ. वय जोवन विकराल ॥२॥ राज रिद्धि हुँ भोगवू, लीलासु लपटाइ । अविवेकी हुँ एकलउ, कुण आचार कहाय ।। ३ ।। बांधव बांह कहीजियइ, साचउ बांधव साथ । मा जाया भाई मिलइ, एहिज मोटी आथि ॥ ४ ॥ ए बांधव इहां हुइ, माहरा राज मझारि । बे बांधव सुख भोगवां, तउ सफलउ अवतार ॥५॥ बोलावी वेश्या बहू, हुकम कीयउ राय एह । वेस करउ मुनिवर तणो, तापस सरिखउ तेह ॥ ६ ॥ तिण आश्रमि जाओ तुम्हे, वलकलचीरी वीर। आणउ एथि, उतावलो, हुकम तणो ए हीर ॥ ७ ॥ कला अपणी सहु केलवउ, वचन सराग विकार। दे आलिंगन दाखवउ, कन्द्रप कोडि प्रकार ॥ ८ ॥
[सर्व गाथा ८१]
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