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वल्कलचीरी चौपई ]
[३५ महिषी दूध पीयउ मुणी, धरती अखड़ी - धानो रे।। वनफल खवरावइ वली, वली सीखावइ विधानो रे ॥२॥ राति दिवस रमतो रहइ, मृगलां नान्हां माहो रे । वन ब्रीहि खाये वली, आणे अंगि उच्चाहो रे ॥३॥ पग चांपइ ते पिता तणा, सेवा करइ सुविचारो रे। नाम न जाणइ नारि नु, व्रतधारी ब्रह्मचारो रे ॥ ४ ॥ अस्त्री नइ ओलखइ नहीं, बहु तापस सुं बंधाणो रे। भद्रक जीव भोलउ घणं, जोगनउ थयउ ते जुवाणो रे ॥५॥ प्रसनचंद पूठिइ थकी, सांभली सगली वातो रे। धारिणी माता उरि धस्यउ, वनि थउ पुत्र विख्यातो रे ॥ ६ ॥ मुझ बांधव ते मुनिवरु, मुझनइ जउ मिलइ केमो रे। उतकंठा धरी एहवी, प्रगट्यउ बांधव प्रेमो रे॥७॥ चतुर चीतारा तेडीया, हुकम कीयउ राय एहो रे। वनि जाउ वहिला तुम्हें, तेथि पिता मुझ तेहो रे ॥८॥ वलकलचीरी वनि रहइ, रूडु तेहन रूपो रे । चतुर आणउ तुम्हें चीतरी, भाखइ इणि परि भूपो रे ॥ ६ ॥ चतुर चीतारा चालिया, प्रभु आदेश प्रमाणो रे। पहुता वन मांहे पाधरा, जिहां सोमचंद सुजाणो रे ॥१०॥ ते वलकलचीरी तणउ, चीतस्यउ रूप चित्रामो रे। रूप दिखाड्यउ राय नइ, अति अदभुत अभिरामो रे ॥११॥ आणंद राय नइ ऊपनउ, अहो अति सुंदर रूपो रे। बहु अणुहारउ बापनउ, समर तणो ए सरूपो रे ।।१२।।
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