SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १००] [समयसुन्दर रासपंचक बार वरस बैठौ रह्यो रे, दुरभक्ष ए दुकाल र । मांग्या मेह वूठा वली र, दुदुथयो सुगाल रे ॥१५॥ म०. महासेन देई संबलौ रे, दे वली वागा वेस रे। संप्रेड्या सहु लोक नै रे, आप आपने देश रे ॥ १६ ॥ म० कुटंब रह्यौ ते जीवतौ रे, ते सहु को मिल्यो आव रे। धरम ध्यान सहु सांभस्या रे, पुण्य तणे परभाव रे ॥ १७ ॥ म० इम अनुकंपा दान द्यै रे, महासेन नी पर जेह। समयसुन्दर कहै ते लहै रे, राजनै रिद्धि अछेह रे ।। १८ ।। म० [ सर्वगाथा १४४ ] ढाल (८) धन्यासो, सुणि बहिनी पिउड़ौ परदेसी । केवली पूरब भव कहै, ते सांभलज्यो सहु कोई रे । ए अनुकंपा दान थी, ते चंपक नी परि होई रे ।। १ । के० अनुकंपा दान थी थयौ, तू चंपक सेठ समृद्धो रे। गुणसुदरी त्रिलोत्तमा, तुझ, भारजा थई समृद्धो रे ॥२॥ के०. दुकाल माहे डोकरी, जेहन में पाली पोसी रे। उजेणी ते ऊपनी, जेणे तुने पाल्यो डोसी रे॥३॥ के० वंचनामति सेठ जे हुँतो, ते तापस व्रत लेई रे। वृद्धदत्त थयौ वाणियौ, जे तुझ भणी दुख देई रे ॥४॥ के. वंचनामति पाछलै भवे, तुझ रतन हत्या लोभ लाई रे। छिन्नु कोडि सोना तणी, ए तिण कारण तै पाई रे ॥५॥ के. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003820
Book TitleSamaysundar Ras Panchak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy