________________
प्रियमेलक चौपई ]
[ २३
वावरइ दस खेत्रे निज वित्त, चतुर विचक्षण चोखइं चित्त । जिनप्रासाद मंडाया जेण, ताजा उत्तंग तोरण तेण ॥६॥
मंडप पूतलि जग मण मोहई, सुन्दर दंड कलस धज सोहइ । रण रण रणकइ घंट रसाल, करइ राजा पूजा त्रिणकाल ||१०|| भगवंत ना बहु बिंब भरावइ, कुलदीपक परतीठ करावइ । लाभ भणी वलि न्यान लिखावइ, सूत्र सिद्धांत ना अरथ सिखावइ ||११||
साधु अनइ साधवी नइ सुद्ध, आहार पाणी द्यइ अविरुद्ध । साहमी साहमणि ऊगतइ सूरि, परघल भोजन द्यइ भरपूरि ||१२|| जीरण देहरा ऊधरइ जाण, पूरब पुण्य तणइ परिमाण । पौषधशाल करावइ पवित्र, चिहुंदिसि चंद्रोदय सुविचित्र || १३ ||
साधारण द्रव्य मूकइ सार, ए दस खेत्र तणउ अधिकार । पड़िकमणउ सामाइक पोषउ, आठ करम रोग मेटण ओसउ || १४॥
सदगुरु पासि सुइ सुवखाण, आगम अरथ तणउ अति जाण । पर उपगार करइ परगट्ट, विनय विवेक वारु कुलवट्ट ॥ १५ ॥
बहु दिन श्रावक ना व्रतबार, निरमल पाल्या निरतीचार । अंत समइ अणसण पणि कीधउ, मन सुधि मिच्छामि दुक्कड़ दीघउ ॥ १६ ॥
मरण समाधि करी सौधर्म, सुर पदवी पामी शुभ कर्म ।
भोगवि देव सम्बन्धी भोग, सुन्दर अपछर सुख संयोग ||१७||
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org